सुरेंदर कुमार चोपड़ा
सांसद चिराग पासवान को उनके चाचा पशुपति कुमार पारस ने लोक जनशक्ति पार्टी के सभी पदों से हटा दिया तो
चिराग ने भी चाचा और उनके समर्थक सांसदों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। अब पार्टी पर वास्तविक
अधिकार किसका है यह तो कानून ही तय करेगा लेकिन हम आपको बता दें कि राजनीति में चाचा-भतीजे की यह
कोई पहली लड़ाई नहीं है। भारतीय राजनीति का इतिहास भरा पड़ा है जिसमें कभी चाचा भतीजे पर भारी पड़ा तो
कभी भतीजा चाचा पर। दरअसल सत्ता का खेल ही ऐसा है कि हर कोई सदैव बाजी जीतना चाहता है और जीत की
यही चाहत कभी परिवारों का विभाजन कराती है तो कभी पार्टियों का विभाजन होता है। सत्ता की चाहत में पल भर
में घर का झगड़ा सड़कों पर आ जाता है और विरोधी दलों के साथ ही जनता भी उसका आनंद लेती है।
दुष्यंत-अभय की भिड़ंत
खैर चाचा-भतीजा पर ही केंद्रित रहें तो पिछले दिनों हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल का नेतृत्व करने वाले
चौटाला परिवार की लड़ाई सड़कों पर आ गयी थी। चाचा अभय चौटाला ने पार्टी पर अपना हक जताया तो भतीजे
दुष्यंत चौटाला और दिग्विजय चौटाला ने अपनी अलग पार्टी 'जननायक जनता पार्टी' बना ली। हरियाणा विधानसभा
चुनावों में जननायक जनता पार्टी किंग मेकर बनकर उभरी और दुष्यंत चौटाला आज हरियाणा के उपमुख्यमंत्री हैं
जबकि उनके चाचा अभय चौटाला के पास आज विधानसभा की सदस्यता तक नहीं है।
पवार से बगावत पर उतरे थे अजित
इसके साथ ही सभी को याद होगा जब महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद भाजपा और शिवसेना का
झगड़ा हो गया और मुख्यमंत्री पद शिवसेना को देने से भाजपा ने साफ इंकार कर दिया तो अपने चाचा शरद पवार
को धोखा देकर अजित पवार भाजपा के साथ आ गये और देवेन्द्र फडणवीस की सरकार में उपमुख्यमंत्री बन गये।
हालांकि बाद में चाचा ने भतीजे को मना लिया लेकिन भतीजे अजित पवार मन से माने हैं या फिर मौका आने पर
पाला बदलेंगे, यह तो भविष्य ही बतायेगा।
बाला साहेब से अलग हुए थे राज ठाकरे
इससे पहले चाचा-भतीजे की हाई-प्रोफाइल लड़ाई तब सामने आई थी जब अपने चाचा बाला साहेब ठाकरे के साथ
राज ठाकरे की अनबन हो गयी थी। चाचा बाला साहेब ठाकरे ने शिवसेना की कमान अपने बेटे उद्धव ठाकरे को
सौंप दी तो भतीजा राज ठाकरे बागी हो गया और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के नाम से अपनी अलग पार्टी बना
ली। एक समय था जब बाला साहेब ठाकरे के अलावा शिवसेना में राज ठाकरे का ही राज चला करता था लेकिन
सत्ता की चाह ने परिवार को बिखेर कर रख दिया।
अखिलेश ने शिवपाल को बाहर का रास्ता दिखाया था
उत्तर प्रदेश में चाचा शिवपाल सिंह यादव और भतीजे अखिलेश यादव में तो ऐसी ठनी कि सत्ता तो हाथ से गयी ही
पार्टी भी डूब गयी। अखिलेश यादव ने पिता मुलायम सिंह यादव की बातों को अनसुना कर चाचा शिवपाल सिंह
यादव को किनारे करना शुरू किया और पार्टी के सारे दायित्व अपने हाथ में लिये तो चाचा शिवपाल बागी हो गये
और सपा छोड़कर अपनी अलग पार्टी बना ली। 2017 के विधानसभा चुनावों में तो समाजवादी पार्टी की लुटिया डूबी
ही 2019 के लोकसभा चुनावों में भी उसे कोई खास फायदा नहीं हुआ। अब विधानसभा के चुनाव एक बार फिर
सिर पर हैं और ना तो चाचा का गुस्सा कम हुआ है ना ही भतीजा मुलायम पड़ा है।
परिवारों में भी जमकर हुआ है संघर्ष
इसके अलावा सत्ता या पार्टी पर कब्जे को लेकर जो परिवार बिखरे उनमें गांधी परिवार का नाम शीर्ष पर आता है।
संजय गांधी के आकस्मिक निधन के बाद जब राजीव गांधी कांग्रेस में सक्रिय हुए तो धीरे-धीरे संजय गांधी की
पत्नी मेनका गांधी और उनके बेटे वरुण गांधी को किनारे कर दिया गया और जिस कांग्रेस को एक समय संजय
गांधी ही चलाते थे आज वहां राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी और बेटे राहुल गांधी का राज चलता है। इसके
अलावा देश में ऐसे कई परिवार आधारित राजनीतिक दल हैं जिनकी आपसी फूट अक्सर सड़कों पर आती रहती है।
राजनीति में सबसे पक्का और सच्चा रिश्ता कौन-सा है?
देखा जाये तो भारतीय राजनीति में यदि कोई रिश्ता निभा है तो वह अक्सर खून का रिश्ता ही निभा है। मसलन
फिर गांधी परिवार पर ही नजर डालिये। नेहरू जी की बेटी इंदिरा गांधी, इंदिरा गांधी के बेटे राजीव गांधी और
राजीव गांधी के बाद अब उनके बीवी-बच्चे। ऐसे ही आप अलग-अलग राज्यों पर नजर डालते जाइये आपको खून के
रिश्तों की अहमियत समझ आती जायेगी। जम्मू-कश्मीर से शुरुआत करें तो पाएंगे कि शेख अब्दुल्ला के बाद उनके
बेटे फारुक अब्दुल्ला और उनके बाद उमर अब्दुल्ला। इसके अलावा मुफ्ती मोहम्मद सईद के बाद उनकी बेटी
महबूबा मुफ्ती। पंजाब में प्रकाश सिंह बादल के बाद उनके बेटे सुखबीर सिंह बादल, महाराष्ट्र में बाला साहेब ठाकरे
के बाद उनके बेटे उद्धव और पोते आदित्य ठाकरे। राकांपा में शरद पवार और उनकी बेटी सुप्रिया सुले। हरियाणा
में ओम प्रकाश चौटाला और उनके बेटे अजय और अभय चौटाला।
उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव जरूर अपवाद रहे जिन्होंने अपने पिता मुलायम सिंह यादव को हटाकर खुद
समाजवादी पार्टी का अध्यक्ष पद हासिल कर लिया। उत्तर प्रदेश में आगे बढ़े खून के रिश्तों की बात करें तो पहले
चौधरी चरण सिंह, फिर उनके बेटे चौधरी अजित सिंह और अब उनके बेटे चौधरी जयंत सिंह। इसी प्रकार अपना
दल में पहले सोने लाल पटेल और फिर उनकी बेटी अनुप्रिया पटेल। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल की कमान पहले
लालू प्रसाद यादव, फिर पत्नी राबड़ी देवी और उसके बाद बेटे-बेटियों के हाथ में। झारखंड मुक्ति मोर्चा में पहले
शिबू सोरेन और फिर हेमंत सोरेन। ओडिशा में पहले बीजू पटनायक और अब नवीन पटनायक, आंध्र प्रदेश में पहले
वाईएसआर रेड्डी और फिर उनकी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं जगन मोहन रेड्डी, तेदेपा में चंद्रबाबू नायडू अभी
पार्टी संभाल रहे हैं और अपने बेटे को आगे बढ़ा रहे हैं। इसी तरह तेलंगाना में टीआरएस और तमिलनाडु में द्रमुक
के नेतृत्व वाली सरकारों में बेटा-बेटी, भाई-बहन तेजी से आगे बढ़ रहे हैं।
बुआ-भतीजे की जोड़ी भी हर जगह सफल नहीं
बहरहाल, भारतीय राजनीति में आपको अनंत उदाहरण आपको मिल जाएंगे जहां छोटी-बड़ी पार्टियों की कमान पति-
पत्नी या बेटे-बेटी ही संभाल रहे हैं या फिर सांसद-विधायक के बेटे-बेटी ही आगे उनके निर्वाचन क्षेत्रों का
प्रतिनिधित्व भी कर रहे हैं। राजनीति में अन्य चर्चित रिश्तों की बात करें तो दामाद चंद्रबाबू नायडू ससुर के साथ
रिश्ते सही से नहीं निभा पाये जबकि केरल में मुख्यमंत्री पी. विजयन और उनके दामाद के राजनीतिक रिश्ते भी
अच्छे चल रहे हैं। बुआ-भतीजे की पटरी भी सिर्फ पश्चिम बंगाल में ही सही बैठी है, उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव
और मायावती ज्यादा समय तक गठबंधन नहीं बनाये रख सके। खैर…कुल मिलाकर देखें तो भारतीय राजनीति में
चाचा-भतीजे और भाई-भाई का संबंध सबसे ज्यादा विवादित रहा लेकिन माँ-बाप के साथ बेटे-बेटी का संबंध सबसे
ज्यादा विश्वसनीय तरीके से आगे बढ़ता चला जा रहा है।