शिशिर गुप्ता
प्रकृति और समय का पहिया इसी तरह घूमता है। गहरी, काली रात के बाद दिन का सूरज उगता है। उजाले फूटने
लगते हैं। निराशा और अवसाद के बाद उम्मीदें जगती हैं। सुख के साथ दुख भी जुड़ा है। बीमारी का निष्कर्ष मौत
है, तो स्वस्थ होना भी तय है। जो पुनर्जन्म को मानते हैं, उनके लिए मौत के मायने हैं-नया जन्म, नया जीवन
और नया प्राकृतिक चक्र। कोरोना वायरस की भी यही नियति होगी। हम आज से ही कोविड का आतंक और खौफ
ओझल होते देख रहे हैं। संक्रमण की दूसरी लहर को शांत होते महसूस कर रहे हैं। देश और सूबों में तालाबंदी की
दुनिया खुल रही है, तो कुदरती चक्र की शाश्वतता के प्रति भी आस्था और विश्वास गहरे हो रहे हैं। यह उल्लास,
आनंद और विजय का दौर नहीं है।
अनुशासन और एहतियात अब भी अपेक्षित हैं। बेशक बीते सप्ताह के दौरान कोरोना के संक्रमित मरीज 32 फीसदी
घटे हैं, सक्रिय मरीजों की संख्या करीब 38 लाख से घटकर 10 लाख से भी कम हो चुकी है और संक्रमण की
औसत राष्ट्रीय दर 4.25 फीसदी तक लुढ़क आई है। यकीनन मौतों की संख्या 5-6 फीसदी बढ़ी दिख रही है, लेकिन
उनमें पीछे छूट गई मौतों की संख्या भी शामिल है। सिर्फ महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, दिल्ली और उप्र में
एक अप्रैल के बाद 1.18 लाख से अधिक मौतें दर्ज की गई हैं। ऐसी मौतों का आंकड़ा करीब 2.1 लाख बताया जा
रहा है। दक्षिण के चार राज्यों और महाराष्ट्र में रोज़ाना 100 और उससे ज्यादा मौतें दर्ज की जा रही हैं। करीब 71
फीसदी सक्रिय मरीज दक्षिण भारत और महाराष्ट्र तक ही सिमटे हैं। शेष भारत अब राहत महसूस कर रहा है। देश
के 12 राज्यों में संक्रमण दर सिर्फ तीन फीसदी से मात्र 0.30 फीसदी के बीच है। लगभग इतने ही राज्यों में यह
दर 5 फीसदी से 13.9 फीसदी के दरमियान है। देश के कुल 718 जिलों में से 421 जिले ऐसे हैं, जहां कोरोना
वायरस की संक्रमण दर 5 फीसदी से कम हो चुकी है। 121 जिलों में संक्रमण दर 5-10 फीसदी है और 192 जिलों
में 10 फीसदी से ज्यादा संक्रमण अब भी है। अर्थात कोरोना वायरस हमारे बीच अभी मौजूद है। अलबत्ता उसके
जानलेवा प्रहार अब थक चुके हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानदंडों पर आकलन करें, तो जिन इलाकों में संक्रमण
दर 5 फीसदी से कम हो चुकी है, वहां संक्रमण काबू में है।
अब वह बेलगाम होकर नहीं फैलेगा। भारत के संदर्भ में यह कोरोना महामारी के शांत होने का दौर है। अब एक
दिन में 70,000 से कम मरीज सामने आ रहे हैं। मई में रोज़ाना 4 लाख से अधिक मरीजों का ‘पीक’ हम देख चुके
हैं। उसकी तुलना में यह आंकड़ा बेहद कम है। इतना होने के बावजूद कोरोना की तीसरी लहर को लेकर चिंताएं और
संभावनाएं जताई जाने लगी हैं। ऐसे आकलन भी सामने आ रहे हैं कि वह लहर बच्चों के लिए खतरनाक साबित हो
सकती है। इसका बुनियादी कारण यह है कि बच्चों के लिए दुनिया भर में कोई भी टीका नहीं है। अमरीकी कंपनी
फाइज़र ने 12-15 साल के किशोरों के लिए टीका बनाया है, जिसे आपात मंजूरी मिल चुकी है। कंपनी 0-6 साल
और 6-17 साल के बच्चों के लिए टीके का परीक्षण कर रही है। कमोबेश छह माह बाद कोई परिणाम सामने होगा।
भारत में भी कोवैक्सीन के बच्चों पर परीक्षण जारी हैं। इनमें डॉक्टरों के बच्चे भी शामिल किए गए हैं। एम्स के
प्रोफेसर एवं सामुदायिक मेडिसन के विशेषज्ञ डॉ. संजय राय का सवाल है कि जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई भी
साक्ष्य सामने नहीं आया है अथवा परीक्षण का डाटा प्रकाशित नहीं किया गया है, तो किस आधार पर तीसरी लहर
को बच्चों के लिए खतरनाक आंका जा सकता है? ऐसे ही सवाल एम्स के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया समेत कई
वरिष्ठ चिकित्सकों ने भी उठाए हैं, लिहाजा डॉक्टरों और बहस के हिस्सेदारों से आग्रह है कि न तो भ्रम फैलाया
जाए और न ही भयावहता का माहौल बनाया जाए। फिलहाल हम एक नारकीय दौर से निजात पाने की प्रक्रिया में
हैं। बेशक सरकारें तीसरी लहर के मद्देनजर अपनी तैयारियां जरूर दुरुस्त कर लें।