सुरेंदर कुमार चोपड़ा
विश्व जलवायु रपट 1993 के 28 साल बाद ‘विश्व मौसम विज्ञान संस्था’ द्वारा 2020 में जारी की गई है। जलवायु
परिवर्तन का अर्थ है भूमि और समुद्र की सतह पर तापमान में वृद्धि, और उसके कारण होने वाले मौसमी बदलाव।
तापमान का स्रोत सूर्य है। सूर्य जितनी गर्मी धूप के माध्यम से धरती पर छोड़ता है, उसका बड़ा भाग पृथ्वी की
सतह से टकरा कर परावर्तित हो जाता है और ब्रह्मांड में समा जाता है। जरूरत के अनुसार गर्मी पृथ्वी और उसके
वातावरण द्वारा अवशोषित कर ली जाती है, किंतु जैसे-जैसे धरती के वातावरण में कार्बन डायआक्साइड और मीथेन
की मात्रा बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे इन गैसों के अणुओं में अधिकाधिक मात्रा में सूर्य की ऊष्मा फंस जाती है और
परावर्तित नहीं हो पाती। इसके कारण धरती पर तापमान में वृद्धि होने लगती है। इसी को ग्रीन हॉउस प्रभाव कहा
जाता है। बढ़ती गर्मी के कारण मौसम में कई बदलाव होने लगते हैं। जैसे कि वर्षा के चक्र में बदलाव, सूखा और
बाढ़ का बढ़ता चक्र, ग्लेशियरों का पिघलना, बर्फ के चक्र में बदलाव, तूफानी हवाओं का प्रकोप आदि। इसके अन्य
भी कई प्रभाव पड़ते हैं। जैसे जंगलों में आग का प्रकोप बढ़ना, भूमि का अवक्रमण, धूल के तूफान और रेती करण,
समुद्र तल का बढ़ना, समुद्र जल का अम्लीकरण, समुद्र जल में ऑक्सीजन की कमी आदि।
ये बदलाव इतने भयंकर स्तर तक पहुंच जाते हैं कि मनुष्य जीवन ही धरती पर दुर्लभ हो जाएगा। इसलिए जलवायु
परिवर्तन के मूल कारण तापमान वृद्धि को रोकना अपरिहार्य हो गया है। तापमान वृद्धि क्योंकि वायुमंडल में बढ़ते
कार्बन डायआक्साइड और मीथेन गैस स्तर से हो रही है, अतः इन गैसों के स्रोत को पहचानना जरूरी है। कार्बन
डायआक्साइड धुएं से निकल रही है और यह धुआं खनिज तेलों, पेट्रोल, डीजल और पत्थर के कोयले आदि के बढ़ते
उपयोग के कारण बढ़ता ही जा रहा है। जंगलों की आग का भी इसमें बड़ा योगदान है। अतः ऊर्जा की जरूरतों को
पूरा करने के वैकल्पिक साधन ढूंढने होंगे। जैविक पदार्थों के ऑक्सीजन रहित सड़न के कारण मीथेन गैस पैदा होती
है। यह कार्बन डायआक्साइड से भी कई गुणा ज्यादा तापमान वृद्धि करने वाली है। अतः जैविक पदार्थों को
तकनीकी तौर पर सड़ाने में तेजी लाकर उस मीथेन को इकट्ठा करके ईंधन के तौर पर प्रयोग करके वायुमंडल में
जाने से रोका जा सकता है। बायो गैस संयंत्र इस काम में प्रभावी तकनीक साबित हो सकती है। बड़े बांधों की झीलें
भी मीथेन का बड़ा स्रोत हैं। इनमें बाढ़ से आने वाला जैविक कचरा पानी के नीचे ऑक्सीजन रहित सड़न से मीथेन
गैस छोड़ता है।
ताप विद्युत के लिए खनिज कोयले के प्रयोग को कम करने के लिए सौर ऊर्जा पर जोर देना होगा। वैसे भी बड़े
पैमाने पर उत्पादन की पहल से प्रति यूनिट सौर ऊर्जा की कीमत अन्य प्रचलित संसाधनों से सस्ती पड़ रही है।
खनिज तेल के विकल्प के रूप में कृषि अवशेषों और वनों से प्राप्त होने वाले प्राकृतिक तौर पर सड़नशील पत्ते,
टहनी, बेकार लकड़ी से एथनोल बना कर खनिज तेल की खपत को कम किया जा सकता है। इन सड़नशील पदार्थों
को कुछ एंजाइम द्वारा उपचारित करके शर्करा में तबदील कर लिया जाता है, फिर शर्करा को खामीरे द्वारा सड़ा
कर एथनोल बना लेते हैं। बेकार पड़ी कृषि भूमियों में भी इस तरह के पेड़ लगाए जा सकते हैं जो हर साल कटाई
द्वारा पर्याप्त जैविक पदार्थ दे सकें जिससे एथनोल बनाया जा सके और किसान को भी अच्छी आमदनी हो सकती
है। ऐसे बहुत से पेड़ प्रजातियां हैं जो हर साल शाख तराशी से पर्याप्त कच्चा माल दे सकते हैं और स्थानीय जरूरतों
को भी साथ-साथ पूरा कर सकते हैं। जंगलों में चीड़ की पत्तियों का भी अपार भंडार पड़ा रहता है जो हर वर्ष
भयानक अग्निकांडों का कारण बनता है। यह सब माल इकट्ठा करके एथनोल उत्पादन में प्रयोग हो सकता है।
वैश्विक तापमान वृद्धि से मौसम की विभीषिकाएं बढ़ रही हैं, जिसके लक्षण के उदाहरण पूरे विश्व में दिखाई दे रहे
हैं। इस वर्ष ही उत्तराखंड की दुर्घटनाएं, पिछले दशक की केदारनाथ त्रासदी, इस वर्ष पूर्वी आस्ट्रेलिया में आया तूफान
जिसमें 5 सेंटीमीटर व्यास के ओले पड़े, यूरोप और अमरीका में सर्दियों के बर्फानी तूफान, स्विटज़रलैंड में 24 घंटे
में 421 मि.मी. बारिश हुई। ये अभूतपूर्व दुर्घटनाएं हैं और स्थिति की गंभीरता की ओर इशारा करती हैं। वैश्विक
तापमान वृद्धि को औद्योगिक क्रांति पूर्व स्तर से 2 डिग्री ज्यादा के भीतर रोकने के लिए पेरिस सम्मेलन में
सहमति बनी थी, किंतु उस सहमति पर कार्य की गति बहुत धीमी है। वर्तमान में हम 1.2 डिग्री की वृद्धि तो
पहले ही प्राप्त कर चुके हैं। इसलिए कार्रवाई के लिए समय कम होता जा रहा है। औद्योगिक क्रांति पूर्व ग्रीन हॉउस
गैसों का स्तर वायु में 270 पीपीएम था जो अब 414 पीपीएम पहुंच चुका है। वायुमंडल में कुल छोड़ी जा रही ग्रीन
हॉउस गैसों की वर्तमान मात्रा का आधे से ज्यादा भाग तो चार देश ही छोड़ रहे हैं, जिनमें चीन 27 फीसदी,
अमरीका 11 फीसदी, भारत 6.6 फीसदी और यूरोप 6.5 फीसदी शामिल हैं। इस लापरवाही का दूसरा बड़ा प्रभाव
ग्लेशियर के रूप में जमी बर्फ पर पड़ रहा है। ऐसा अनुमान है कि 2050 तक हिमालय के ग्लेशियर समाप्त हो
जाएंगे। जैसे-जैसे तापमान में वृद्धि होगी, ग्लेशियर पिघलने की गति बढ़ती जाएगी। ध्रुव प्रदेशों की बर्फ पिघलने
की गति भी इसी तरह बढ़ती जा रही है। ग्लेशियरों द्वारा धरती का 10 फीसदी भूभाग ढका हुआ है।
दक्षिणी ध्रुव में तो कई जगह बर्फ की परत की मोटाई 4.7 कि.मी. तक है। यह सारी बर्फ यदि पिघल जाए तो
समुद्र तल 70 फुट ऊपर उठ जाएगा। तो समुद्र किनारे के देशों और बस्तियों का क्या बनेगा? पर्वतीय ग्लेशियर
समाप्त हो जाने पर सदानीरा नदियां मौसमी बन कर रह जाएंगी। इससे नदियों की उपत्यकाओं और गंगा और
सिंध के मैदानों की सारी कृषि व्यवस्थाएं चरमरा जाएंगी और 2 डिग्री सेंटीग्रेड से ज्यादा तापमान में वृद्धि होती है
तो धरती पर जीवन के नष्ट होने का खतरा पैदा हो जाएगा। विश्व पर्यावरण दिवस पर हम निश्चय करके ग्रीन
हॉउस गैसों को प्रचूषित करके नियंत्रित करने में समर्थ बहु उद्देश्यीय वृक्षों का अधिक से अधिक रोपण और पालन
करें और ग्रीन हॉउस गैसों को वातावरण में छोड़ने की मात्रा को लगातार तेज़ गति से घटाते जाने का कार्य शुरू
करें। इसी में ही मानव जाति का भविष्य छुपा हुआ है, वरना सारी तकनीकें धरी की धरी ही रह जाएंगी।