विनय गुप्ता
शानदार जनधर्मी अतीत और उसके पारंपरिक मूल्यों ने मीडिया को समाज में जो आदर दिलाया है, वह विलक्षण है।
हिंदी पत्रकारिता की नींव में ही संस्कारों का पाठ है और गहरा मूल्यबोध उसकी चेतना में रचा-बसा है। 30 मई,
1826 को कोलकाता से जब पं. युगुल किशोर शुक्ल ने उदंत मार्तंण्ड का प्रकाशन प्रारंभ किया था तो उन्होंने उसका
उद्देश्य बताया था- 'हिंदुस्तानियों के हित के हेत।' यही हिंदी और भारतीय पत्रकारिता का मूलमंत्र है। भारतीय
मीडिया अपने पारंपरिक अधिष्ठान से ही राष्ट्रभक्ति, जनसेवा और लोकमंगल के मूल्यों से अनुप्राणित होती रही है।
वर्तमान में पत्रकारिता पर सवालिया निशान बहुत हैं। 'एजेंडा आधारित पत्रकारिता' के चलते समूची मीडिया की
नैतिकता और समझदारी कसौटी पर है। सही मायने में पत्रकारिता में अब 'गैरपत्रकारीय शक्तियां' ज्यादा प्रभावी
होती हुयी दिखती हैं। जो कहने को तो मीडिया में उपस्थित हैं, किंतु मीडिया की नैतिक शक्ति और उसकी सीमाओं
का अतिक्रमण करना उनका स्वभाव बन गया है। इस कठिन समय में टीवी मीडिया के शोर और कोलाहल ने जहां
उसे 'न्यूज चैनल' के बजाए 'व्यूज चैनल' बना दिया है। वहीं सोशल मीडिया में आ रही अधकचरी और तथ्यहीन
सूचनाओं की बाढ़ ने नए तरह के संकट खड़े कर दिए हैं।
पत्रकार और एक्टिविस्ट का बहुत दूर का फासला है। किंतु हम देख रहे हैं कि हमारे बीच पत्रकार अब सूचना देने
वाले कम, एक्टिविस्ट की तरह ज्यादा व्यवहार कर रहे हैं। एक्टिविस्ट के मायने साफ हैं, वह किसी उद्देश्य या
मिशन से अपने विचार के साथ आंदोलनकारी भूमिका में खड़ा होता है। किंतु एक पत्रकार के लिए यह आजादी नहीं
है कि वह सूचना देने की शक्ति का अतिक्रमण करे और उसके पक्ष में वातावरण भी बनाए। इसमें कोई दो राय
नहीं कि कोई भी व्यक्ति विचारधारा या राजनैतिक सोच से मुक्त नहीं हो सकता। हर व्यक्ति का अपना राजनीतिक
चिंतन है, जिसके आधार पर वह दुनिया की बेहतरी के सपने देखता है। यहां हमारे समय के महान संपादक स्व. श्री
प्रभाष जोशी हमें रास्ता दिखाते हैं। वे कहते थे "पत्रकार की पॉलिटिकल लाइन तो हो, किंतु उसकी पार्टी लाइन नहीं
होनी चाहिए।" यह एक ऐसा सूत्र वाक्य है, जिसे लेकर हम हमारी पत्रकारीय जिम्मेदारियों का पूरी निष्ठा से निर्वहन
कर सकते हैं।
मीडिया में प्रकट पक्षधरता का ऐसा चलन उसकी विश्वसनीयता और प्रामणिकता के लिए बहुत बड़ी चुनौती है।
हमारे संपादकों, मीडिया समूहों के मालिकों और शेष पत्रकारों को इस पर विचार करना होगा कि वे मीडिया के पवित्र
मंच का इस्तेमाल भावनाओं को भड़काने, राजनीतिक दुरभिसंधियों, एजेंडा सेटिंग अथवा 'नैरेटिव' बनाने के लिए न
होने दें। हम विचार करें तो पाएंगें कि बहुत कम प्रतिशत पत्रकार इस रोग से ग्रस्त हैं। किंतु इतने लोग ही समूची
मीडिया को पक्षधर मीडिया बनाने और लांछित करने के लिए काफी हैं। हम जानते हैं कि औसत पत्रकार अपनी
सेवाओं को बहुत ईमानदारी से कर रहा है। पूरी नैतिकता के साथ, सत्य के साथ खड़े होकर अपनी खबरों से मीडिया
को समृद्ध कर रहा है।
देश में आज लोकतंत्र की जीवंतता का सबसे बड़ा कारण मीडियाकर्मियों की सक्रियता ही है। मीडिया ने हर स्तर पर
नागरिकों को जागरूक किया है तो राजनेता और नौकरशाहों को चौकन्ना भी किया है। इसी कारण समाज आज भी
मीडिया की ओर बहुत उम्मीदों से देखता है। किंतु कुछ मुठ्ठी भर लोग जो मीडिया में किन्हीं अन्य कारणों से हैं
और वे इस मंच का राजनीतिक कारणों और नरेटिव सेट के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं, उन्हें पहचानना जरूरी है।
क्योंकि ये थोड़े से ही लोग लाखों-लाख ईमानदार पत्रकारों की तपस्या पर भारी पड़ रहे हैं। बेहतर हो कि एक्टिविस्ट
का मन रखनेवाले पत्रकार इस दुनिया को नमस्कार कह दें ताकि मीडिया का क्षेत्र पवित्र बना रहे। हमें यह मानना
होगा कि मीडिया का काम सत्यान्वेषण है, नरेटिव सेट करना, एजेंडा तय करना उसका काम नहीं है। पत्रकारिता को
एक 'टूल' की तरह इस्तेमाल करने वाले लोग अपना और मीडिया दोनों का भला नहीं कर रहे हैं। क्योंकि उनकी
पत्रकारिता स्वार्थों के लिए है, इसलिए वे तथ्यों की मनमानी व्याख्या कर समाज में तनाव और वैमनस्य फैलाते हैं।
सूचना प्रौद्योगिकी ने पत्रकारिता के पूरे स्वरूप को बदल दिया है। अब सूचनाएं सिर्फ संवाददाताओं की चीज नहीं
रहीं। विचार अब संपादकों के बंधक नहीं रहे। सूचनाएं अब उड़ रही हैं इंटरनेट के पंखों पर। सोशल मीडिया और वेब
मीडिया ने हर व्यक्ति को पत्रकार तो नहीं पर संचारक या कम्युनिकेटर तो बना ही दिया है। वह फोटोग्राफर भी है।
उसके पास विचारों, सूचनाओं और चित्रों की जैसी भी पूंजी है, वह उसे शेयर कर रहा है। इस होड़ में संपादन के
मायने बेमानी हैं, तथ्यों की पड़ताल बेमतलब है, जिम्मेदारी का भाव तो कहीं है ही नहीं।
सूचना की इस लोकतांत्रिकता ने आम आदमी को आवाज दी है, शक्ति भी दी है। किंतु नए तरह के संकट खड़े कर
दिए हैं। सूचना देना अब जिम्मेदारी और सावधानी का काम नहीं रहा। स्मार्ट होते मोबाइल ने सूचनाओं को लाइव
देना संभव किया है। समाज के तमाम रूप इससे सामने आ रहे हैं। इसके अच्छे और बुरे दोनों तरह के प्रयोग
सामने आने लगे हैं। सरकारें आज साइबर लॉ के बारे में काम रही हैं। साइबर के माध्यम से आर्थिक अपराध तो
बढ़े ही हैं, सूचना और संवाद की दुनिया में भी कम अपराध नहीं हो रहे। संवाद और सूचना से लोगों को भ्रमित
करना, उन्हें भड़काना आसान हुआ है। कंटेट को सृजित करनेवाले प्रशिक्षित लोग नहीं है, इसलिए दुर्घटना
स्वाभाविक है। ऐसे में तथ्यहीन, अप्रामणिक, आधारहीन सामग्री की भरमार है, जिसके लिए कोई जिम्मेदार नहीं है।
यहां साधारण बात को बड़ा बनाने की छोड़ दें, बिना बात के भी बात बनाने की भी होड़ है। फेक न्यूज का पूरा
उद्योग यहां पल रहा है। यह भी ठीक है कि परंपरागत मीडिया के दौर में भी फेक न्यूज होती थी, किंतु इसकी
इतनी विपुलता कभी नहीं देखी गई। 'वाट्सअप यूनिर्वसिटी' जैसे शब्द बताते हैं कि सूचनाएं किस स्तर पर संदिग्ध
हो गयी हैं। सोशल मीडिया के इस दौर में सच कहीं सहमा-सा खड़ा है। इसलिए सोशल मीडिया अपनी अपार
लोकप्रियता के बाद भी भरोसा हासिल करने में विफल है।
आज बड़े से बड़े मीडिया हाउस से ताकतवर फेसबुक और यू-ट्यूब हैं, जो कोई कंटेट निर्माण नहीं करते। आपकी
खबरों, आपके फोटो और आपकी सांस्कृतिक, कलात्मक अभिरुचियों को प्लेटफार्म प्रदान कर ये सर्वाधिक पैसे कमा
रहे हैं। गूगल, फेसबुक, यू-ट्यूब, ट्विटर जैसे संगठन आज किसी भी मीडिया हाउस के लिए चुनौती की तरह हैं।
बिना कोई कंटेट क्रियेट किए भी ये प्लेटफार्म आपकी सूचनाओं और आपके कंटेट के दम पर बाजार में छाए हुए हैं
और बड़ी कमाई कर रहे हैं। बड़े से बड़े मीडिया हाउस को इन प्लेटफार्म पर आकर अपनी लोकप्रियता बनाए रखने
के लिए जतन करने पड़ रहे हैं। यह एक अद्भुत समय है। जब भरोसा, प्रामणिकता, विश्वसनीयता जैसे शब्द
बेमानी लगने लगे हैं। माध्यम बड़ा हो गया है, विचार और सूचनाएं उसके सामने सहमी हुयी हैं। सूचनाओं को
इतना बेबस कभी नहीं देखा गया, सूचना तो शक्ति थी। किंतु सूचना के साथ हो रहे प्रयोगों और मिलावट ने
सूचनाओं की पवित्रता पर भी ग्रहण लगा दिए हैं। व्यक्ति की रुचि रही है कि वह सर्वश्रेष्ठ को ही प्राप्त करे। उसे
सूचनाओं में मिलावट नहीं चाहिए। वह भ्रमित है कि कौन सा माध्यम उसे सही रूप में सूचनाओं को प्रदान करेगा।
ऐसे कठिन समय में अपने माध्यमों को बेलगाम छोड़ देना ठीक नहीं है। नागरिक पत्रकारिता के उन्नयन के लिए
हमें इसे शक्ति देने की जरूरत है। एजेंडा के आधार पर चलने वाली पत्रकारिता के बजाए सत्य पर आधारित
पत्रकारिता समय की मांग है। पत्रकारिता का एक ऐसा माडल सामने आना चाहिए जहां सत्य अपने वास्तविक
स्वरूप में स्थान पा सके। मूल्य आधारित पत्रकारिता या मूल्यानुगत पत्रकारिता ही किसी भी समाज का लक्ष्य है।
पत्रकारिता का एक ऐसा माडल भी प्रतीक्षित है, जहां सूचनाओं के लिए समाज स्वयं खर्च वहन करे। समाज पर
आधारित होने से मीडिया ज्यादा स्वतंत्र और ज्यादा लोकतांत्रिक हो सकेगा।
अफसोस है कि ऐसे अनेक माडल हमारे बीच आए किंतु वे जनता के साथ न होकर 'एजेंडा पत्रकारिता' में लग गए,
इससे वो लोगों का भरोसा तो नहीं जीत सके। साथ ही वैकल्पिक माध्यमों से भी लोगों का भरोसा जाता रहा। इस
भरोसे को जोड़ने की जिम्मेदारी भी मीडिया के प्रबंधकों और संपादकों की है। क्योंकि कोई भी मीडिया प्रमाणिकता
और विश्वसनीयता के आधार पर ही लोकप्रिय बनता है। प्रमाणिकता उसकी पहली शर्त है। आज संकट यह है कि
अखबारों के स्तंभों में छपे हुए नामों और उनके लेखकों के चित्रों से ही पता चल जाता है कि इन साहब ने आज
क्या लिखा होगा। बहसों (डिबेट) के बीच टीवी न्यूज चैनलों की आवाज को बंद कर दें और चेहरे देखकर आप बता
सकते हैं कि यह व्यक्ति क्या बोल रहा होगा। ऐसे समय में मीडिया को अपनी छवि पर विचार करने की जरूरत
है। सब पर सवाल उठाने वाले माध्यम ही जब सवालों के घेरे में हों तो हमें सोचना होगा कि रास्ता सरल नहीं है।
इन सवालों पर सोचना, इनके ठोस और वाजिब हल निकालना पत्रकारिता से प्यार करने वाले हर व्यक्ति की
जिम्मेदारी है।