सरकार द्वारा एयर इंडिया के निजीकरण की ओर बढ़ते कदम

asiakhabar.com | April 3, 2021 | 5:10 pm IST

शिशिर गुप्ता

इस समय भारत समेत पूरी दुनिया सदी की सबसे खतरनाक महामारी से प्रभावित है ।कोविड-19 में तबाह हुए कई
सेक्टर में से एविएशन इंडस्ट्री का सबसे बुरा हाल है । एयरलाइन बिजनेस को नियमित रूप से लाभ में चलाना
सबसे कठिन काम होता है. खासकर महामारी के दौर में यह नामुमकिन है ।दुनियाभर में कई एयरलाइंस ने
दिवालिया होने के लिए आवेदन दिया है और कई अन्य एयरलाइंस को सरकार से आर्थिक मदद भी मिली है
।सरकार ने 2002-03 के बाद पहली बार किसी सार्वजनिक क्षेत्र के बिजनेस का निजीकरण करने के अपने प्रयास में
एयर इंडिया को सही दिशा में लाने में भी बहादुरी दिखाई है ।अगर एक कम जटिल और अधिक लाभदायक
बिजनेस का निजीकरण करने की पहले कोशिश होती तो शायद अच्छा होता । इससे अफसरों को प्रक्रिया और इसे
अमल में लाने के लिए अधिकारियों के बीच विश्वास जगता. दूसरी तरफ, अगर सरकार पहली कठिन परीक्षा पास

कर लेती है तो बाकी की राह उसके लिए आसान हो जानी चाहिए । इसमें दांव पर बहुत कुछ लगा है कि क्योंकि
सरकार को विनिवेश की लंबी प्रक्रिया चलानी है ।
एयरलाइन को मुनाफे में न चला पाने में सरकार की विफलता का मुख्य कारण इन परिसंपत्तियों का बेहतर ढंग से
उपयोग न कर पाना है । सभी मुनाफे वाली एयरलाइंस ये सुनिश्चित करती हैं कि उनके एयरक्राफ्ट ज्यादा समय
तक हवा में रहें. जमीन पर रहने से इस संपत्ति को नुकसान पहुंचता है । इस कारण से लौटने में कम समय और
कई रास्तों पर रात-दिन एक ही एयरक्राफ्ट के इस्तेमाल से मुनाफा ज्यादा होता है ।इंडिगो की तुलना में एयर
इंडिया के एयरक्राफ्ट एक तिहाई समय हवा में गुजारते हैं ।इंडियो इस मामले में मानक है । इसी प्रकार, प्रमुख
निजी एयरलाइंस नियामकों द्वारा तय की गई सीमा का भरपूर उपयोग करती है और अपनी फ्लाइट और केबिन क्रू
को उड़ान भरने के लिए तैनात करती हैं । एयर इंडिया का मैनपावर अधिक महंगा है और उनके काम के घंटे कम
हैं । सबसे जरूरी बात, एयर इंडिया अपनी बेशकीमती संपत्तियों को ढंग से उपयोग नहीं करता: जैसे द्विपक्षीय
उड़ान के अधिकार (इंटरनेशनल), उतरने का अधिकार और देश-विदेश के प्रमुख एयरपोर्ट पर स्लॉट का ठीक से
इस्तेमाल न करना ।
घाटे में चल रही एयर इंडिया का निजीकरण सरकार के लिए बेहद जरूरी है और ये राष्ट्रीय एयरलाइन और इससे
जुड़े लोगों को जीवित रखने की उम्मीद है । इसका सीधा मकसद राष्ट्रीय संपत्ति को बचाना है । अगर ये खरीदी
सफल होती है तो यह अन्य सरकारी स्वामित्व वाली संपत्तियों की प्रोडक्टिविटी को खोलने का रास्ता बन सकता है
।तब यह मोदी सरकार की वास्तविक आर्थिक विरासत को परिभाषित कर सकता है ।
एयर इंडिया को 60 हजार करोड़ का कर्ज चुकाने के लिए सालाना 5 हजार करोड़ खर्च करने पड़ रहे हैं, ये आंकड़ा
कोरोना संकट से पहले का है। एयर इंडिया को वित्त्य वर्ष 2018-19 में 8400 करोड़ का मोटा घाटा हुआ, इतने में
तो नई एयर लाइन्स शुरू की जा सकती थी। एयर इंडिया की बर्बादी के लिए कुप्रबंधन के साथ-साथ भ्रष्टाचार भी
बड़ा कारण है, साथ ही विमानन क्षेत्र में लगातार बढ़ती प्रतिस्पर्धा भी बड़ा कारण है। और एक कारन कि लेट
लतीफी की वजह से यात्री एयर इंडिया से जाने से बचते हैं। एयर इंडिया के विमानों ने उन रूटों पर उड़ानें जारी
रखीं, जिस पर प्राइवेट कम्पनियों ने सेवा देने से इंकार कर दिया, जबकि लाभों वाले रूटों को बिना वजह दूसरी
एयर लाइनों को दे दिया गया। 2005 में 111 विमानों की खरीद का फैसला एयर इंडिया के आर्थिक संकट की
सबसे बड़ी वजह थी। इस सौदे पर 70 हजार करोड़ खर्च हुए थे। इस सौदे से पहले विचार ही नहीं किया गया कि
ये कम्पनी के लिए यह व्यावहारिक होगा या नहीं। इस सौदे पर खूब राजनीति भी हुई थी। एयर इंडिया की आप्रेटिंग
कास्ट बढ़ती ही चली गई और विदेशी मुद्रा में घाटे के चलते भारी नुक्सान हुआ।
इतिहास पर नजर डालें तो राजनीतिक दखलंदाजी और कुप्रबंधन की वजह से भारत की फ्लैगशिप कम्पनी देखते ही
देखते कंगाल हो गई। बर्बादी की शुरूआत तो 2007 में ही हो गई थी जब एयर इंडिया में इंडियन एयरलाइन्स का
विलय किया गया। उस समय दोनों कम्पनियों के विलय के वक्त संयुक्त घाटा 771 करोड़ था, इस घाटे को लाभ
में बदला जा सकता था लेकिन इसकी बर्बादी की दास्तान लिखी जाती रही। बची-कुची कसर कोरोना महामारी ने
पूरी कर दी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का दृष्टिकोण यह है कि घाटे वाले उपक्रमों को करदाताओं के पैसे के जरिये
चलाने से संसाधन बेकार होते हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में करदाताओं का पैसा बर्बाद होता है। इन संसाधनों
का इस्तेमाल कल्याण योजनाओं पर किया जा सकता है।
सरकार को उम्मीद है कि कम्पनी के निजीकरण की प्रक्रिया जून में पूरी हो जाएगी और अगले 6 माह में एयर
इंडिया का प्रबंधन सौंप दिया जाएगा। अब दो ही बड़े खिलाड़ी मैदान में हैं एक टाटा ग्रुप और दूसरा स्पाइसजेट।
अन्य कम्पनियों के आवेदन पहले ही खारिज हो चुके हैं। वैसे पलड़ा टाटा ग्रुप का भारी लगता है। टाटा का एयर
इंडिया से भावनात्मक संबंध भी है। 1932 में एयर इंडिया का जन्म हुअ था तो उस समय उद्योगपति जेआरडी

टाटा ने इसकी स्थापना की थी, तब इसका नाम टाटा एयर लाइन्स हुआ करता था। 29 जुलाई, 1946 को टाटा
एयरलाइन्स पब्लिक लिमिटेड कम्पनी बन गई और उसका नाम बदल कर एयर इंडिया रखा गया था।


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