अर्पित गुप्ता
मैं अनंत एकांत में खुद अकेला खेल रहा हूँ। कोई मेरे साथ खेलने वाला नहीं है। शब्दों के कुएँ से शब्द सींच
रहा हूँ। इन्हीं शब्दों से कविता की बाल्टी भर रहा हूँ। हर कोई उखड़ा-उखड़ा हुआ है। मेरे अहं ने मुझे अकेला
बना दिया है। कविता की बाल्टी में शब्दों का पानी मेरी प्यास नहीं बुझा पा रहा है। जहाँ देखूँ वहाँ मैं ही मैं
दिखाई देता हूँ। जो भी सुनूँ मेरी मैं…मैं ही सुनाई देती है। कभी लगता है कि बकरियों की मैं-मैं मुझसे ही
उपजी है।
जीवन चलता ही रहता है। पैरों पर न सही घुटनों के बल ही सही। जीने के लिए जीवन और जीवन के लिए
जीना दोनों की समझ मेरी समझ से परे है। चूंकि मेरी समझ के दरवाजे बंद रहते हैं, इसलिए अच्छे-बुरे की
हवा भीतर आने की हिम्मत नहीं कर पाती। ऐसा नहीं है कि अच्छे-बुरे की हवा दरवाजा खटखटाती नहीं है,
खटखटाती तो जरूर है लेकिन वह मेरी किटकिटाहट और चिल्लाहट को सुन दबे पैर लौट जाती है। मेरी परछाई
जीवन की ताजा खबर देती रहती है। यूरोप में बर्फीली बारिश, भारत में लुढ़कती जिंदगियों की सुगबुगाहट,
लेबनान में विद्रोही चूहों की महामारी, लिबिया में गोलियों की बरसात और कैरो में उपद्रवी अग्निभीषणकांड की
उथल-पुथल में कराहते जीवन का क्रंदन। ताजा खबर के बहाने बासी कब्र की मिट्टी में छिपी अहं की गरमाहट
मेरे पास क्यों नहीं फटकती?
विकास का भूत असमय मौतों का भविष्य देखकर थर-थर कांप रहा है। पखेरुओं से लुप्त होती जमीन गरीब,
बेरोजगारों के लिए प्राण पखेरुओं का गढ़ बनता जा रहा है। ऐसे शून्य संगीत में पल-पल का जीवन कभी पठार
तो कभी शिखर सा प्रतीत हो रहा है। शरीर और आत्मा के बीच समय का अंग जीर्ण होता जा रहा है। मानो
जीवन की उंगली थामने मौत अपना हाथ आगे बढ़ा रहा हो। न जाने यह एकांत कब मिटेगा? मेरा अहं कब
समाप्त होगा? क्या समय के पेड़ पर लमहों के पत्ते झड़ने से पहले मेरी जीवन की कविता बाल्टी सुंदर शब्दों
के पानी से भर पाएगी? मैं अनुभव के पत्थर पर जीवन का कपड़ा धोने के प्रयास में जीर्ण होता जा रहा हूँ।
भगवान से मेरी अब यही प्रार्थना है कि ताजा खबरों के बीच मैं कहीं बासी कब्र बनकर अपने अहं का शिकार न
बन जाऊँ। मैं अभी से रोने का अभ्यास कर रहा हूँ। जानता हूँ कि जाने के बाद रोने वालों की आँखों में पानी
नहीं बचेगा। शर्म और प्रेम का पानी धरती के पानी से पहले खत्म हो जाएगा। शायद जीवन का सार जीने के
लिए मरने में है।