नैतिकता जाए भाड़ में

asiakhabar.com | March 2, 2021 | 4:49 pm IST

संयोग गुप्ता

क्यों मास्टर जी…पाठ्यक्रम कब तक पूरा कर रहे हैं? पीछे मुड़कर देखा तो प्रधानाध्यापक जी तमतमाए चेहरे
से मुझसे सवाल कर रहे थे। उन्हें गुस्से में देख मैं घबराया। इससे पहले कि वे कोई दूसरा सवाल दागे मैं खुद
को बचाना चाहता था। मैंने सकपकाते हुए कहा – केवल एक पाठ बचा है। आजकल में खत्म हो जाएगा। मेरा
उत्तर समाप्त हुआ था कि नहीं वे तुरंत बोल उठे – फिर अब क्या कर रहे हैं? मैंने गर्वीले स्वर में कहा –
समाज के नैतिक मूल्य पढ़ा रहा हूँ सर! इतना सुनना भर था कि प्रधानाध्यापक चिड़चिड़े हो उठे। छात्रों की ओर
देखते हुए कहा – तुम्हें यह सब किसने पढ़ाने के लिए कहा था? पाठ्यक्रम में ऐसा कोई पाठ है ही नहीं। ऊपर
से परीक्षा में ऐसा कोई सवाल भी नहीं पूछा जाता। बेवजह क्यों बेफिजूल की चीजों में समय की बर्बादी कर रहे
हैं?
देश में प्रधानाध्यापकों की हालत बड़ी खराब है। उन्हें शिक्षा को छोड़ सभी मामले जरूरी लगते हैं। लगे भी क्यों
न? उन्हें शौचालय का रखरखाव करना है। मध्याह्न भोजन में दाल-चावल का हिसाब किताब रखना है।
गणावेश बाँटने हैं। मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक और प्रधानाध्यापक की दौड़ शिक्षा कार्यालय तक, कभी रुकी है
जो अब रुकेगी। फिर मक्खी-मच्छर भी पाठशाला में आ जाए तो सलामी ठोंकने को तैयार रहते हैं। जिनको
खुजाने की फुर्सत न हो उनसे शिक्षा की खोज रुई के ढेर में सुई ढूँढ़ने के समान लगता है। यही कारण हैं कि
देशभर के अमूमन सभी प्रधानाध्यापक खड़ूस किस्म के होते हैं। चेहरे पर गंभीरता स्टाफ को डराने के लिए,
आँखों पर चश्मा अकाउंट के आँकड़ों में मोहन-जोदाडों की सभ्यता खोजने के लिए लगा रहता है। चूँकि हमारे
प्रधानाध्यापक भी इसी धरती के सबसे परेशान जीवियों में से एक हैं, इसलिए उनके गुस्से को भांपते हुए और
छात्रों के सामने अपनी इज्जत तार-तार होने से बचाने के लिए उनके पास चला गया।
कहते हैं जब बकरा खुद-ब-खुद चलता हुआ कसाई के पास चला आए तो दोष कसाई का नहीं बकरे का होता है।
प्रधानाध्यापक ने चिढ़ते हुए कहा – क्यों मास्टर जी सठिया गए हो? आज के समय में माता-पिता बच्चों के
अंकों, ग्रेड़ों के बारे में पूछते हैं न कि नैतिक मूल्यों के बारे में। अच्छा यह तो बताइए कि कभी प्रोग्रेस कार्ड में
नैतिक मूल्य वाला कॉलम देखा है? आज के जमाने में नैतिक मूल्य हाथी के दाँत की तरह होते हैं। अब तो
यह सुनने-बोलने में भी खराब लगने लगे हैं। चिढ़ मचती है। यह सब छोड़िए। पहले पाठ्यक्रम पूरा कीजिए। इन
मंदबुद्धि बच्चों को परीक्षोपयोगी दो-चार महत्वपूर्ण प्रश्न देकर उत्तर कंठस्थ करवाइए। नैतिक मूल्य नहीं
सिखाने पर कोई आपको सूली पर चढ़ाने वाला नहीं है।
मैं उनकी बातें किसी नौसिखिए की तरह बड़े ध्यान से सुन रहा था। मेरे चेहरे पर तरह-तरह की भंगिमाएँ बन
रही थीं। यह देख प्रधानाध्यापक ने कहा – आज के जमाने में मास्टर की नौकरी तलवार पर चलने के समान
है। हम बच्चों को केवल पढ़ा सकते हैं। ज्ञान देने का समय अब किसके पास बचा है। ज्ञान देने के लिए
अनुशासन चाहिए। अनुशासन के लिए कभी-कभी दंड देना पड़ता है। क्या आज के समय में बच्चों को दंडित
किया जा सकता है? दंड देना तो दूर कुछ बोल-वोल दो पुलिस पकड़कर ले जाती है। ऊपर से नौकरी से
बर्खास्तगी अलग। इसलिए वेतन पाना है तो बच्चों को नैतिक मूल्य नहीं रट्टा मारने की शिक्षा दीजिए। कम से
कम पास होने के लिए कुछ अंक तो मिल जायेंगे। इतना कहते हुए प्रधानाध्यापक ने शिक्षा की नई इबारत गढ़ी
और अपने रास्ते चलते बने।


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