जब एंकर पार्टीजन हो जाए और किसी दलीय प्रवक्ता की जगह स्वयं बोलने लगे तो ऐसे एंकरों को क्या कहेंगे? हम उनको ‘‘पार्टीजन एंकर’ कहेंगे। पिछले दिनों के दो खबर प्रसंग देखें :एक गैर कानूनी कट्टीखाने की पड़ताल करने गए एक गोसेवक को कुछ लोगों ने पीट दिया। यह एक एंकर के लिए बड़ी खबर रही। अन्य किसी चैनल ने इसे उतना न उठाया, जितना उसने उठाया। यही नहीं, वह र्चचा भी कराने बैठ गया। पेनलिस्ट से पूछने लगा कि आप लोग पहलू खान के लिए स्टैंडअप करते हो, इसके लिए क्यों नहीं? पत्रकार बोली कि कोई नहीं ‘‘स्टैंडअप’ करता है, तो आप ही करने लगिए। पत्रकार ने गलत कहा। एंकर तो पहले से ही ‘‘स्टैंडअप’ कर रहा था। किसी गोसवेक की तरह ही सेक्युलर ब्रिगेड से पूछ रहा था कि इस गोसेवक के लिए क्यों नहीं बोलते हो? एंकर की बात में कुछ दम माना जा सकता है। जब पहलू खान के लिए बोल सकते हो तो इस बेचारे गोसेवक ने क्या बिगाड़ा है? ऐसा सवाल किसी गोसेवक या उसके प्रवक्ता ने किया होता तो ठीक लगता। लेकिन यही सवाल कोई एंकर करे तो क्या पत्रकारिता की दृष्टि से उचित कहा जा सकता है? एकदम नहीं। एंकर का काम होता है कि किसी घटना, खबर पर वह जब विचार कराए तो पक्ष-विपक्ष और किसी तीसरे पक्ष, चौथे पक्ष का भी खयाल रखे और दर्शक को सब बातें सुनवा कर सही-गलत बात को चुनने दे। एंकर का काम यही है कि खबर का ‘‘प्रस्तुतकर्ता’ बने। अपनी ओपिनियन देने वाला न बने और किसी का पक्षधर या वकील तो कतई नहीं। इसी तरह, कुछ दिन पहले पटाखे पर लगे बैन पर हुए विवाद में कई एंकर एकदम एकपक्षीय लाइन लेते नजर आए। चैनलों पर पटाखे भी हिंदू अस्मिता के चिह्न हो गए। देखते-देखते दिवाली सांप्रदायिक रंग ले गई। जो दिवाली सबका त्योहार मानी जाती थी, कई र्चचाओं में ‘‘हिंदू त्योहार’ का पर्याय बन गई। यही हाल ताजमहल का हुआ। एक नेता ने ताजमहल को बदनुमा दाग कहा कि ताजमहल भी कम्यूनल चिह्न हो गया,‘‘मुसलमान’ हो गया। कई चैनलों ने उसे उसी तरह से देखा जिस तरह से ताज पर हमला करने वाले नेता प्रवक्ताओं ने दिखाया। ताजमहल पर हमले का जवाब ढूंढ़ने के लिए चैनल सीधे ओवैसी के पास पूछने गए; मानो ताजमहल के वही अंतिम व्याख्याता हों, कि ताजमहल को बदनुमा दाग बताया जा रहा है, इस पर आपको क्या कहना है। ओवैसी बोले कि मोदी जी लाल किले पर झंडा क्यों फहराते हैं? उसके बाद आजम खान ने संसद भवन और राष्ट्रपति भवन को गुलामी का प्रतीक कह कर इस अवांछित विवाद को पूरी तरह विभाजनकारी बना दिया। माना कि एक विभाजनकारी राजनीति करने वाला दूसरे विभाजनकारी राजनेता का पूरक होता है, और अवसर मिलते ही वे आपस में कंपटीशन करने लगते हैं। और यह बात एंकर भी जानते हैं, संपादक भी जानते हैं। लेकिन अफसोस कि संपादक-एंकर और र्चचा में लाए जाने वाले पेनलिस्टों के गेस्ट कोर्डिनेटर भी उसी तरह सोचते लगते हैं, जिस तरह विवादी बयान देने वाले विभाजनकारी राजनीति करने वाले सोचते हैं।अगर किसी हिंदुत्ववादी ने ताज को बदनुमा दाग बताया तो एंकर या तो ओवैसी बुलवाए जाएंगे या पठान बुलवाए जाएंगे या किसी मुल्ला जी को बुलवाया जाएगा और और सब एक दूसरे को कम्यूनल कहते दिखेंगे और इस तरह बहस सीधे हिंदू मुसलमानी बहस में तबदील कर दी जाएगी। ऐसा आए दिन किया जाता है। ऐसा नहीं है कि चैनलों के एंकर संपादक रिपोर्टर खबर की नजाकत नहीं जानते, वे अच्छी तरह जानते हैं। उनको सब मालूम रहता है। वे चाहें तो इस विभाजनी राजनीति के बरक्स एक बीच की जगह भी बना सकते हैं। लेकिन ‘‘बीच की जगह’ बनाने वालों को प्राय: नहीं बुलाया जाता। हर तरह के तत्ववादी चैनलों में ज्यादा जगह और समय पाते हैं।कुछ लोग समझते हैं कि यह सब टीआरपी की खातिर किया जाता हैं। लेकिन ध्यान से देखें तो ऐसा करना टीआरपी के लिए भी ठीक नहीं क्योंकि विभाजनकारी एंगल से आपके दर्शक विभाजित होते हैं और विभक्त समाज ‘‘अच्छा उपभोक्ता समाज’ नहीं बनता, जिसके लिए आप टीआरपी जुटाते हैं।इन दिनों हमारे कई चैनलों के एंकर रिपोर्टर तत्ववादी खबर पर ऐसा ही रवैया अपनाते हैं, और विभाजनकारी राजनीति के जानबूझकर या अनजाने माघ्यम बनते रहते हैं। अक्सर विभाजन विभाजन खेलते दिखते हैं। अफसोस कि मीडिया के अध्येता इस खतरनाक ट्रेंड की उपेक्षा करते रहते हैं।