ज्ञान हमारे अनुभव और जीवन में परिवर्तन का माध्यम बनता है। आजकल की सेक्युलर आधुनिकता के दौर में यह निश्चय ही कुछ ज्यादा ही महत्त्वपूर्ण हो चली है क्योंकि इस नजरिए में आदमी का विास कि वह ‘‘अच्छे भविष्य को रच सकता है’ बढ़ा है, तथा मजबूत हुआ है। ऐसे गहरे आत्म-विास के जमाने में ‘‘परिवर्तन’, ‘‘आधुनिकीकरण’, ‘‘विकास’ तथा ‘‘प्रगति’ जैसी कालवाची अभिव्यक्तियों का प्रयोग तेजी से बढ़ रहा है तो वह अपेक्षित और स्वाभाविक ही कहा जाएगा। आज ज्ञान नये-पुराने से ज्यादा अज्ञात भविष्य की गवेषणा से जुड़ रहा है। विज्ञान का उद्देश्य पूर्वकथन (प्रेडिक्शन) करना है, वह भविष्य के गर्भ में जो छिपा है, उसे सुनिश्चित करने का अभ्यास और दावा करता है। अच्छे दिनों को तलाशती आज की राजनीति का इस भविष्योन्मुखी (वैज्ञानिक) कालबोध से जुड़ाव अभूतपूर्व हुआ जा रहा है। राजनीति, काल और ज्ञान का यह रिश्ता अट्ठारहवीं से बीसवीं सदी के बीच पनपी आधुनिकता की भेंट है। याद रहे कि अंग्रेजी साम्राज्य के उपनिवेश बनने के साथ भारत में ऐसी ज्ञान-मीमांसा और शासन-व्यवस्था स्थापित हुई जिसमें (गुलाम) भारतीय अपने काल-बोध के कारण ‘‘पिछड़े’ की श्रेणी में शुमार हो गए। इस हिसाब से सोच का जो खांचा बना उसमें भारत को ‘‘परंपरावादी’ यानी पिछड़ा और पश्चिम को ‘‘आधुनिक’ अर्थात अगड़ा घोषित कर दिया गया। औपनिवेशिक पृष्ठभूमि में विकसित ज्ञान की राह चलने में परंपरा से निजात पाना और उसकी जगह आधुनिकता को स्थापित करना हमारे लिए जरूरी मुहिम हो गई। उपनिवेश और उत्तर उपनिवेश का द्वंद्व भी खड़ा हुआ। परंपरा और आधुनिकता को एक साथ साधने की इच्छा भी व्यक्त की गई। गौर किया जाना चाहिए कि आधुनिक भारत में राज शक्ति की जो अवधारणा अपनाई गई वह असंदिग्ध रूप से आधुनिकता की पक्षधर थी। नागरिकता, तकनीक, विज्ञान और नियोजन आदि के भरोसे पिछड़े को आगे बढ़ाने की योजना बनी। प्रगति-उन्मुख राजनीति का वादा है कि जो आदिम और पिछड़े थे वे (दौड़ कर) जो आधुनिक हैं, उनको पकड़ लेंगे, पर दोनों के बीच बड़े अंतराल होने के कारण ऐसा हो न सका।आधुनिकता का वादा पूरा होने से रहा और पिछड़े उभर न सके। विकास के प्रजातंत्र-विरोधी रूप की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। अस्सी के दशक में राजनीति की आधुनिकतावादी दृष्टि की आलोचना भी शुरू हुई।अनुभव हुआ कि ‘‘आधुनिक’ के बरक्स परंपरा नष्ट नहीं होती है।हां, उसमें बदलाव आता है तथा वह आधुनिक होती है। आधुनिकता पर प्रश्न उठने के साथ परंपरा का प्रश्न फिर खुला। याद रहे कि ‘‘आधुनिकता’ को अक्सर यूरोपीय मूल की अवधारणा माना जाता रहा है,जो बाद में विश्व के दूसरे क्षेत्रों में उपनिवेशीकरण के माध्यम से पहुंच कर कारगर हुई। अब अनुभव किया जा रहा है कि आधुनिक ज्ञान की अनेक शाखाएं और विषय जैसे चिकित्सा, इतिहास, जनांकिकी, चिकित्सा और समाजवैज्ञानिक कोटियां जैसे-नस्ल, ट्राइब, जाति और संस्कृति यूरोप में नहीं जन्मी थीं वरन औपनिवेशिक शासन का तकाजा था कि शासन करने के लिए इन्हें शुरू किया जाए। यूरोप की तर्ज पर ही सारी दुनिया अपनी उन्नति का मार्ग अपनाए यह अनिवार्यता नहीं थोपी जा सकती। पश्चिम में ही आधुनिकता के कई स्थानीय संस्करण मिलते हैं। वैसे इंग्लैंड में पूंजी की पुष्टि, वैयक्तिकता, निजीकरण आदि हो जाने के बाद लोकतंत्र आया जब कि भारत में इसके उलट हुआ। यहां लोकतंत्र पहले आया और बाकी सब उसके बाद हुआ।आधुनिकता विलक्षण विचार-कोटि है। वह सोच, उसका निजी बोध और समय तीनों से जुड़ती है। काल की आधुनिकतावादी विचारधारा को अब समकालीनता ने चुनौती दी है। आतंक, आणविक विनाश, आतंक, जलवायु-परिवर्तन, आनुवंशिक नवाचार की घटनाएं क्रमिक प्रगति और विकास के किसी एक आधुनिकतावादी आख्यान को खंडित करती दिख रही हैं। लगने लगा है कि विज्ञान सभी समस्याओं का तकनीकी समाधान नहीं दे पा रहा है। वस्तुत: कोई एक तरह की विकल्पहीन आधुनिकता नहीं है, और न हो सकती है। सभी समाजों ने अपने ढंग से उसकी खोज की। उसे एक दिशा में आगे बढ़ते काल-इतिहास के आयाम पर नहीं, बल्कि अनेक आयामों में देखने-समझने की जरूरत है, ऐसे ही कोई एक शुद्ध आधुनिकता भी नहीं है, जो मानक हो और सब के द्वारा अपनाई जाए। सबको अपनी-अपनी आधुनिकता तलाशनी होगी।