अब की बसंती राग नहीं

asiakhabar.com | February 18, 2021 | 5:34 pm IST

विनय गुप्ता

अबकी वसंत बौराया हुआ है। सरसों तो फूल-फूलकर पीले हुए जा रहे हैं। फिर भी खेतों में मातमभरी उदासी
छायी हुई है। उनका मालिक किसान वसंत का स्वागत करने के बजाय दिल्ली की सीमाओं पर धरने पर बैठा
है। उसे नहीं पता कि दिल्ली में बहरे शासन करते हैं और अंधे-गूँगे तालियाँ बजाते हैं। जहां अकबर ने कौओं की
गिनती करने में बीरबल को लगा दिया वहाँ हम ऐसे इंसान को ढूँढ़ने की फिराक में हैं जिसके भीतर हृदय
बसता है और औरों के लिए धड़कता है। किसान भूल गए हैं कि औरों के लिए धड़कने वाले दिल सिर्फ किताबों
में मिलते हैं। असलियत में गीदड़, सियार, उल्लुओं और कौओं की सरकार हैं। यहाँ सिर्फ शोर चलता है किसी
का जोर नहीं। चौबीसों घंटे भाषणों का शोर, झूठे एजेंडों का शोर, ताली-थाली बजाने का शोर, कुत्तों की तरह
भौंकने का शोर, कौओं की काँव-काँव का शोर, कोई गीदड़ जाए तो शोर ,कोई गीदड़ पैदा हो तो शोर, जमीन से
आसमान तक शोर ही शोर है। अगर कुछ नहीं है तो वह इंसानियत है। देश को अन्न खिलाने वाले पर लाठियों
का जोर है। हाँ-हाँ चारों ओर सिर्फ शोर ही शोर है।
जनता जानती है कि पेट्रोल, डीजल, गैस की कीमतें बढ़ गयी हैं। किसान जान गए हैं कि किसान बिल वापस
होने वाले नहीं हैं लेकिन वसंत नहीं जानता कि उसे अमलतास को ओढ़े रखना है या उतार फेंकना है। किसान
अपनी खाल बचाकर आएगा तब ही अमलतास की चादर ओढ़ पाएगा न! अबकी टेसू सारे दिल्ली में चलने वाली
लाठियों से थरथराकर झड़ रहे हैं। जो अमिया बनने की कगार पर हैं वे अपने भविष्य की कल्पना मात्र से डाल
से जौहर करने को तैयार हैं। न जाने इस बार महुआ को क्या हुआ कि सुगंध फैलाने की जगह सिंधु सीमा पर
बैठे किसानों के मैले-कुचले कपड़ों, पीड़ा के मारे निकल रही कराह से बस्सा रहे हैं। महुआ वसंती रंग की जगह
किसानों पर बरसी लाठियों से बहने वाले खून से सना-सना लग रहा है। इस बार कलियों ने सौगंध खायी हैं
जब तक किसानी चेहरे नहीं चहकते तब तक वे फूल नहीं बनेंगी। काश कोई कलियों को बता पाता कि न नौ
मन तेल होगा न राधा नाचेगी। न सरकार कानून वापिस लेगी न किसान चहकेंगे। अब भला कलियाँ खाक
चहकेंगी।
इस बार न जाने तितलियों की क्या मति मारी गयी है कि फूल न मिलने से उड़-उड़कर दिल्ली की सीमाओं पर
जा रही हैं। उन बेवकूफों को कौन बताए कि दिल्ली में फूल नहीं धूल मिलती है। इसीलिए तो इतने दिनों से
अन्नदाता धूल फांक रहे हैं। ठिठुरती सर्दी जाते-जाते किसानों को इतना कह गयी है कि मैं तो बड़ी दयालु थी
जो तुम्हें जान बख्श गयी, यदि सरकार होती तो कब की लील गयी होती। जब-जब वसंत ने किसानों को देखा
तब-तब उनके हाथों में हल का हंसिया का हमदम देखा। इस बार भी वसंत ने किसान को भूखा, सड़क पर टूटा
और भाग्य से लूटा देखा। उसे पता है वसंत की खुशहाली में किसानों की आत्महत्या, साहूकारों के कर्जे और
अनबिहाई बिटिया की पीड़ा बसती है। अन्नदाता भूखा नंगा पैदा होता है, भूखा नंगा जीता है और भूखा नंगा
मरता है। गीता वचन ‘खाली हाथ पैदा होने वाले खाली हाथ ही मरते हैं’ को शत प्रतिशत चरितार्थ करते हुए
उसमें एक और कटु सत्य जोड़ देते हैं कि पैदाईशी खाली हाथ और मरणासन्न खाली हाथ के बीच भी ये खाली
हाथ ही जीते हैं। इसीलिए तो किसान के नाम पर परेशान कहलातै हैं। न जाने क्यों इस बार हंसवाहिनी शारदा

रो रही है। न जाने क्यों उसके वीणा के तार टूटे हुए हैं। अब भला बिना किसानों के संग वसंती राग कैसे संभव
हो पाएगा। लगता है कि इस बार संसद में बसंती राग के लिए भी कोई कानून बनाया जाएगा।


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