अर्पित गुप्ता
हम पशुओं से प्यार करते हैं। हम पक्षियों से भी बेशुमार प्यार करते हैं। कई बार कोई नया पक्षी हमारी मुंडेर
या घर की छत पर आता है तो हम चहक उठते हैं। बच्चों को आवाज लगाते हैं। उन्हें उस नए प्राणी के बारे में
बताते हैं। खुश होते हैं। चुग्गा डालते हैं, उससे बात करने की कोशिश करते हैं। यहाँ तक पालने का भी मन हो
जाता है। कुछ यही व्यव्हार हम पशुओं के साथ भी करते हैं। चिड़ियाघर जाते हैं तो तरह-तरह के जानवरों को
देखते ही रह जाते हैं। दूर से ही सही उनके साथ सेल्फी लेने की कोशिश करते हैं। इतना ही नहीं कभी दूर
किसी पिकनिक या दर्शनीय स्थान जाते हैं तो बन्दरों के लिए चना-गुड़ ले जाना नहीं भूलते। बड़ा अपनापन सा
लगता है इनसे और ये अपने से लगने लग जाते हैं। कितना ध्यान रहता है हमें इस सबका। लेकिन कया कभी
सोचा है कि जिस प्रकृति के आशीर्वाद से हम सबको ता-उम्र एक-एक साँस का निःशुल्क वरदान मिला हुआ है,
जिसमें सेहतमंदी के तमाम नुस्खे छुपे हैं उसके लिए भी कुछ जरूरी है? शायद नहीं! प्रकृति के साथ ऐसी
बेईमानी क्यूँ? शायद इसका भी जवाब हमारे पास नहीं है। बस इसी उधेड़ बुन में हम प्रकृति से दूर होते चले
जा रहे हैं। दिखावा, आडंबर, अभिजात्य बनने की होड़ में प्राकृतिक सुन्दरता और उसकी जरूरतों को हर पल
नष्ट कर केवल और केवल कंक्रीट के महज 100-200 साल टिकाऊ ढ़ांचे को नए-नए तौर तरीके से बनाते
रहते हैं। इस तरह हजारों, लाखों वर्षों से माँ सदृश्य धरती के गर्भ को सूखा करने और पिता सदृश्य आसमान
का तापमान बढ़ा अपने गगनचुंबी निर्माणों को देख खुश हो लेते हैं। लेकिन इसकी कीमत धरती और आसमान
किस कदर चुका रहे हैं जरा भी चिन्तित नहीं होते। कभी ध्यान ही नहीं गया कि नदी, नाले, कुँए, बावली अब
किस्से सरीखे हो गए हैं। हो सकता है कि मौजूदा पीढ़ी ने कभी इन सबको अपने मूल स्वरूप में देखा भी न
हो।
तरक्की की अंधी दौड़ में उस प्रकृति को ही रौंदे जा रहे हैं जो कभी अपनी चीजों का उपयोग नहीं करती बस
देना ही जानती है। यह भी भूल जाते हैं कि प्रकृति पर मौजूद हर जीव, जन्तु का समान अधिकार है। लेकिन
यहाँ तो मनुष्य ही प्रकृति के अंधाधुंध दोहन में अपने अधिकार और वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहा है, अन्य जीवों
चिन्ता कौन करे? वैज्ञानिकों से लेकर दार्शनिक, चिन्तक से लेकर उपदेशक सभी ने इस पर समझाने, चेताने
की कोशिश की है। लेकिन विकास और खुद का आधिपत्य जमाने की अंधी होड़ में अगर ठेठ शब्दों में कहें
अस्मत लूटी जा रही है तो वह है उसी प्रकृति की जिसके रहम पर सबका अस्तित्व है। लेकिन बस यही तो
समझ नहीं आ रहा है। जानते हुए भी उसी के साथ क्रूरता जिसने अपनी विविधताओं भरे आहार-विहार और
जल-जीवन से पाला। उसी प्रकृति पर ही हम पिल पड़े। हर दिन अपने जेब की खनक और शोहरत के लिए उसी
पर तरह-तरह से भारी पड़ रहे हैं! ऐसी भी क्या इंसानियत जो पालने वाले की सगी न हो। हैरानी की बात यह
है कि जानकर भी हम अंजान क्यूँ बने रहते हैं? दरअसल वर्तमान संदर्भ में प्रकृति और मनुष्य का संबंध गुरू
और एक उद्दण्ड शिष्य जैसा होकर रह गया है। जिसे न गुरू की गरिमा का ध्यान है और उस शिक्षा का
जिसका खामियाजा भुगतने के लिए हम अपनी अगली पीढ़ियों के साथ खुले आम नाइंसाफी, लेकिन सच कहें
तो दोगलई कर रहे हैं।
हम प्रकृति को इतना मजबूर करते जा रहे हैं कि कहीं उसकी नेमत मजबूर हो बद्दुआ में न बदलने लगे।
इशारों को भी समझने की कोशिश नहीं की है कभी। सूखा, बाढ़, सैलाब, तूफान को समझने की कोशिश करें
तो दिखता है यही तो उसका गुस्सा है। लेकिन फिर भी हम हैं कि मानते नहीं। प्रकृति से खिलवाड़ पर पाठ्य
पुस्तकों में भी रोचक विषय के रूप में शामिल करने के प्रयास सराहनीय हैं। इन्हीं में से एक हिन्दी स्पर्श का
पाठ-15 है जिसमें मुंबई में समुद्र के गुस्से को काफी प्रभावी ढ़ंग से समझाया गया है। जिसका आशय यह है
कि समुद्र को लगातार सिमटने को मजबूर कर उसकी जमीन हथियाई जा रही थी। इस काम को बड़े बिल्डर
अंजाम दे रहे थे। मजबूर समुद्र भी सिमटता रहा। पहले उसने टाँगों को समेटा, फिर उकड़ू बैठ गया, बाद में
खड़ा हो गया। लेकिन तब भी जमीन हथियाने वाले नहीं माने तो उसे गुस्सा आ गया और लहरों बीच दौड़ते
तीन जहाजों को तीन दिशाओं में फेंक दिया। एक वर्ली में गिरा, दूसरा बांद्रा में कार्टर रोड के सामने और
तीसरा गेट-वे-ऑफ इण्डिया पर गिरा। जहाजों में सवार भी बुरी तरह से घायल हो गए थे। पाठ्यक्रमों में ऐसी
विषय वस्तु सराहनीय है। इन्हें और बढ़ाया जाना चाहिए। प्रकृति, मनुष्य और संतुलन के इतिहास और मानव
सभ्यता में योगदान की जितनी ज्यादा संभव हो जानकारी नई पीढ़ी को देनी ही होगी। शायद तभी एक नई
चेतना जागेगी। इसी से नई सोच के साथ सुधार भी हो पाएगा वरना हम प्रकृति को जैसे रौंद रहे हैं उन हालातों
में लगता है कि मानव और प्रकृति का संबंध पोषक और शोषक के बीच बड़ी खाई में बदलते जाएंगे और
परिणाम स्वरूप पालनहारी प्रकृति ही विनास की बलिहारी बन जाएगी। जरूरी है इन हालातों को और ज्यादा
बिगड़ने से पहले ही समझें, जानें और सतर्क होकर रोकें।
मनुष्य और प्रकृति के बीच के गहरे संबंध की समझ फिर से बढ़ानी होगी। जैसे महान वैज्ञानिक न्यूटन के
गुरुत्वाकर्षण का सिध्दांत भी प्रकृति की ही देन है वैसे ही मौसम का वार्षिक चक्र और बदलाव भी जीवन को
संवारने, सुधारने और व्यवस्थित करने का आधार है। प्रकृति ही सिखाती है कि कमल कीचड़ में खिलकर अपनी
पहचान बनाता है। नदी में पानी का बहाव सदा ऊँचे से नीचे की तरफ होता है। पर्वत की ऊँची चोटी पर लगाई
आवाज वापस उसी को सुनाई देती है। छोटे पेड़ों के मुकाबले बड़े को तैयार होने में ज्यादा समय लगता है।
यानी विज्ञान से लेकर सद्भाव, समभाव, क्रिया-प्रतिक्रिया जीवन के सारे यथार्थ और आदर्श भी किसी न किसी
रूप में प्रकृति की ही देन है। बावजूद इसके प्रकृति की पुकार और जरूरत को न समझना बहुत बड़ी नादानी है।
धरती की सूखती कोख, जहरीली गैसों से हाँफता आसमान, दरकते खेत, दम तोड़ती नदियाँ, नाले, कंक्रीट से
तपते आंगन, बारिश के बावजूद धरती की अबुझी प्यास, जहाँ-तहाँ बड़े-बड़े ढेरों और पहाड़ों में तब्दील होते तथा
रात-दिन जलते कचरों के ढ़ेर, सब कुछ हमारी ज्यादती का परिणाम है। केवल पाठ्य पुस्तकों में कुछ अध्याय
जोड़ देने से हमारे कर्तव्य पूरे नहीं हो जाते। साथ ही लोकतंत्र के मंदिर में बैठकर कानून बना देने से भी ज्यादा
कुछ हासिल हो रहा हो दिखता नहीं। जिस तरबतर नदी का सौंदर्य सुनहरी रेत होती थी, रेत माफियाओं से
छलनी-छलनी हो बेवक्त सूख रही है। जो हरे-भरे पहाड़ वृक्षों के सौंदर्य से इठलाते थे वह वन और पत्थर
माफियाओं के हाथों छलनी हो जीर्ण-शीर्ण से नजर आने लगे हैं। अंधाधुंध नलकूपों से कुँओं का गिरता जलस्तर,
तालाब में पानी का टोटा तो आसमान में प्रदूषण का खोटा। यह सब उसी प्रकृति के लिए शामत बन गए हैं
जिसने इन्हें इस मुकाम तक पहुँचाया। लगता नहीं कि अब हर एक व्यक्ति को इस पर सोचना ही होगा। अपने
लिए नहीं अपनी भावी पीढ़ी के लिए ही सही। शहर कस्बे की सूखती नदी का दर्द, बेवजह हरे-भरे पेड़ों के काटे
जाने का जख्म, रेत चुराने का नदी का मर्म, बारिश के पानी को वापस धरती को लौटाने की अज्ञानता के लिए
अब नहीं तो कब चेतेंगे? माना कि सारा कुछ शासन-प्रशासन का जिम्मा है। लेकिन जिम्मेदारों को भी तो
चेताने की भी जिम्मेदारी हम सबकी है। अब तो अधिकारों से लैस तमाम संस्थाएँ हैं। पर्यावरण संरक्षण एवं
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, हरित अधिकरण, जल संरक्षण संस्थान। कमिश्नरी, कलेक्टर कार्यालय, पुलिस, वन
विभाग, स्थानीय निकाय वो संस्थाएँ हैं जो देश भर में किसी न किसी नाम से सक्रिय हैं और इनकी कहीं न
कहीं इनकी यह जिम्मेदारी है कि प्रकृति की क्षति को प्रभावी ढंग से रोकें। बावजूद इसके यह संचार क्रान्ति का
युग है। हर हाथ में मोबाइल और डेटा है, तमाम सोशल प्लेटफॉर्म्स हैं जहाँ रात-दिन संदेशों का आदान प्रदान
होता है जिस पर सरकार और नियामक की नजर रहती है। बावजूद इसके शिकायतों की वेबसाइट्स हैं, ई-मेल
पते हैं। बस जरूरत है कि ऐसी गतिविधियों की जानकारी इन तक पहुँचे। हाँ, कम से भारत में अपराधियों के
हौसले और सेटिंग्स को देखते हुए एक ऐसी पोर्टल व्यवस्था की तत्काल जरूरत है जहाँ पर शिकायतों को
गोपनीय ढ़ंग से पंजीकृत कर बिना शिकायतकर्ता के नाम को उजागर किए उसे सीधे संबंधित जिम्मेदारों तक
पहुँचाया जाए ताकि सूचनादाता को किसी प्रकार का कोई खतरा या व्यक्तिगत नुकासन का अंदेशा भी न रहे
और शिकायत को सर्वेलाँस पर रखा जाए जिससे प्रकृति को क्रूर हाथों से बचाने हेतु एक-एक जरूरी आहुति दी
जा सके।