संयोग गुप्ता
देश में नित नये नियमों की बौछार हो रही है। कानून पर कानून बनाये जा रहे हैं। कहीं यातायात नियमों में
आशातीत परिवर्तन तो कहीं टैक्सों में बेताहाशा वृध्दि। दलगत राजनीति की मजबूती हेतु सत्ताधारी दलों व्दारा
खजाने को लुटाने की होड़ लगी हुआ है। चंद स्थानों को समूचे क्षेत्र का प्रतिनिधि इलाका मानकर विकास के
नाम पर घोषणाओं का अम्बार लगता जा रहा है। कोरोना काल में पहले से खाली किये जा चुके सरकारी खातों
पर नई योजनायें लादने के पीछे की गणित आम आदमी की समझ से बाहर है। विकास की वास्तविक परिभाषा
कहीं दूर जाकर अर्थविहीन होती जा रही है। उदाहरार्थ देश के सबसे पिछडा इलाके बुंदेलखण्ड को ही ले लीजिये।
उत्तर प्रदेश – मध्य प्रदेश के मध्य विभाजित इस वीरभूमि के छतरपुर जिले का किसनगढ आदिवासी इलाका
देश के अभावग्रस्थ आंकडों में सर्वोच्च है परन्तु बुंदेलखण्ड के विकास के नाम पर केवल चंद शहरों को ही
रेखांकित करके सरकारें सुविधाओं के ढेर लगाने की परिणामविहीन बातें कर रहीं है। वास्तविकता तो यह है कि
सरकारी घोषणाओं के बाद निम्न गुणवत्ता वाली उच्च लागत की इमारतें खडी हो जातीं हैं, भारी भरकम
धनराशि से उपकरणों को खरीद लिया जाता है। भव्य समारोह करके भवनों का लोकार्पण कर दिया जाता है
और बस हो गई विकास की पूर्णाहुति। इन भवनों को लम्बे समय तक अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु स्टाफ की
और उपकरणों को आपरेटरों का प्रतीक्षा रहती है। इसी इंतजार में गुणवत्ता के मानकों की धज्जियां उडाकर बनाई
गई इमारतें धराशाही हो जातीं है और उपकरण आउट डेटिड। कुल मिलाकर ईमानदार टैक्सदाताओं की मेहनत
की कमाई सरकारों के मनमाने निर्णयों पर स्वाहा हो जाती है। रेखागणित के आइने से देखें तो भवनों और
उपकरणों पर खर्ज हुई भारीभरकम धनराशि वाली सीधी रेखा को अनेक चरणों पर लगने वाले कमीशन की
वक्रीय रेखा कई बार काटती है। तभी तो निर्माण से लेकर उपकरणों की आपूर्ति पर जोर दिया जाता है न कि
उद्देश्यों की व्यवहारिक परिणति पर। निर्माण और उपकरणों से जुडी कम्पनियों को ब्लैक लिस्टिड करने और
फिर पुन: काम देने की सरकारी नीति करदाताओं की समझ से बाहर है। अभी हाल ही में मध्य प्रदेश के
मुख्यमंत्री ने सागर संभाग मुख्यालय पर बैठकर भव्य कार्यक्रम को बुंदेलखण्ड के विकास का नया आयाम
निरूपित किया। इसी तरह आयोजन करके उत्तर प्रदेश के बांदा मण्डल मुख्यालय से सरकार के उत्तरदायी ने
बुंदेलखण्ड की प्रगति का दावा किया। इन दावों में लाभ तो निश्चय ही होगा परन्तु होगा किसे। निर्माण करने
वाली कम्पनियों को या उपकरणों की सप्लाई करने वाली फर्मों को। अतीत गवाह है कि बुंदेलखण्ड पैकेज के
नाम पर सरकारों ने बडी – बडी घोषणायें करके स्वयं की पीठ थपथपाई थी। बेतहाशा भवनों का निर्माण करके
कम्पनियां ही मालामाल हुईं, क्षेत्र की जनता को क्या मिला। औद्योगिक इकाइयां लगीं होतीं, कुटीर उद्योग को
धरती से जोडा गया होता, परम्परागत धंधों को गति मिली होती, पलायन रुका होगा, गांवों में चहलपहल दिखी
होती। इस तरह के एक भी कारक सामने नहीं आये। सडकों पर बडे – बडे बोर्ड लगाये गये। बुंदेलखण्ड पैकेज
का नाम लिखा गया। काम का विभागीय मूल्यांकन चंद अधिकारियों की देखरेख में पूरा हुआ और बुंदेलखण्ड
पैकेज का कागजी लक्ष्य पूरा हो गया। देश की सरकारी नीतियां जिस दिशा में जा रहीं है उसके पानी में हवा
का बुलबुला तो उठ सकता है परन्तु वास्तविक धरातल पर ठोस परिणाम पाना कठिन नहीं बल्कि असम्भव ही
है। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।