एक लोकतांत्रिक व्यवस्था का आदर्श यह है कि तमाम नीतियों के संबंध में फैसले करने का अधिकार देश के नागरिकों के पास हो। लेकिन भारत या दुनिया के किसी भी अन्य पितृसत्तात्मक समाज वाले मुल्क में जब नीतियां बनती हैं तो उन्हें लैंगिक समानता के नजरिए से भी देखा जाना चाहिए, क्योंकि उनमें आधी आबादी महिलाओं की ही होती है। आज पूरा देश हजार और पांच सौ के नोट बदलो अभियान में लगा हुआ है। बैंक लोगों की भीड़ से भरे हुए हैं। पर उस भीड़ में जो महिलाएं खड़ी हैं वे कौन हैं, यह जानना बहुत जरूरी हैद्य दरअसल ये वे औरतें हैं, जो घर का सारा कामकाज संभालती हैं और रोजगार पूछने पर सकुचाते हुए कहती हैं कि वे कुछ नहीं करतीं। विकल्प की कमी इन महिलाओं के घरेलू श्रम को देश के जीडीपी में नहीं जोड़ा जाता। तो ये महिलाएं, जो दर्ज किए जाने लायक कुछ नहीं करतीं, अपनी आर्थिक जरूरतों के लिए परिवार के उन पुरुषों पर निर्भर रहती हैं जो घर खर्च के लिए उन्हें महीने की शुरुआत में एकमुश्त कुछ रकम देते हैं। उस राशि से वे पूरे घर का ख्याल रखती हैं और अपने शानदार आर्थिक नियोजन से बगैर कॉमर्स और एमबीए की पढ़ाई किए हुए कुछ धन बचा भी लेती हैं। जाहिर है, बचत का यह हिस्सा बैंकों में नहीं जमा होता, लेकिन यही इन महिलाओं के स्वावलंबन का आधार बनता है। बचत के इसी हिस्से के बूते शहरी मध्यवर्ग की कुछ न करने वाली महिलाएं कमेटी डालती हैं या किटी पार्टी करती हैं। इस क्रम में वे एक-दूसरे को आर्थिक रूप सहायता भी देती हैं। उल्लेखनीय है कि यही वे छोटी बचतें थीं, जिनके बल पर भारत 2008 में आई वैश्विक आर्थिक मंदी में मजबूती से खड़ा रहा। यूएनडीपी रिपोर्ट के अनुसार साल 2014 के अंत तक अस्सी प्रतिशत भारतीय महिलाओं के पास बैंक खाते नहीं थे। अगर यह मान लिया जाए कि प्रधानमंत्री जनधन योजना के अंतर्गत इनमें से कुछ ने अपने बचत खाते खोल लिए होंगे, तब भी यह आंकड़ा कुछ ज्यादा नहीं बदलेगा। इसके लिए भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थितियां जिम्मेदार हैं। हमारे यहां खर्च और बचत के बारे में फैसला लेने का सर्वाधिकार पुरुषों के ही हाथ में होता है।
महिलाएं आर्थिक रूप से उतनी आत्मनिर्भर नहीं हैं, इसलिए महीने के घर खर्च में से बचाए गए पैसे आधिकारिक रूप से बचत का हिस्सा नहीं होते। ये उस गृहिणी के पैसे होते हैं, जो कुछ नहीं करतीं। अगर वह इन पैसों को घोषित करके बैंक में जमा कर दे तो उसकी अपनी बचत पर पूरे परिवार का दावा हो जाता है। दूसरे, अगर ये महिलाएं अपने नाम से खाता खुलवा भी लें, जिसकी संभावना ग्रामीण भारत में काफी कम है, तो भी अपने पैसे खर्च करने का अधिकार उनके पास न होकर घर के किसी पुरुष के ही पास ही होगा। बचत बैंक खाते में एक स्त्री का नाम जरूर होगा, पर यह खाता उसका नहीं होगा। इसके अलावा भारत की ज्यादातर महिलाओं का सामाजिक एक्सपोजर बहुत कम है। अशिक्षा इस रास्ते की एक बड़ी बाधा है। ऐसे में एक सामान्य भारतीय महिला से यह उम्मीद नहीं की जाएगी कि वह अकेले जाकर बैंक में अपना खाता खुलवा ले। ऐसे हालात में इन महिलाओं के लिए बैंक कभी भरोसेमंद विकल्प के रूप में उभर नहीं पाए। उनके द्वारा की गई छोटी बचतें रसोई के किसी डिब्बे में, किसी कथरी के सिरहाने सिल कर इस भरोसे के साथ रखी गईं थीं कि उन्होंने भी अपने परिवार के आने वाले कल के लिए कुछ जोड़ा है। महिलाएं इस आशा के साथ बचाती हैं कि अपनी छोटी-मोटी जरूरतों के लिए उन्हें हर वक्त कभी पति, कभी बेटे तो कभी किसी और के आगे हाथ नहीं पसारना पड़ेगा। अब जब नोटबंदी की मजबूरी में ऐसी छोटी-छोटी बचतें परिवार के सामने आ रही हैं तो घरों में पहली प्रतिक्रिया यही देखी जा रही है कि इतनी बचत कैसे हो गई? फिर उस बचत पर सबका दावा हो जाता है। ये ऐसे परिवार हैं जिनकी आमदनी कम या सीमित है और आय के ज्यादा स्रोत नहीं हैं। कल को यह बचत उसकी स्वामिनी के पास बदले हुए नोटों में वापस लौटेगी, या परिवार के खर्च में शामिल हो जाएगी, इस प्रश्न का उत्तर हम भारतीय परिवार के मनोविज्ञान से जानने की कोशिश करते हैं। एक और बलिदान चूंकि स्त्री देवी है और त्याग करने का सर्वाधिकार उसके पास सुरक्षित है, तो अमूमन यही होगा कि वह अपनी बचत परिवार के नाम पर कुर्बान कर देगी। परिवार में इस पैसे से जश्न होगा, क्योंकि ऐसे परिवारों में मजे करने के मौके कम ही आते हैं।
इस तरह एक महिला परिवार के लिए बलिदान के सिलसिले को जारी रखेगी। उसका परिवार कहेगा- यह तो उसे करना ही चाहिए। पिछले लगभग तीन दशकों के दौरान समाज के दलित-पिछड़े वर्गों में भी इसी तरह छोटी-छोटी बचतों का सिलसिला जारी था। यहां भी औरतें थोड़ा-बहुत बचाकर अपने जीवन में रोशनी लाने की कोशिश कर रही थीं। उनमें से कुछ ने इसी के बूते अपना छोटा-मोटा काम भी शुरू कर दिया था। नोटबंदी ने उनके सामने अभूतपूर्व संकट खड़ा कर दिया है। एक तो अपने पैसे को सुरक्षित रखने की चुनौती है। नए नोट कैसे पाएं, यह समस्या तो है ही, यह डर भी है कि परिवार के लोग उसे बेवजह खर्च न कर डालें। फिर उनका विश्वास भी टूटा है। उनके दिमाग में यह खौफ बैठ गया है कि उनकी बचत पर सरकार की नजर रहेगी, लिहाजा उसे खर्च कर देना ही बेहतर है।