विनय गुप्ता
पंचायत चुनावों में अपनी जाति के प्रत्याशी की पराजय की वजह से नाक न कट जाए, इस अवधारणा के
कारण जातिवाद और क्षेत्रवाद का बोलबाला अधिक है। मौजूदा समय में लोग राजनीतिक दलों की विचारधारा
को दरकिनार करके अपने समुदाय के प्रत्याशियों के सिर सेहरा बांधने में मशगूल हैं। आखिर मतदाता भी बढ़ते
प्रचार-प्रसार से प्रभावित होकर गलत उम्मीदवारों का कई बार चयन कर बैठते हैं। इस महादंगल में खड़े
प्रत्याशियों की बजाय उनके आकाओं की प्रतिष्ठा भी दांव पर लगी हुई है। विधानसभा क्षेत्र में जिस राजनीतिक
दल के प्रत्याशी अधिक विजयी बनेंगे, उतनी ही साख उनके आकाओं की भी पार्टी के समक्ष बनेगी। कुल
मिलाकर कहा जाए तो आगामी विधानसभा चुनावों की रूपरेखा भी इस महादंगल के बाद बननी तय है। कहने
को यह चुनाव राजनीतिक दलों के निशान के आधार पर नहीं होते, मगर एक वार्ड सदस्य तक भी मतदाता
उसकी पार्टी देखकर ही चुनते हैं। पंचायत चुनाव भी अगर जातिवाद के आधार पर किए जाते रहेंगे तो क्या
भविष्य में कभी आरक्षण खत्म किए जाने की कामना की जा सकती है? आजादी के सात दशक बीत जाने के
बाद भी हम लोग प्रत्याशियों की योग्यता की बजाय उनकी जाति को प्राथमिकता देंगे तो समाज में कभी एकता
आएगी क्या? इसी वजह से गरीब लोग भी अपने राजनीतिक मत का उपयोग कर सकें, आरक्षण युक्त चुनावी
रोस्टर सरकार ने तैयार किया है।
इस चुनावी रोस्टर का विरोध करने वाले ही जातिवाद को बढ़ावा दिए जा रहे हैं। आरक्षण आर्थिक आधार पर
किए जाने को लेकर आए दिन लोगों में आपसी बहसबाजी को सुना जा सकता है। मगर चुनावों में जातिवाद ही
नहीं, क्षेत्रवाद के आधार पर मतदाता अपने राजनीतिक मत का उपयोग करते रहे हैं। चुनावों में अपनी नैया
पार लगाने के चक्कर में बड़े पदों पर अपना भाग्य आजमाने वाले प्रत्याशी निचले स्तर के लगभग सभी
प्रत्याशियों के साथ गोटियां फिट करके रखते हैं। राजनीति में अनाड़ी प्रत्याशी अक्सर धोखा खाकर अयोग्य
उम्मीदवार को चुन लेते हैं। अक्सर देखा जाता है कि एक बैल्ट के मतदाता क्षेत्रवाद के आधार पर बिना सोच-
समझकर अपने मत का उपयोग कर डालते हैं। बेशक अन्य बैल्ट के प्रत्याशी कितने ही ऊर्जावान और अधिक
सूझबूझ रखने वाले क्यों न हों, उन्हें नकार दिया जाता है।
पंचायत प्रधान कैसा हो, इस विषय को लेकर भी जनता में खूब आपसी संवाद होता रहा है। पंचायतों का स्वरूप
ही नहीं बदला, उनकी कार्यप्रणाली में भी खूब अंतर आ गया है। सरकारें पंचायती राज को सशक्त बनाए जाने
के लिए सदैव प्रयासरत रहती आई हैं। मगर सच्चाई यही कि पंचायत प्रतिनिधियों का फोकस केवलमात्र सरकार
से मिलने वाली फंडिंग पर ही अधिक रहता है। सामाजिक सरोकार से उनका कोई नाता नहीं है। कुछेक पंचायत
प्रधानों की मोहर उस आलू की तरह ड्राइंग बनने के लिए इस्तेमाल होती है जिसे कहीं भी बिना सोचे-समझे
दाग दिया जाता है। ऐसे भी प्रधान मौजूद हैं जो लोगों का आपसी विवाद खत्म किए जाने की बजाय उन्हें
आपस में उलझाकर अपना वोट बैंक बनाकर रखते हैं। सार्वजनिक स्थानों पर मदिरा पीने वाले, जुआ खेलने
और गैर कानूनी कार्यों में संलिप्त रहने वाले पंचायत प्रतिनिधि लोकतंत्र की सफलता के लिए खतरा हैं।
पंचायतों को जितना विकसित किया गया, उतना ही अधिक भ्रष्टाचार बढ़कर पंचायत प्रतिनिधियों को गैर-
जिम्मेदार बनाता गया। एक समय ऐसा था कि गांवों में पीपल के नीचे चौपाल लगता था। पंचायत प्रतिनिधि
जनता की समस्याएं सुनकर उनका समाधान भी निकालते थे। उस समय पंचायती राज को सशक्त बनाए जाने
के दावे भी इतने नहीं किए जाते थे, जबकि पंचायत प्रतिनिधि अपने अधिकारों का सही उपयोग करते थे। उस
समय सरपंच ही सर्वेसर्वा हुआ करता था। पंजाब राज्य में अभी भी ऐसी परंपरा है। पंचायत प्रतिनिधियों का
आदेश ही जनता के लिए कानून मात्र बन जाता था। आज जनता के चुने प्रतिनिधियों को भरी ग्राम सभा की
बैठकों में कोई गालियां निकालकर भी चलता बने, ऐसे लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो पाती है।
अधिकतर पंचायतें राजनीति का अखाड़ा बनकर कई गुटों में बंटकर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाकर पांच
वर्ष पूरे करती हैं। क्या ऐसे हालात में पंचायती राज के सशक्त होने की कभी कल्पना की जा सकती है? पूर्व
वर्षों में बिना पंचायत प्रधान को सूचित किए पुलिस किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करके नहीं ले जा सकती थी।
आज बाहरी राज्य की पुलिस तक भी किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करके चलती बने, पंचायत प्रतिनिधियों को
कोई जानकारी नहीं होती है। समाज में बढ़ता नशा पंचायतों की गैर जिम्मेदारी वाली कार्यप्रणाली का नतीजा है।
जनता को न्याय मुहैया करवाना केवलमात्र पुलिस का काम नहीं है। पंचायतों को भी पुलिस के समान अधिकार
मिले हुए हैं, मगर उनकी पालना कौन करे? पंचायत प्रतिनिधियों में मनोबल की कमी ज्यादा है। नतीजतन
गांवों में एकता, भाईचारा, सद्भाव, अपनापन खत्म होकर जंगलराज बनता जा रहा है। आज पंचायत का छोटा
सा विवाद भी पुलिस चौकी और पुलिस थानों में जाकर खत्म होता है। पंचायत प्रतिनिधियों में इतनी क्षमता
नहीं कि किसी विवाद को अपने स्तर पर निपटाया जाए। पंचायत प्रतिनिधियों का चुनाव जब जाति, क्षेत्रवाद
और अयोग्यता के आधार पर किया जाएगा तो फिर उनकी कौन सुनेगा? प्रदेश सरकार लोकतंत्र को सफल
बनाने के लिए इन चुनावों पर करोड़ों रुपए खर्च करने वाली है। मतदाताओं को अपनी सूझबूझ बरतते हुए
योग्य, ईमानदार, मेहनती, मृदुभाषी और मिलनसार पंचायत प्रतिनिधियों का चयन करना चाहिए। पंचायतों में
तभी विकास हो पाएगा।