विकास गुप्ता
हमारे किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी रूप देने की मांग कर रहे हैं। यह व्यवस्था यदि लागू रहती है
तो हमें अपनी नदियों और पर्यावरण की रक्षा में मदद मिल सकती है। मनुष्य को इस प्रकृति के साथ ही जीना
है। प्रश्न है कि प्रकृति का हम मानदंड क्या मानें? सात आईआईटी के समूह को पर्यावरण मंत्रालय ने गंगा नदी
के प्रबंधन का प्लान बनाने का काम दिया था। आईआईटी के समूह ने कहा कि यदि हमारी नदियां सही स्थिति
में हैं तो हम मान सकते हैं कि सारा पर्यावरण संतुलन में है। भूमि, वायु और पानी तीनों का संबंध नदी से
होता है। दूसरा प्रश्न उठता है कि नदी के स्वास्थ्य का मूल्यांकन कैसे करें? तो उनका कहना था कि यदि नदी
की श्रेष्ठ मछली स्वस्थ है तो हम मान सकते हैं कि नदी स्वयं स्वस्थ है। तब नदी का पानी और उसमें रहने
वाले अन्य जीव सब स्वस्थ होंगे। इस आधार पर आईआईटी के समूह ने आकलन किया कि नदी को स्वस्थ
रखने के लिए कितना पानी छोड़ा जाना चाहिए। आज नदियों पर बनाई गई बराजों से नदी का अधिकतर पानी
निकाल लिया जाता है। बराज के आगे नदी में पानी शून्य या शून्यप्राय रह जाता है। वर्तमान में गंगा पर
हरिद्वार, बिजनौर, नरोरा और कानपुर में बनी बराजों के नीचे गंगा में प्रायः शून्यप्राय पानी रह जाता है।
प्रश्न उठता है कि नदी को जीवित रखने के लिए कितना पानी छोड़ना जरूरी है? इस मात्रा को ‘पर्यावरणीय
प्रवाह’ कहा जाता है। इस संबंध में 2006 में इंटरनेशनल वॉटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट श्रीलंका, जिसमें भारत
सरकार की भी सहभागिता है, ने भारत की तमाम नदियों में पर्यावरण के लिए जरूरी प्रवाह का आकालन किया
था। उन्होंने बताया कि गंगा को ए-श्रेणी की नदी बनाने के लिए 67, बी-श्रेणी के लिए 44 और सी-श्रेणी के
लिए 29 फीसदी प्रवाह छोड़ा जाना चाहिए। जाहिर है कि जब गंगा हमारी राष्ट्रीय नदी है तो हमारा प्रयास होना
चाहिए कि उसे ए-श्रेणी की तरफ ले जाना चाहते हैं। अतः 67 फीसदी प्रवाह छोड़ना चाहिए। इसके बाद 2011
में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने निर्णय दिया कि गंगा में 50 फीसदी पानी नरोरा से छोड़ा जाना चाहिए। इस मामले
की पैरवी इस लेख के सह-लेखक वरिष्ठ अधिवक्ता अरुण कुमार गुप्ता ने की थी। इसके बाद वर्ल्ड वाइल्ड
लाइफ फंड ने 2012 में सुझाव दिया कि कानपुर से 47 फीसदी प्रवाह छोड़ा जाना चाहिए। इसके बाद 2014 में
आईआईटी के समूह ने गंगा नदी बेसिन मैनेजमेंट प्लान बनाया। उन्होंने मैदानी गंगा में जरूरी प्रवाह का
आकलन नहीं किया था, लेकिन उन्होंने ऋषिकेश में पशुलोक बराज के संबंध में कहा कि इससे 55 फीसदी
प्रवाह छोड़ा जाना चाहिए। हरिद्वार बराज पशुलोक बराज से केवल 20 किलोमीटर दूर है, इसलिए पशुलोक
बराज में जो 55 फीसदी पानी छोड़ने की बात कही गई है, उसे हम हरिद्वार के लिए भी लागू मान सकते हैं।
इसके बाद 2015 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस बेंगलोर द्वारा प्रकाशित करंट साइंस पत्रिका में विक्रम
सोनी का लेख छपा जिसमें बताया गया कि यमुना के लिए 50 से 60 फीसदी पानी उसकी जैव विविधता
कायम रखने के लिए छोड़ा जाना चाहिए। इसके बाद जल संसाधन मंत्रालय ने 2015 में ही स्वयं एक रपट
जारी की जिसमें आईआईटी के समूह की संस्तुति को दोहराया गया। इन तमाम अध्ययनों से स्पष्ट है कि
वैज्ञानिक दृष्टि से मैदानी गंगा में लगभग 50 फीसदी पर्यावरणीय प्रवाह छोड़ा जाना चाहिए। लेकिन जल
संसाधन मंत्रालय ने अक्तूबर 2018 में एक विज्ञप्ति जारी की जिसके अनुसार हरिद्वार बराज में मानसून के
समय 57 क्यूमिक (क्यूबिक मीटर प्रति सेकंड) और मानसून के अतिरिक्त समय में 36 क्यूमिक पानी छोड़ने
का आदेश जारी किया गया। बिजनौर, नरोरा और कानपूर बराजों में इससे कम पानी छोड़ने के आदेश दिए गए
हैं। यह मात्रा उपलब्ध पानी का केवल 6 फीसदी बनती है। अतः हाईकोर्ट के आदेश एवं तमाम अध्ययनों कि
50 फीसदी प्रवाह छोड़े जाने की संस्तुति के बावजूद जल संसाधन मंत्रालय ने केवल 6 फीसदी प्रवाह छोड़ने के
आदेश दिए हैं। प्रश्न है कि 50 फीसदी पानी क्यों छोड़ा जाए? यहां हमें दो मांगों के बीच रास्ता निकालना है।
एक तरफ किसानों को खेती के लिए पानी चाहिए तो दूसरी तरफ मछुआरों को अपनी जीविका चलाने के लिए
पानी चाहिए। मछलियों, कछुओं और पानी के अंदर के जलीय पौधों को जीवित रहने के लिए पानी चाहिए। ये
ही हमारे पर्यावरण को सुरक्षित रखते हैं। इसके अलावा जब नदी में पानी बहता है तो वह पूरे क्षेत्र के भूगर्भ के
पानी का पुनर्भरण करता है जिससे सिंचाई के लिए और ज्यादा पानी उपलब्ध हो जाता है। पानी ज्यादा होता है
तो वह अपने को स्वयं साफ भी कर लेता है। आपको और हमको नदी में डुबकी लगाने के लिए और उसके
सौंदर्य को निहारने के लिए भी पानी चाहिए। इसलिए यह सोचना कि केवल नहर से हम पानी निकाल करके
सिंचाई कर लेंगे, उचित नहीं है। सरकार को किसानों और अन्य जीवों के बीच में संतुलन बैठाना होगा जो कि
जल संसाधन मंत्रालय ने नहीं किया है। 2011 का हाईकोर्ट का आदेश आज भी बरकरार है, लेकिन उस आदेश
की अवहेलना करते हुए सरकार द्वारा 50 फीसदी प्रवाह नरोरा से नहीं छोड़ा जा रहा है। समय की मांग है कि
हम गंगा समेत सभी नदियों से सिंचाई के लिए पानी कम निकालें और 50 फीसदी प्रवाह छोड़ना शुरू करें। ऐसा
करने से किसानों को जो पानी कम मिलेगा, उसका उपाय है कि किसानों को पानी का आयतन के आधार पर
मूल्य अदा करने को कहा जाए जिससे कि वह पानी का उपयोग कम करें।
उन पर जो पानी के मूल्य का अतिरिक्त बोझ पड़ता है, उतना उनके फसल के दाम में वृद्धि कर दी जाए।
ऐसा करने से एक तरफ किसान को पानी का मूल्य अदा करना पड़ेगा तो दूसरी तरफ किसान को मूल्य अधिक
मिलेगा और उसकी भरपाई हो जाएगी। लेकिन तब हम आप शहरी जनता को महंगा अनाज खरीदना पड़ेगा।
इसलिए अंततः प्रश्न यह है हम सस्ते अनाज के पीछे भागेंगे अथवा प्रकृति को संरक्षित करते हुए थोड़ा महंगा
अनाज स्वीकार करेंगे और मछलियों, कछुओं, पौधों को संरक्षित करेंगे? क्या हम बहती नदी के सौंदर्य का
आनंद लेने के लिए और नदी में डुबकी लगाने का आनंद लेने के लिए दो रुपए प्रति किलो अनाज का
अतिरिक्त मूल्य देना चाहेंगे? अंततः हमें तय करना है कि हम नदी को केवल अनाज के उत्पादन का साधन
मात्र मानेंगे अथवा नदी की जो उच्च कोटि की क्षमताएं हैं जैसे उसका सौंदर्य या उसमें स्नान करने का आनंद
या मछलियों की अठखेलियां देखने का आनंद, उसके पीछे भागेंगे? हम जल संसाधन मंत्रालय से प्रार्थना कर
सकते हैं कि नदी और मनुष्य की ऊंची संभावनाओं को फलीभूत करें और केवल अनाज उत्पादन के नाम पर
कृषि में पानी की, की जा रही बर्बादी को बनाए रखने के लिए नदी को मौत के घाट न उतारें। सरकार को
चाहिए कि सिंचाई के पानी का आयतन के अनुसार मूल्य वसूल करे और तदनुसार समर्थन मूल्य में वृद्धि करे
जिससे किसान भी खुश हों और हमारी नदियां भी।