विनय गुप्ता
सर्वोच्च न्यायालय की यह कोशिश तो नाकाम हो गई कि वह कोई बीच का रास्ता निकाले। सरकार और
किसानों की मुठभेड़ टालने के लिए अदालत ने यह काम किया, जो अदालतें प्रायः नहीं करतीं। सर्वोच्च
न्यायालय का काम यह देखना है कि सरकार या संसद ने जो कानून बनाया है, वह संविधान की धाराओं का
उल्लंघन तो नहीं कर रहा है ? इस प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायाधीशों ने एक शब्द भी नहीं कहा। उन्होंने जो किया,
वह काम सरकार या संसद का है या जयप्रकाश नारायण जैसे उच्च कोटि के मध्यस्थों का है। उसका एक संकेत
अदालत ने जरुर दिया। उसने तीनों कृषि-कानूनों को फिलहाल लागू होने से रोक दिया। उसने सरकार का काम
कर दिया। सरकार भी यही करना चाहती थी लेकिन वह खुद करती तो उसकी नाक कट जाती। लेकिन अदालत
ने जो दूसरा काम किया, वह ऐसा है, जिसने उसके पहले काम पर पानी फेर दिया।
उसने किसानों से बातचीत के लिए चार विशेषज्ञों की कमेटी बना दी। यह कमेटी तो ऐसे विशेषज्ञों की है, जो
इन तीनों कानूनों का खुले-आम समर्थन करते रहे हैं। इनके नाम तय करने के पहले क्या हमारे विद्वान जजों
ने अपने दिमाग का इस्तेमाल ज़रा भी नहीं किया? क्या ये विशेषज्ञ ही इन तीनों अटपटे कानूनों के अज्ञात या
अल्पज्ञात पिता नहीं हैं? हमारे न्यायाधीशों के भोलेपन और सज्जनता पर कुर्बान जाने को मन करता है।
मंत्रियों से संवाद करने वाले किसान नेताओं को नीचे उतार कर अपने सलाहकारों से भिड़वा देना कौनसी
बुद्धिमानी है, कौनसा न्याय है, कौनसी शिष्टता है ? इस कदम का एक अर्थ यह भी निकलता है कि हमारी
सरकार के नेताओं के पास अपनी सोच का बड़ा टोटा है। इसीलिए उसने अपने मार्गदर्शकों के कंधे पर बंदूक
धरवा दी।
किसान नेताओं से संवाद करने के लिए सरकार को किसानों की सहमति से ऐसा मध्यस्थ-मंडल तुरंत बनाना
चाहिए, जिसकी निष्पक्षता और ईमानदारी पर किसी को शक न हो। यदि इस काम में देरी हुई तो उसके
परिणाम अत्यंत भयंकर भी हो सकते हैं। हमारा गणतंत्र-दिवस, गनतंत्र-दिवस में भी बदल सकता है। वह
अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में जून 1984 में हुए हादसे को दोहरा सकता है। उससे बचना बहुत जरुरी है।
किसानों ने अभी तक गांधीवादी सत्याग्रह की अद्भुत मिसाल पेश की है और अब भी वे अपनी नाराजी को काबू
में रखेंगे लेकिन सरकार से भी अविलंब पहल की अपेक्षा है।