जम्मू-कश्मीर चुनाव में न भाजपा जीती न गुपकार गठबंधन, तो आखिर जीता कौन ?

asiakhabar.com | December 29, 2020 | 11:56 am IST
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विकास गुप्ता

देश ही नहीं दुनियाभर में बहुत कम चुनाव ऐसे होते हैं जिसके परिणाम से चुनाव लड़ने वाले सभी बड़े दल गदगद नजर आते हैं। हाल ही में नवगठित केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में हुए जिला विकास परिषद के चुनाव को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। डीडीसी चुनाव के नतीजों से हर दल उत्साहित है और इसे अपनी-अपनी जीत बताने में जोर-शोर से लगा है। देश की गद्दी पर काबिज भारतीय जनता पार्टी इसलिए खुश है क्योंकि पहली बार कश्मीर घाटी में भाजपा का उम्मीदवार जीता है। वहीं अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार इसलिए खुश हैं कि उनका गुपकार गठबंधन सबसे बड़ा गठबंधन बन कर उभरा है। कांग्रेस दूसरे दलों की खुशी में ही मगन है। संक्षेप में कहा जाए तो सभी दल खुश हैं, गदगद हैं।

लेकिन क्या वाकई ऐसा है ? क्या वाकई जम्मू-कश्मीर की जनता ने सबको खुश करने के लिए ही वोट किया है ? क्या यह जीत भाजपा की जीत है ? क्या यह फारूख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती की जीत है ? क्या यह 370 खत्म करने का विरोध करने वालों की जीत है ? या क्या यह 370 खत्म करने करने के समर्थकों की जीत है ? इसका एक ही जवाब है। यह जीत न तो भाजपा की है और न ही गुपकार गठबंधन की। कांग्रेस की तो कतई ही नहीं है। तो फिर सवाल यह खड़ा हो रहा है कि आखिर यह जीत है किसकी ?

जम्मू-कश्मीर की जनता सिर्फ और सिर्फ प्रदेश की जनता की जीत

दरअसल, इस चुनाव में जीत सिर्फ एक और एक ही तबके को मिली है और वो है राज्य की जनता। जम्मू-कश्मीर की जनता। इस बार जम्मू-कश्मीर की जनता ने चुपके से एक नया इतिहास रच दिया है। चुनावी शोर-गुल और सबके अपने-अपने जीत के दावे के बीच इस इतिहास की कहीं कोई चर्चा नहीं हो रही है। जबकि इस चुनाव में जीत सिर्फ और सिर्फ जम्मू-कश्मीर की जनता को ही मिली है। कभी आजादी के नाम पर तो कभी स्वायतत्ता के नाम पर दशकों से ठगी गई जनता के लिए यह किसी ऐतिहासिक मौके से कम नहीं था। जिस राज्य की कई पीढ़ियां सिर्फ छली गई हो। जिस राज्य की वर्तमान युवा और प्रौढ़ पीढ़ी ने सपना तक देखना छोड़ दिया हो। जहां चुनाव किसी छलावे से कम न हो। जहां की सुबह भी गोली-बारूद के धमाके के साथ हुआ करती हो और रात भी इसी धमाके की आवाज के साथ। वहां बिना किसी खून-खराबे के पहले पचांयत और बाद में जिला विकास परिषद का चुनाव संपन्न हो जाना अपने आप में किसी अजूबे से कम नहीं लगता। पत्रकारिता के लंबे कॅरियर में कई बार लेखक को कश्मीर घाटी में जाने का मौका मिला है इसलिए मैं जम्मू-कश्मीर की जनता के लिए इस चुनाव के महत्व को समझ सकता हूं। यह किसी इतिहास से कम नहीं है। धारा 370 और 35 ए हटाकर संसद ने जो इतिहास रचा था, वास्तव में कश्मीरी जनता ने उससे बड़ा इतिहास रच दिया है। इस चुनाव के साथ ही जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायत प्रणाली पूरी तरह से लागू हो गई है। स्वायतत्ता की मांग करने वाले राजनीतिक दलों ने प्रदेश की जनता से अब तक यह अधिकार छीन रखा था।

तमाम शंकाओं के बीच जम्मू-कश्मीर में मतदान प्रतिशत भी इस बार 50 प्रतिशत से ज्यादा ही रहा है। अन्य राज्यों की तुलना में यह कोई बड़ा आंकड़ा नहीं लगता है लेकिन अगर इसकी तुलना कश्मीर में अतीत में हुए चुनावों से की जाए तो यह किसी चमत्कार से कम भी नहीं लगता है। याद कीजिए उस दौर को जब संसद और विधानसभा के चुनाव में 6 प्रतिशत, 8 या 10 प्रतिशत चुनाव को ही सरकार की बड़ी कामयाबी माना जाता था। उस दौर के मुकाबले में इस बार न तो बड़े दावे किए गए और न ही प्रदेश की आधी से ज्यादा आबादी को शाबाशी दी गई कि उन्होंने तमाम शंकाओं के बावजूद इस कोरोना काल में भी घर से बाहर निकल कर मतदान किया। अपना और अपने बच्चों का भविष्य बेहतर बनाने के लिए।

जम्मू-कश्मीर की जनता ने इस बार सबसे बड़ा झटका आतंकवादियों और चरमपंथियों को दिया है जिन्होंने चुनाव बहिष्कार, आतंक, हिंसा और कम मतदान प्रतिशत को अपना हथियार बना रखा था। इसी के सहारे तो वो दुनियाभर को बताया करते थे कि कश्मीरी जनता त्रस्त है। इसी से उनकी दुकानदारी चला करती थी, फंड मिला करते थे और यह उनकी ऐशो-आराम का एक बड़ा जरिया भी हुआ करता था। जम्म-कश्मीर की जनता ने इस बार मिलकर इस गुब्बारे की हवा पूरी तरह से निकाल दी है। झूठ की पोल खोल दी है।

इसलिए भले ही कोई घाटी में जीत का जश्न मनाएं या कोई जम्मू में जीत का। लेकिन जम्मू-कश्मीर के लिए, भारत के लिए, दक्षिण एशिया की शांति के लिए यह जम्मू-कश्मीर की जनता की जीत है और इसलिए इस बार बधाई तो जम्मू-कश्मीर की जनता को ही मिलनी चाहिए। प्रदेश में शांति स्थापित करने में नवनियुक्त उपराज्यपाल मनोज सिन्हा की भी बड़ी अहम भूमिका रही है। उन्होंने फिर से एक बार साबित कर दिया कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में एक नेता जितने सहज ढंग से जनता के साथ संवाद स्थापित कर सकता है, उतने सहज ढंग से कोई सैन्य या खुफिया अधिकारी नहीं। वैसे भी लोकतंत्र संवाद और चर्चा का ही तो दूसरा रूप है।


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