विनय गुप्ता
निरे आदिवासी अंचल के बच्चे ही क्यों बार-बार अकाल मौत का शिकार होते हैं? 10 माह में दूसरी बार शहडोल
संभाग में नवजात और मासूम बच्चों की सामूहिक मौतों ने समूचे देश का ध्यान एक बार फिर खींचा है। इस बार
पहले 6 और बाद में 2 और ऐसे अबोधों की आँखें बन्द हो गईं, जिन्होंने दुनिया को देखना तो दूर पूरी तरह से
खुद की आँखें भी नहीं खोली थी। इन मौतों को साधारण कतई नहीं कहा जा सकता, लेकिन असाधरण भी हैं तो
वजह को लेकर प्रशासनिक दाँव-पेंच ने इसे भूल भुलैया बनाने की नाकाम कोशिशें की हैं। कुल मिलाकर सरकारी
विभाग में समन्वय की कमीं, लंबा-चौड़ा प्रशासनिक अमला होने के बाद भी अलग-अलग जिलों, अलग जनपदों और
पंचायतों जहाँ पर सीमित संख्या में नवजात शिशुओं की देखरेख के लिए तमाम व्यवस्थाओं का ढ़िंढ़ोरा पिटता है के
बाद भी, यह सब होना अपने आप में बड़ा सवाल है। बीमार बच्चों को समय पर इलाज मिले यह देखना प्रारंभिक
रूप से गाँव के आँगनबाड़ी और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की जवाबदेही है। इन मौतों को महज किसी एक खास बीमारी
के नाम पर बस्ताबन्द कर देने से यह भविष्य में थम जाएंगी ऐसा भी नहीं लगता। सबसे बड़ी बात यह है कि
संभाग के तीनों जिलों में एकाएक और उसी दौरान मासूम नवजातों की साँसों का थम जाना किसी को भी सहजता
से स्वीकार नहीं हो रहा है।
इन मौतों के बाद प्रदेश के मुखिया की नींद टूटी जरूर और जाँच के आदेश भी हुए लेकिन कार्यवाही के नाम पर
वही ढाक के तीन पात।हकीकत यह है कि शहडोल एक साल में दूसरी बार ऐसी घटना हुई है।इसी बरस 14-15
जनवरी को हुई 6 मौतों पर काफी हो हल्ला मचा था।तब भी यही सीएम एच ओ था जिसे हटा दिया गया
था।लेकिन सत्ता की बागडोर बदलते ही वे फिर से शहडोल में काबिज हो गए और फिर से मासूम मौतों का तांडव हो
गया।।हैरानी की बात है कि यहाँ कुल 4 वेन्टीलेटर हैं उसमें भी 1 खराब 3 अपनी पूरी क्षमता से रात-दिन उपयोग
में लाए जा रहे हैं। ईश्वर न करे कि इनमें भी कोई खराबी आए वर्ना वेन्टीलेटर के नाम फिर कुछ भी बड़ा अप्रिय
हो सकता है। सरकार कहने को तो चेत गई है. लेकिन इस बार इतनी बड़ी संख्या में शहडोल में हुई मौतों के बाद
न कोई नेता आया, न ही कोई मंत्री। जबकि इसी बरस 14-15 जनवरी को कमलनाथ की सरकार सत्ता में थी और
तत्काल तबके स्वाथ्य मंत्री तुलसी सिलावट दूसरे कबीना मंत्री कमलेश्वर पटेल सहित एक और मंत्री को शहडोल
भेजा गया था। अभी हफ्ता बीत रहा है किसी ने शहडोल का रुख तक नहीं किया। सरकार की संवेदनशीलता
आदिवासी क्षेत्रों के लिये कितनी है यह अपने आप में ही बड़ा सवाल है।
राजनैतिक हल्कों में इन मौतों को लेकर जहाँ तेज सरगर्मी है वहीं प्रशासनिक अक्षमता पर भी सवाल उठ रहे
हैं।साल की शुरुआत में जब 6 नवजात शिशुओं की अचानक मौत हुई थी, तब भी मौत की वजह न्यूमोनिया ही
बताई गई थी। लेकिन एक साल में दूसरी बार महज दस महीने के अंतर में हुई दोबारा 8 मौतों की वजह भी
न्यूमोनिया बताई जा रही है।
क्या यह जांचा नहीं जाना चाहिये कि निरे आदिवासी संभाग शहडोल में ही वह भी ठेठ गंवई इलाके में बार बार
न्यूमोनिया क्यों होता है? उसमें भी अलग-अलग गाँवों में जिनका आपस में न जुड़ाव है न करीबी है तब बच्चों को
एक साथ क्यों और कैसे हो रहा है? अब वजह कुछ भी हो और मुख्यमंत्री ने भले ही भोपाल में इसको लेकर बड़ी
बैठक कर ली हो लेकिन मैदानी हकीकत और परिणाम कुछ और ही है। शहडोल में कुपोषण को लेकर भी काफी हो
हल्ला मच चुका है। मौजूदा समय में ही करीब 16 हजार बच्चे कुपोषित हैं। कहने को तो आंगनबाड़ी केन्द्रों में
पर्याप्त पोषण सामग्री और आर्थिक पैकेज मौजूद हैं लेकिन उसके बाद भी 16114 बच्चे कुपोषण की जद में है।
इनमें भी 14 हजार 308 बच्चे कुपोषित और 1806 बच्चे अति कुपोषण की श्रेणी में है। यह आंकड़ा कोई खयाली
नहीं खुद महिला बाल विकास विभाग का है। इसके अनुसार सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे बुढ़ार में है जिनकी संख्या
3409 है जबकि गंभीरों की संख्या 360 है. ब्यौहारी में कुपोषित 2490 व गंभीर कुपोषित 249, जयसिंहनगर में
3103 और गंभीर 451 हैं, पाली वन में 1750 कुपोषित और गंभीर कुपोषित 173 हैं, शहडोल नवीन में
कुपोषित 547 और गंभीर कुपोषित 47, सोहागपुर में 3009 कुपोषित और गंभीर कुपोषित 519 हैं. इसी तरह
अनूपपुर जिले में भी 5676 कुपोषित बच्चे हैं. जिनमें अनूपुपर में कुपोषित 1372 गंभीर 177, जैतहरी में
1217 गंभीर 91, कोतमा में 906, गंभीर 87, पुष्पराजगढ़ मे कुपोषित 2181 गंभीर 261 हैं वहीं उमरिया
जिले में 3500 से ज्यादा कुपोषित बच्चे हैं. जिनमें 3198 कुपोषित एवं 505 बच्चे गंभीर यानी अतिकुपोषित हैं।
इन आँकड़ों को देखने के बाद लगता है कि कहीं न कहीं न्यूमोनिया, कुपोषण का आपस में कोई न कोई कनेक्शन
तो है जो छुपाया जा रहा है. इसके अलावा एक और बड़ा सच है जिसकी चर्चा तक नहीं हो रही है वह है कोविड
का। संभाग में कोविड की स्थिति जगजाहिर है. संभाग में अब तक 5802 कोविड मरीज मिल चुके हैं. जबकि 58
लोगों की मृत्यु हो चुकी है। इसमें भी प्रभावितों और मृतकों में ठेठ ग्रामीण इलाके के लोग शामिल हैं। क्या इन
बच्चों के संक्रमण का संबंध कोविड से तो नहीं? मान भी लिया जाए कि सभी 8 बच्चों की मौत गंभीर अवस्था में
होने तथा अस्पताल पहुँचने में देरी से हुई तो अस्पताल प्रबंधन ने वहाँ इलाज क्या किया।मृत या बीमार बच्चों का
कोविड टेस्ट क्यों नहीं कराया गया? इस बात से प्रबंधन ने क्यों कोई इत्तेफाक नहीं रखा? जबकि शहडोल, उमरिया
और अनूपपुर में कोविड के आंकड़े न केवल चिन्ताजनक हैं बल्कि लगभग हर रोज निकल रहे हैं। ऐसे में अब यह
कौन गारण्टी देगा कि सारे मृतक बच्चे कोविड निगेटिव थे।क्या उनके परिजनों का भी कोविड टेस्ट कराया गया?
ठण्ड की दस्तक के साथ ही कोविड बढ़ेगा यह सभी जानते थे अतः बच्चों की मौतों की वजह तो तलाशनी होगी।
मौतों की असल वजह तक जाना होगा।
हालांकि संभाग में कुपोषण की स्थिति के बाद न्यूमोनिया से बच्चों की हुई मौतों की संख्या आनुपातिक दृष्टि से
भले कम है ऐसे में उन्हें केवल माँ के दूध व बाहरी पौष्टिक चीजों के सहारे की जरूरत होती है। अब यह भी देखना
होगा कि कुपोषित बच्चों को पालने वाली माताओं की क्या स्थिति है? इसे कौन देखेगा? निश्चित रूप से
प्रशासनिक मशीनरी का समन्वय या तो इन जिलों में बिल्कुल नहीं है या विभाग एक दूसरे पर पल्ला झाड़ रहे हैं।
कुपोषण और न्यूमोनिया के बीच जिला प्रशासन के तीन विभागों की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी है। जिसमें कलेक्टर,
जिला पंचायत और आदिवासी विकास विभाग प्रमुख हैं।
यदि विभागीय समन्वय होता तो अस्पताल प्रबंधन का अमानवीय चेहरा नहीं दिखता। परिजनों को बच्चों की मृत
देह ले जाने के लिए एम्बुलेन्स तत्काल मिलती। एम्बुलेन्स के एवज में जिला चिकित्सालय प्रमुख की झिड़की न
मिलती। उधार से रुपए इकट्ठा कर किराए के वाहन का जुगाड़ न करना पड़ता।
जाहिर है कि खुद प्रशासनिक हल्कों में तालमेल नहीं है। यह बात इससे भी समझ आती है कि भरे कोविड काल में
कुछ माह पहले जिला आदिवासी विकास विभाग के मुखिया की कलेक्टर और जिला पंचायत सीईओ की मौजूदगी में
बिना मास्क के एक स्कूल के निरीक्षण कीृ उद्दण्ड सी तस्वीरों ने सबका ध्यान खींचा था।ऐसे में बच्चों की मौत
और प्रशासनिक अक्षमता पर सवाल उठने लाजिमी हैं।