विनय गुप्ता
केंद्र सरकार द्वारा जब से नये कृषि क़ानून बनाए गए हैं तभी से देश के अधिकांश किसान संगठन इन क़ानूनों का
जमकर विरोध कर रहे हैं। 26-27-28 नवंबर को किसानों के दिल्ली कूचको रोकने की केंद्र सरकार द्वारा पूरी
कोशिश की गयी परन्तु जवानों व किसानों की इस रस्साकशी में आख़िरकार जीत किसानों की ही हुई और वे दिल्ली
में दाख़िल होने में सफल रहे। नये कृषि क़ानूनों व इसके विरुद्ध होने वाले प्रदर्शनों को लेकर सरकार व किसानों के
बीच दोनों ही ओर से सबसे अधिक इस्तेमाल जिन शब्दों का किया गया वह था झूठ और भ्रम। केंद्र सरकार
द्वारा प्रधानमंत्री स्तर से नये कृषि क़ानून पारित करते ही पूरे ज़ोर-शोर से यह कहा जाने लगा है कि इन क़ानूनों
के बनने से किसानों का कल्याण होगा, उनकी आय बढ़ेगी, बाज़ार का दायरा बढ़ेगा, दलालों से मुक्ति मिलेगी,
न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलेगा और कुल मिलाकर यह क़ानून किसानों के लिए कल्याणकारी साबित होंगे। इसी के
साथ सरकार द्वारा यह भी कहा जाने लगा कि जो लोग इस क़ानून का विरोध कर रहे हैं वे इन नए कृषि क़ानूनों
के बारे में 'झूठ' बोलकर किसानों में भ्रम फैला रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर उनकी सरकार के मंत्रियों,
मुख्य मंत्रियों व प्रमुख नेताओं द्वारा बार बार यही दोहराया जाता रहा कि झूठ बोलकर किसानों को भड़काया व
उकसाया जा रहा है। सत्ता द्वारा किसानों को भड़काने का सबसे बड़ा ज़िम्मेदार कांग्रेस को बताया गया जबकि नये
कृषि अध्यादेश के सदन में आते ही सबसे पहले इनका विरोध करने वाला भाजपा का ही अपना सहयोगी संगठन
अकाली दल था जिसकी मोदी सरकार की एकमात्र मंत्री हरसिमरत कौर ने त्याग पत्र तक दे दिया।
इस आंदोलन से जुड़ा एक और 'झूठ' जो बार बार सिर चढ़कर बोला जा रहा था वह यह कि किसानों को कोरोना
संकट के चलते दिल्ली में इकठ्ठा होने से रोका जा रहा था। जिन 'ज़िम्मेदारों' द्वारा कोरोना को लेकर किसानों को
दिल्ली प्रवेश की इजाज़त नहीं दी जा रही थी वही नेता दिल्ली में सोशल डिस्टेंसिंग पर 'प्रवचन' देकर कुछ ही घंटों
बाद ख़ुद हैदराबाद में नगर निगम के चुनाव में रोड शो करते दिखाई दिए। और इनकी पार्टी ने उस रोड शो में पार्टी
कार्यकर्ता इकट्ठा करने हेतु अपनी पूरी ताक़त झोंक दी। भाजपा द्वारा यह भी प्रचारित किया गया कि यह किसानों
का नहीं बल्कि दलालों, कमीशन एजेंट्स व आढ़तियों का आंदोलन है। भाजपा किसानों को समझाना चाह रही थी
कि वह बिचौलियों की प्रथा को समाप्त कर किसानों को उनकी फ़सल का अधिक मूल्य दिलाना चाहती है। इसपर
भी किसान नेताओं का कहना था कि किसानों व आढ़तियों का चोली दामन का साथ है। प्रत्येक आढ़ती अपने
किसानों को खाद-बीज से लेकर किसी भी निजी या घरेलू ज़रूरतों मरने जीने व शादी-विवाह तक के लिए जिस
समय और जितने भी पैसों की दरकार हो, उसे देता है। जबकि किसानों का कहना है कि निजी कंपनियों के हाथों
में फ़सल ख़रीद व्यवस्था जाने से किसान अपने आढ़तियों द्वारा मिलने वाली इन आपातकालीन सुविधाओं से
वंचित हो जाएगा।
किसान नेताओं द्वारा सरकार से यह भी पूछा जा रहा है कि जो प्रधानमंत्री किसानों की आय दो गुनी करने का
दावा करते थे उन्हें यह ज़रूर बताना चाहिए कि आख़िर किन किसान नेताओं या किन किसान संगठनों के सुझाव व
सलाह पर यह नए कृषि क़ानून बनाए गए हैं? किसान आंदोलन को कमज़ोर व बदनाम करने के लिए इसे
आतंकवादी आंदोलन बताने का भी प्रयास किया गया।किसी एक बड़बोले अतिवादी मानसिकता के एक किसान द्वारा
इंदिरा गाँधी की हत्या का महिमामंडन करने वाली विडीओ वायरल कर यह बताया जा रहा था कि यह किसान नहीं
बल्कि आतंकी हैं। यानी एक ओर सत्ता का यह प्रचार कि कांग्रेस द्वारा किसानों को झूठ बोलकर उन्हें भ्रमित किया
जा रहा है साथ ही यह भी कि आंदोलनकारी किसान नहीं बल्कि इंदिरा के हत्यारे का विचार रखने वाले ख़ालिस्तान
समर्थक आतंकी हैं? इन तर्कों में सच तो कुछ भी नज़र नहीं आता हाँ 'झूठ' और 'महा झूठ' के मध्य एक बड़ा
विरोधाभास ज़रूर नज़र आता है। सरकार इस तरह के सत्ता विरोधी कई आंदोलनों को राष्ट्र विरोधी व इसमें शामिल
लोगों को देश विरोधी बताती रही है। गोया यदि सत्ता या उसके बनाए गए पक्षपात पूर्ण व जन विरोधी क़ानूनों से
कोई अपनी असहमति जताता है तो उसपर देश विरोधी, आतंकी, या विदेशी शक्तियों से सहायता प्राप्त आदि किसी
भी तरह का 'लेबल' चिपकाया जा सकता है।
सरकार द्वारा यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि यह आंदोलन केवल पंजाब के किसानों का आंदोलन है जो राज्य
की कांग्रेस सरकार द्वारा प्रायोजित है। सवाल यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों को कौन भड़का रहा है?
हरियाणा के किसान क्यों इस आंदोलन में शामिल हैं? जहाँ तक पंजाब हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के
आंदोलनरत होने का प्रश्न है तो इसका मुख्य कारण यह भी है कि इन क्षेत्रों के किसानों द्वारा बड़ी से बड़ी जोत
पर खेती की जाती है जबकि अन्य राज्यों में किसान छोटी जोत पर खेती करते हैं। भारत में हमेशा से यह कहावत
कही जाती रही है कि पंजाब की फ़सल न केवल पूरे देश का पेट भरती है बल्कि देश की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ करने
में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। लिहाज़ा चूंकि पंजाब के ही किसान इन नए कृषि अध्यादेशों से स्वयं
को सबसे अधिक प्रभावित महसूस कर रहे हैं इसलिए इस आंदोलन में उनकी संख्या भी अधिक देखी जा रही है।
अब इसे कांग्रेस से जोड़ना या उनके 'लिबास व पहनावे' के आधार पर उन्हें आतंकी या खालिस्तानी बताना झूठ,
दर झूठ और महाझूठ के सिवा और कुछ भी नहीं।
2014 में जब पहली बार मोदी सरकार 'अच्छे दिन आने वाले हैं ' का सपना दिखा कर सत्ता में आई थी तब से
अब तक देश की जनता अच्छे दिनों व विकास दोनों की तलाश कर रही है। परन्तु जनता को क्या मिल रहा है?
नोट बंदी, जी एस टी, मंहगाई, बेरोज़गारी, चौपट होती अर्थव्यवस्था, बाज़ार की मंदी, किसानों व ग़रीबों की
आत्महत्याओं के समाचार, धर्म व जाति के नाम पर सत्ता के संरक्षण में चल रहा विभाजन व वैमनस्य बढ़ाने का
खेल? और इन्हीं सब को बताया जा रहा है राष्ट्र भक्ति, स्वाभिमान, गौरव, अभिमान व सांस्कृतिक राष्ट्रवाद।अब
जनता का हित इसमें हो या न हो परन्तु जनता को इसी में अपना व अपने देश का हित समझना, देखना व
स्वीकार करना होगा। यही सरकार की नीतियाँ हैं और सरकार इन्हीं नीतियों पर चलती आ रही है। आपके मन में
क्या है, सरकार यह जानने की इच्छुक नहीं, हाँ सरकार के मन में क्या है यह जानने के लिए आप प्रधानमंत्री के
'मन की बात' ज़रूर सुन सकते हैं। बहरहाल, सत्ता और विपक्ष के आरोपों व प्रत्यारोपों तथा विभिन्न क्षेत्रों के
आंदोलनकारी समाज की बेचैनियों व उनकी चिंताओं के मध्य विश्व का यह सबसे बड़ा लोकतंत्र आज उस मोड़ पर
आ खड़ा हुआ है कि अवाम ही इस बात को लेकर भ्रमित होने लगी है कि आख़िर सच और झूठ में भेद करे तो
कैसे? विश्वास करे तो किस पर? परन्तु झूठ, दर झूठ और महाझूठ के इस परवान चढ़ते वातावरण में कम से
कम एक बात तो सच ही नज़र आती है कि-
झूठ सलीक़े से बोलोगे तो सच्चे कहलाओगे।
सच को सच कह दोगे अगर तो, फांसी पर चढ़ जाओगे।।