अर्पित गुप्ता
मित्रताएं भी स्वार्थपरायण हो रही हैं। आस-पड़ोस से बातचीत निजता में खलल की परिभाषा में हो गया है। पुस्तकें
पढ़ने और सृजनात्मक कार्यों में आम लोगों की रुचि कम हुई है। कला और संस्कृति से बहुत कम लोग जुड़े हैं।
सेवा, देखभाल, आत्मीयता सब घर-परिवारों से गायब सा दिख रहा है। ईर्ष्या और द्वेष संतोष और प्रसन्नता पर
भारी पड़ रहे हैं। अकेलापन बढ़ रहा है। काफी लोग परिवार की खिचखिच की वजह से अलग व अकेले भी रहने लगे
हैं। व्यावसायिक कारणों से भी बहुत लोग अकेले रहते हैं तथा व्यावसायिक जीवन के दबाव से भी परेशान रहते हैं।
विद्यार्थी और युवावर्ग अनिश्चितताओं के चलते घर या सामाजिक दबाव के कारण भी अवसादग्रस्त हो रहे हैं।
विचलित करने वाली खबरें, चारों ओर फैली अशांति तथा महामारी में डर का माहौल आग में घी का काम करता
है…
अभी एक अखबार की खबर थी कि एक यूनिवर्सिटी की छात्रा ने अपने पालतू कुत्ते के मरने पर आत्महत्या जैसा
कदम उठा लिया। उसने बाकायदा अपने सुसाइड नोट में यह भी लिखा कि मरने के बाद उसे उसके पालतू कुत्ते बाबू
के बगल में दफना दिया जाए। पूरे प्रकरण को प्रथमदृष्टया देखने पर यह पशुओं के प्रति अत्यधिक प्रेम का मामला
लगता है, परंतु यदि थोड़ा ठहर कर गहरे से देखा जाए तो लगेगा कहीं कुछ और ही सुलग रहा है। जो यह सुलग
रहा है, केवल पशु प्रेमी या केवल कुछ लोगों के नीचे नहीं, बल्कि समाज के अधिकांश हिस्से को अपनी चपेट में ले
रहा है। यह जरूर सिद्ध हुआ है कि एक मूक प्राणी बिना कुछ कहे भी इनसान को खुश रख सकता है, मौत और
जानलेवा अवसाद को उससे दूर रख सकता है, परंतु उसकी भी एक सीमा है। यह वही अवसाद है जिससे हिमाचल
जैसे शांतिप्रिय प्रदेश में भी आत्महत्याओं का आंकड़ा महामारी से मरने वालों से कई गुणा अधिक है। डिप्रेशन
सचमुच बहुत खतरनाक है।
यह सही है कि जब तक कुत्ता था, इस बीमारी का असर दूर रहा। यह आत्महत्या तक नहीं पहुंचा। परंतु कुत्ते के
मर जाने से जैसे दीवार ढह गई, बांध टूट गया। एक पशुप्रेम ने जो संभाल रखा था, वह सब तिनका-तिनका बिखर
गया। अवसाद एक भयंकर मानसिक स्थिति है जो बाहर से नजर नहीं आती। इससे ग्रसित व्यक्ति को कई बार
स्वयं को भी इसका पता नहीं चल पाता।
आसपास के लोगों के अपनी दुनिया में खोए रहने की वजह से वे भी इसके शिकार व्यक्ति की हालत का अंदाजा
नहीं लगा पाते। यह कुछ हद तक व्यवहार एवं बातचीत में झलकता है। यदि समय रहते इसका इलाज हो जाए तो
इसके दुष्परिणामों को कम किया जा सकता है तथा संपूर्ण मुक्ति भी पाई जा सकती है। इसके दो मुख्य परिणाम
भयावह हैं एक तो आत्महत्या जो हम आए दिन अखबारों और मीडिया के माध्यम से देख-सुन रहे हैं, दूसरा है
मानसिक संतुलन खो देना यानी पागलपन तारी हो जाना।
जब दिमाग दबाव को झेल नहीं पाता तो यही स्थिति आती है। अन्य शारीरिक जटिलताएं और बीमारियां भी शरीर
में इस अवस्था के कारण पैदा हो सकती हैं जो अनगिनत हैं। आज के समय में इसके मुख्य कारणों में से एक है
करीबी लोगों से निकटता का अभाव। लोग एक घर में रहते हुए भी एक-दूसरे से कोसों दूर हो गए हैं। जरूरत से
ज्यादा मोबाइल या आभासी दुनिया में डूबे रहना भी इसका कारण और लक्षण दोनों हो सकते हैं। आज के समय में
भागमभाग ज्यादा है, भावनात्मक जुड़ाव मंद पड़ गए हैं, वे चाहे माता-पिता के बच्चों से हों या बच्चों के उनसे या
अन्य परिवारजनों-रिश्तेदारों के परस्पर हों। मित्रताएं भी स्वार्थपरायण हो रही हैं। आस-पड़ोस से बातचीत निजता में
खलल की परिभाषा में हो गया है। पुस्तकें पढ़ने और सृजनात्मक कार्यों में आम लोगों की रुचि कम हुई है। कला
और संस्कृति से बहुत कम लोग जुड़े हैं। सेवा, देखभाल, आत्मीयता सब घर-परिवारों से गायब सा दिख रहा है।
ईर्ष्या और द्वेष संतोष और प्रसन्नता पर भारी पड़ रहे हैं। अकेलापन बढ़ रहा है। काफी लोग परिवार की खिचखिच
की वजह से अलग व अकेले भी रहने लगे हैं। व्यावसायिक कारणों से भी बहुत लोग अकेले रहते हैं तथा
व्यावसायिक जीवन के दबाव से भी परेशान रहते हैं। विद्यार्थी और युवावर्ग अनिश्चितताओं के चलते घर या
सामाजिक दबाव के कारण भी अवसादग्रस्त हो रहे हैं।
विचलित करने वाली खबरें, चारों ओर फैली अशांति तथा महामारी में डर का माहौल इस सब में आग में घी का
काम करता है। दिखावे का जीवन और अनावश्यक स्पर्धा का माहौल तन और मन दोनों को भटकाए रखता है। यह
सच है कि ऊपर से सामान्य सी लगने वाली अवसाद की इस समस्या ने बहुत नुकसान किया है, परंतु इसका
मतलब यह भी नहीं कि यह लाइलाज है। इसमें घर से लेकर समाज के लिए यह एक जिम्मेदारी का काम हो जाए
तो अनेक जीवन बचाए जा सकते हैं। इसकी शुरुआती समय में पहचान करना आवश्यक है। मानसिक स्वास्थ्य
मजबूत करने के लिए भावनात्मक जुड़ाव, बातचीत, अच्छा रहन-सहन, नियमों में बंधी दिनचर्या, उचित खानपान,
नशे से दूरी, योग-प्राणायाम, शारीरिक कसरत, सामाजिक जिम्मेदारी और मानवीय मूल्यों का जीवन में समावेश
इस बीमारी को दूर रखने में मदद कर सकता है। जहां आवश्यक हो, डाक्टरी सलाह और अच्छे इलाज से इस
बीमारी से पूरी तरह निजात पाई जा सकती है। अच्छी बात है कि कुछ संस्थाएं इसमें सक्रिय रूप से कार्य कर रही
हैं, परंतु सरकार के स्तर पर भी इसके लिए मजबूत कदम उठाने की आवश्यकता है।
लोगों की जान ऐसे नहीं जानी चाहिए। यह देश की अमूल्य संपत्ति का नुकसान है। हम सब का नुकसान है। स्वस्थ
नागरिक, उनके स्वस्थ शरीर, स्वस्थ मन स्वस्थ देश के अवयव हैं। अवसदाग्रस्त व्यक्ति को यह भी समझाया
जाना चाहिए कि आत्महत्या किसी समस्या का समाधान नहीं है। अवसाद के समय व्यक्ति को छोटी-सी समस्या
भी बड़ी दिखाई देने लगती है, जबकि उस समस्या का आसानी से समाधान किया जा सकता है। अवसादग्रस्त
व्यक्ति का अगर हौसला बढ़ाया जाए, तो बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान भी हो सकता है। इस तरह अवसाद को
लेकर जागरूकता की जरूरत है। थोड़ा सा हौसला भी अवसादग्रस्त व्यक्ति को आत्महत्या जैसे कदमों से दूर रख
सकता है।