अर्पित गुप्ता
समस्या यह है कि मोदी अपनी मनमानी के लिए संविधान में कुछ ऐसे परिवर्तन चाहते हैं जिसके लिए उन्हें
लोकसभा और राज्यसभा में दो-तिहाई बहुमत और कम से कम आधे राज्यों में भाजपा सरकार की दरकार है। मोदी
बहुत दूरअंदेशी हैं और वे जानते हैं कि यदि नीतीश को मुख्यमंत्री न बनाया तो वे पाला बदल लेंगे और उस
अवस्था में बिहार में न तो भाजपा की सरकार रहेगी, न राज्यसभा की सीटों के लिए आवश्यक मत जुट पाएंगे।
राज्यसभा में भाजपा का बहुमत न होना मोदी की दुखती रग है और वे हर नैतिक-अनैतिक तरीके से राज्यसभा में
बहुमत जुटाने की तरकीब में जुटे हैं…
पांच वर्ष पूर्व नीतीश कुमार ने लालू यादव की आरजेडी के साथ हाथ मिलाकर प्रधानमंत्री को चुनौती दी थी और
जनता का दिल जीत कर मुख्यमंत्री बने थे तो वे लोकप्रियता के चरम पर थे और उन्हें विपक्ष के संभावित नेता
और विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के अगले दावेदार के रूप में देखा जाने लगा था। तब भी बिहार विधानसभा
में उनके दल को कम सीटें मिली थीं और आरजेडी के ज्यादा उम्मीदवार जीत कर आए थे। शीघ्र ही उनका मन
आरजेडी से उचट गया और वे भाजपा के पाले में आ गए। विधानसभा में उनका बहुमत कायम रहा और वे
मुख्यमंत्री बने रहे। अब पांच वर्ष बाद उन्होंने सातवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है और मुख्यमंत्री के रूप में
यह उनका चौथा कार्यकाल है।
इस बार भी उनके दल को विधानसभा में उनके भागीदार भाजपा से कम सीटें मिली हैं, फिर भी मुख्यमंत्री बनने
का सौभाग्य उन्हें ही मिला है और नए मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेकर उन्होंने कार्यभार संभाल लिया है। पर इस
बार दो बड़े अंतर हैं। पहला, वे पहले की तरह लोकप्रिय नहीं हैं, उनकी लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से नीचे गिरा है
और यदि भाजपा की कुछ विवशताएं न होतीं तो वे मुख्यमंत्री न बने होते। दूसरा, अब उनके साथ विकल्पहीनता
की स्थिति है और मुख्यमंत्री बन जाने के बावजूद वे प्रधानमंत्री मोदी के अंगूठे तले ही रहेंगे। सवाल यह है कि
प्रधानमंत्री की ऐसी क्या विवशता थी कि भाजपा की स्थिति मजबूत हो जाने और नीतीश कुमार की व्यक्तिगत
लोकप्रियता रसातल में चली जाने के बावजूद उन्हें बिहार की कमान नीतीश कुमार को ही सौंपनी पड़ी, वह भी तब
जब अपनी तमाम असफलताओं के बावजूद नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ प्रभावित नहीं हुआ है। मोदी जानते
हैं कि जो उनके विरोधी हैं, वे विरोधी रहेंगे ही और जो उनके प्रशंसक हैं वे और अधिक गहरे भक्त बनते जा रहे
हैं। नरेंद्र मोदी की प्रोपेगैंडा मशीन बड़ी कुशलता से सच और झूठ के घालमेल से उन्हें हर रोज घुट्टी पिला देती है
और वे सब तालियां बजाने लग जाते हैं।
यहां तक कि अपने कार्यकर्ताओं को भेजे संदेशों में मोदी की प्रोपेगैंडा मशीन उनकी असफलताओं को भी सफलता के
रूप में प्रचारित कर देती है और भक्तगण सम्मोहित हो जाते हैं। एक छोटा सा उदाहरण मेरी बात को और स्पष्ट
कर देगा। कुछ दिन पूर्व भाजपा के कार्यकर्ताओं के एक ह्वाट्सऐप ग्रुप में एक संदेश आया जिसमें ओवैसी को यह
कहते हुए दिखाया गया है कि मोदी इस देश को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं, और उसके बाद नीचे टिप्पणी के रूप
में यह लिखा था …‘और तुमने क्या समझा था कि हमने 15 लाख के लिए वोट दिए हैं?’ यानी, मोदी द्वारा काले
धन पर नकेल लगाकर हर नागरिक को 15 लाख देने का जो वायदा किया गया था उसका कुछ नहीं बना। न काले
धन पर नकेल लगी, न स्विस बैंक के खातों का पता चला, न नागरिकों को 15 लाख मिले, पर उपरोक्त संदेश में
उस असफलता को भी चतुराई से सफलता में बदल दिया। मजे की बात यह है कि हिंदू-मुस्लिम भावनाएं उभार कर
इस संदेश ने भी तालियां बटोर लीं। व्यवस्था की असफलता का ऐसा जश्न कहीं और देखने को नहीं मिलता।
हिंदू-मुस्लिम दंगे कानून-व्यवस्था का मसला हैं और यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि अगर प्रशासन चाहे तो इन्हें न
केवल नियंत्रित कर सकता है बल्कि इनकी जड़ तक जाकर इन्हें समाप्तप्राय भी कर सकता है। 1985 बैच के
आईपीएस अधिकारी जेके त्रिपाठी ने जब त्रिची में पुलिस कमिश्नर का पद संभाला तो त्रिची की स्थिति विस्फोटक
थी। त्रिची में हिंदुओं, मुसलमानों और ईसाइयों की संख्या लगभग बराबर-बराबर है। छोटी-छोटी बातों पर धार्मिक
दंगे हो जाते थे। अपराधी तत्त्व मनमानी करने लगते थे और पुलिस बेबस नजर आती थी। लेकिन त्रिपाठी के
पदभार संभालने के दो साल के अंदर ही अपराध का ग्राफ 40 प्रतिशत नीचे आ गया, धार्मिक सहिष्णुता बढ़ी और
दंगे-फसाद कम होने शुरू हो गए। त्रिपाठी ने तीनों धर्मों के मुख्य लोगों से बैठक की और उनमें विश्वास और सौहार्द
कायम किया। उनकी रणनीति ने काम किया और उनकी रिटायरमेंट के सालों बाद भी अब त्रिची एक बदला हुआ
शहर है। भावनाएं भड़काए बिना समाज में सौहार्द स्थापति करना संभव है, लेकिन जब नीयत वोट बैंक को प्रभावित
करने की हो तो सारा खेल बिगड़ जाता है। खैर, हम विषय से न भटक कर भाजपा, बिहार, नीतीश और मोदी पर
वापस आते हैं। समस्या यह है कि मोदी अपनी मनमानी के लिए संविधान में कुछ ऐसे परिवर्तन चाहते हैं जिसके
लिए उन्हें लोकसभा और राज्यसभा में दो-तिहाई बहुमत और कम से कम आधे राज्यों में भाजपा सरकार की
दरकार है। मोदी बहुत दूरअंदेशी हैं और वे जानते हैं कि यदि नीतीश को मुख्यमंत्री न बनाया तो वे पाला बदल लेंगे
और उस अवस्था में बिहार में न तो भाजपा की सरकार रहेगी, न राज्यसभा की सीटों के लिए आवश्यक मत जुट
पाएंगे। राज्यसभा में भाजपा का बहुमत न होना मोदी की दुखती रग है और वे हर नैतिक-अनैतिक तरीके से
राज्यसभा में बहुमत जुटाने की तरकीब में जुटे हैं।
अपनी इस आकांक्षा की पूर्ति के लिए उनके पास चार साल और हैं और कोई बड़ी बात नहीं कि सन् 2024 के
चुनाव से पहले हमें संविधान में कोई अप्रत्याशित संशोधन देखने को मिले। नरेंद्र मोदी देश के निर्वाचित प्रधानमंत्री
हैं और उन्हें अपनी नीतियां लागू करने का पूरा हक है। याद सिर्फ यह रखना है कि किसी भी एक व्यक्ति के पास
असीमित शक्तियां नहीं होनी चाहिएं, चाहे वह निर्वाचित प्रधानमंत्री ही क्यों न हो। यह परम सत्य है कि शक्ति
व्यक्ति को भ्रष्ट करती है और असीमित शक्ति व्यक्ति को असीमित रूप से भ्रष्ट करती है। आज हम भारतीयों के
समक्ष यही खतरा मंडरा रहा है कि एक अत्यंत चतुर और वाक्पटु तथा हर तरह के झूठ बोलने में माहिर प्रधानमंत्री
असीमित शक्तियों का आकांक्षी है। मोदी यदि ऐसा न भी कर पाए तो भी यह खतरा अब हमेशा के लिए बराबर
बना रहेगा कि भविष्य में कोई अन्य प्रधानमंत्री संविधान की इन कमियों का नाजायज फायदा उठा कर देश को
पतन के गर्त में ले जाए। समस्या यह है कि कोई विपक्षी नेता ऐसा नहीं है जिसकी विश्वसनीयता इतनी हो कि वह
मोदी को चुनौती दे सके और अन्ना हजारे बहुत पहले ही अपनी चमक खो बैठे हैं। सोनिया गांधी अब राहुल के
सामने विवश हैं और राहुल गांधी में परिपक्वता की इतनी कमी दिखती ही है कि सिक्काबंद कांग्रेसियों के अलावा
उन्हें ज्यादा समर्थन नहीं मिल सकता। हमारी अर्थव्यवस्था रसातल में जा चुकी है, इन 6 वर्षों में देश पर कर्ज का
भारी बोझ चढ़ गया है, भारतवर्ष इस समय एक गहरे संकटकाल से गुजर रहा है और भक्तगण गाल फुला रहे हैं।
समय ही बताएगा कि इस संकट से हम कैसे निकल पाएंगे।