महान क्रांतिवीर वजीर राम सिंह पठानिया

asiakhabar.com | November 11, 2020 | 4:03 pm IST

विनय गुप्ता

नवंबर 2017 में वर्तमान प्रधानमंत्री ने हिमाचल में एक चुनावी जनसभा में अपनी तकरीर में पठानिया की
शूरवीरता का जिक्र किया था, मगर ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ने का जज्बा दिखाने वाले वीरभूमि के उस जांबाज
को शहीद का दर्जा देने पर सियासी प्रश्नचिन्ह बरकरार है। इसके लिए कई संस्थाएं, बुद्धिजीवी वर्ग व स्थानीय
क्षत्रिय समाज एक मुद्दत से उन्हें शहीद का दर्जा दिलाने तथा नूरपुर का नामकरण भी उनके नाम पर रखने की
आवाज बुलंद करते आए हैं। देश के पहले स्वतंत्रता दिवस के मौके पर मुल्क की आजादी के लिए बलिदान देने वाले
सेनानियों के लिए कई वायदे भी हुए थे, जो अधूरे हैं…
देश में गौरवमयी तारीख 15 अगस्त को जश्न-ए-आजादी के रूप में धूमधाम से मनाया जाता है। बेशक देश को
ब्रिटिश साम्राज्य की दो शताब्दी की गुलामी से मुक्त कराने के लिए देश में कई रक्तरंजित संघर्ष हुए तथा असंख्य
क्रांतिवीरों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। झारखंड के संथाल परगना में 30 जून 1855 के विद्रोह को ‘हूल
क्रांति दिवस’ के रूप में मनाया जाता है तथा 1879 में महाराष्ट्र में ‘वासुदेव एकनाथ फड़के’ ने भी अंग्रेजों के
खिलाफ विद्रोह को अंजाम दिया था। इसके अलावा 1857 की देशव्यापी क्रांति को पहले स्वतंत्रता संग्राम के तौर
पर देखा जाता है। लेकिन एक ऐतिहासिक तथ्य यह है कि बर्तानवी हुकूमत के जुल्मोसितम की दास्तां के खिलाफ
सशस्त्र बगावत का शदीद आगाज 1857 के संग्राम से ग्यारह वर्ष पूर्व शौर्य बलिदान के धरातल हिमाचल प्रदेश की
धरा से हो चुका था। अपने पराक्रमी तेवरों से अंग्रेजों के खिलाफ इंकलाब का बिगुल फूंकने वाले सैन्य पृष्ठभूमि के
उस शूरवीर चेहरे का नाम वीर शिरोमणि ‘वजीर राम सिंह पठानिया’ था।
उनका जन्म नूरपुर रियासत के राजा वीर सिंह के वजीर श्याम सिंह पठानिया के घर वासां वजीर में 10 अप्रैल
1824 को हुआ था, जो 1846 में नूरपुर रियासत के वजीर बने थे। दरअसल 9 मार्च 1846 को सिखों व अंग्रेजों
के बीच हुई लाहौर संधि के अंतर्गत अंग्रेजों ने हिमाचल की कुछ रियासतों को अपनी हुकूमत के अधीन कर लिया
था, जिनमें नूरपुर की रियासत भी शामिल थी। अंग्रेज शातिराना तरीके से कई पहाड़ी रियासतों पर अपना वर्चस्व
कायम करने में मशगूल थे, मगर नूरपुर रियासत की हुदूद में फिरंगी हुकूमत के कदमों की आहट तथा

दखलअंदाजी राम सिंह पठानिया को हरगिज नामंजूर थी। आखिर 14 अगस्त 1846 को राम सिंह पठानिया ने
अपने सैनिकों के साथ रावी नदी के तट पर मौजूद शाहपुर कंडी दुर्ग पर कब्जा जमाए बैठे अंग्रेज लाव-लश्कर पर
धावा बोल दिया तथा कई अंग्रेज सैनिकों को अपनी शमशीर से मार भगाकर उस किले पर अपनी विजय पताका
फहरा दी थी। उसके बाद पठानिया ने भारी असलह से लैस अंग्रेज सेना के खिलाफ संघर्ष के लिए गुरिल्ला
युद्धनीति का तरीका ईजाद करके अपनी रियासत की पहाडि़यों को अपना कयाम बनाया तथा सैकड़ों स्थानीय
युवाओं को एकत्र करके उनके जहन में मातृभूमि की स्वतंत्रता का जज्बा पैदा करके सन् 1846 से 1849 तक
अंग्रेजों को सशस्त्र चुनौती पेश की।
लेकिन अपनी सैन्य रणनीति से तीन वर्षों तक अंग्रेज हुकूमत के होश उड़ाने वाले वजीर राम सिंह पठानिया एक
विश्वासघात का शिकार हुए तथा अंग्रेजों ने उन्हें एक षड्यंत्र के तहत बंदी बना लिया। 21 अप्रैल 1849 को अंग्रेज
अदालत ने राम सिंह पठानिया को मृत्युदंड की सजा सुनाई, मगर बाद में इस सजा को आजीवन कारावास में
तब्दील करके उन्हें रंगून की मैलोमियन जेल में भेज दिया जहां कई यातनाओं को सहन करके 11 नवंबर 1849
को ब्रितानी शासन को ललकारने वाला हिमाचली सपूत 25 वर्ष की अल्पायु में देश के लिए कुर्बान हो गया, लेकिन
दुश्मनों से शिकस्त नहीं मानी। उस दौर में बर्तानवी सल्तनत दुनिया में अपने पूरे शबाब पर थी जिसका कभी
सूर्यास्त नहीं होता था। लोग अंग्रेजों के सितम से त्रस्त जरूर थे, मगर उनकी खिलाफत करने की हिमाकत कोई
नहीं करता था। राम सिंह पठानिया ने सशस्त्र विद्रोह से अंग्रेजों को उनके तख्त की अस्थिरता का एहसास करा
दिया था। ‘ढल्ले की धार’ पर जनवरी 1849 में राजपूत योद्धाओं के तसादुम में मारे गए अंग्रेज अधिकारी
लेफ्टिनेंट जॉन पील की कब्र तथा उस पर लिखा मजमून वजीर राम सिंह पठानिया के शौर्य पराक्रम की चश्मदीद
गवाही आज भी मौजूद है। उस रणबांकुरे के सम्मान में उनकी शौर्यगाथाएं गाई जाती हैं।
नवंबर 2017 में वर्तमान प्रधानमंत्री ने हिमाचल में एक चुनावी जनसभा में अपनी तकरीर में पठानिया की
शूरवीरता का जिक्र किया था, मगर ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ने का जज्बा दिखाने वाले वीरभूमि के उस जांबाज
को शहीद का दर्जा देने पर सियासी प्रश्नचिन्ह बरकरार है। इसके लिए कई संस्थाएं, बुद्धिजीवी वर्ग व स्थानीय
क्षत्रिय समाज एक मुद्दत से उन्हें शहीद का दर्जा दिलाने तथा नूरपुर का नामकरण भी उनके नाम पर रखने की
आवाज बुलंद करते आए हैं। देश के पहले स्वतंत्रता दिवस के मौके पर मुल्क की आजादी के लिए बलिदान देने वाले
सेनानियों तथा उनके आश्रितों के लिए कई घोषणाएं व वायदे भी हुए थे, जो सियासी फाइलों में ही दब गए। दूसरी
विडंबना यह रही कि आजादी के बाद देश के शिक्षा तंत्र तथा इतिहास पर ऐसे लोगों का कब्जा हुआ कि किताबों में
विदेशी आक्रांताओं को महान पढ़ाया गया, मगर देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने वाले राम सिंह पठानिया
सरीखे जांबाजों के संघर्ष भरे इतिहास को सहेजने की हिमाकत नहीं हुई, न ही क्रांतिवीरों के मजीद किरदारों की
पैरवी उस शिद्दत से हुई कि उन्हें उनके साहस व शौहरत के अनुरूप राष्ट्रीय पहचान मिल सके।
स्मरण रहे वतन पर सरफरोशी की तमन्ना को लेकर कुर्बान होने वाले योद्धाओं का तस्सवुर हमेशा जीवित रहता
है। इसलिए वे शहीद कहलाते हैं। आजादी के जिन परवानों के अथक प्रयासों से देश स्वतंत्र हुआ, वे शहोदा राष्ट्र का
एक बड़ा सरमाया है तथा उनकी गौरव-गाथाओं का प्रेरणान्नेत इतिहास देश की अमूल्य संपदा है। अतः लाजिमी है

हुकूमत विदेशी प्रभुत्व के वजूद को बेदखल करने के लिए सशस्त्र बगावत की शमां जलाने वाले सपूत वजीर राम
सिंह पठानिया को शहीद का दर्जा देने पर गौर फरमाए तथा उनकी जीवनी को शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल करे
ताकि युवा पीढ़ी राष्ट्र के असली नायकों के इतिहास से मुखातिब हो सके।


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