विकास गुप्ता
मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर में जमीन की खरीद-फरोख्त की देश के अन्य नागरिकों के लिए खोलने की घोषणा
की है और इस बाबत राज्य के भूमि कानूनों में संशोधन किया है। अभी तक जमीन को केवल राज्य के स्थायी
निवासियों के बीच ही बेचा या खरीदा जा सकता था.मगर नये नियमों के अनुसार अब देश का कोई भी नागरिक
इस राज्य में व्यावसायिक या रिहायशी काम के लिए गैर कृषि भूमि खरीद सकता है।भेदभाव एवं अन्याय के साथ-
साथ अलगाववाद को बढ़ावा देने वाले अनुच्छेद 370 और 35-ए को खत्म करने के बाद ऐसा कोई फैसला लिया
जाना प्रत्याशित ही था। नि:संदेह यह भी प्रत्याशित था कि महबूबा मुफ्ती एवं फारूक अब्दुल्ला सरीखे नेता ऐसे
किसी फैसले का विरोध करने के लिए आगे आ जाएंगे। वे आ भी गए, लेकिन उनके बयान इसी की पुष्टि कर रहे
हैं कि वे किस तरह कश्मीर को अपनी निजी जागीर समझकर चल रहे थे। बेहतर हो कि केंद्र सरकार ऐसे अन्य
कदम उठाए, जिनसे इन नेताओं का यह मुगालता दूर हो कि कश्मीर उनकी जागीर है।
सरकार का यह फैसला पिछले 73 वर्षों से जम्मू-कश्मीर के शेष भारत के साथ कथित विलगाव को समाप्त करने
की नीयत से उठाया गया कदम लगता है परन्तु यह देखना भी जरूरी है कि इस फैसले से आम कश्मीरी नागरिक
के मन में बाहरी लोगों का प्रभाव बढ़ने की आशंका बलवती न हो अतः राज्य में भूमि क्रय-विक्रय के वे ही नियम
लागू किये जाएं जो भारत के प्रमुख पहाड़ी राज्यों जैसे उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश व उत्तर पूर्वी राज्यों में हैं जिससे
जम्मू-कश्मीर का भारत में समन्वय सामान्य तरीके से हो सके क्योंकि यह राज्य अपनी प्राकृतिक व नैसर्गिक
खूबसूरती के लिए केवल भारतीयों का ही नहीं बल्कि दुनिया के लोगों का मन मोहता है। इसकी नैसर्गिक खूबसूरती
को बरकरार रखने के लिए जरूरी होगा कि केवल पर्यावरण को स्वच्छ रखने वाले उद्योग ही यहां लगें और उनमें
स्थानीय लोगों को रोजगार देने की गारंटी दी जाये।
नये कानूनों के तहत अस्पताल व शिक्षा संस्थान खोलने के लिए भी कृषि भूमि का आवंटन किसी निजी कम्पनी
या ट्रस्ट को किया जा सकता है। इस बारे में भी बहुत सावधानी बरतने की जरूरत है क्योंकि बाजार मूलक
अर्थव्यवस्था ने इन दोनों ही क्षेत्रों को शानदार मुनाफा कमाने का जरिया बना दिया है पुराने कानून के तहत केवल
राजस्व मन्त्री के पास ही यह अधिकार था कि वह भूमि प्रयोग का तरीका बदल दे नये कानून के तहत यह
अधिकार जिलाधीश के पास चला जायेगा। हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य में कृषि भूमि का प्रयोग व्यावसायिक या
रिहायिश क्षेत्र के लिए तभी किया जा सकता है जबकि वह पिछले कई सुनिश्चित वर्षों, से ऊसर पड़ी हुई हो। अतः
इस मामले में हमें अपने देश के ही अन्य पर्वतीय राज्यों के उदाहरणों को ध्यान में रखना होगा। और स्थानीय
निवासियों के हितों को प्राथमिकता इसलिए देनी होगी क्योंकि उनमें नये कानूनों से आर्थिक सम्पन्नता का भाव
जगना चाहिए।
राजनीतिक रूप से राज्य के क्षेत्रीय दल जैसे पीडीपी व नेशनल कान्फ्रेंस आदि इसका पुरजोर विरोध कर रहे हैं और
इसे कश्मीरियों के साथ विश्वासघात तक बता रहे हैं मगर वे भूल रहे हैं कि अपने शासन के दौरान उन्होंने
कश्मीरियों को सशक्त बनाने के बजाय खुद को सशक्त बनाने का प्रयास ही किया जिसकी वजह से यह राज्य न
केवल आर्थिक रूप से पिछड़ा रह गया बल्कि इसके लोगों में अपना चहुंमुखी विकास करने की इच्छा भी दाब दी
गई। इन लोगों को केवल विशेष दर्जा प्राप्त होने का झुनझुना पकड़ा कर राजनीतिक दलों ने उनकी सामाजिक व
आर्थिक स्थिति को यथावत बनाये रखने की राजनीति की। परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि लोकतन्त्र में इन
लोगों पर इकतरफा निर्णय थोपे जायें, सरकार के फैसलों में स्थानीय निवासियों की भागीदारी या शिरकत इसलिए
जरूरी है जिससे हर फैसले को जनमत के समर्थन से लागू किया जाये।
हमें कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को भी ध्यान में रखना चाहिए कि 1927 के लगभग महाराजा हरिसिंह ने अपनी
रियासत में गैर कश्मीरी लोगों के जमीन खरीदने पर इसीलिए प्रतिबन्ध लगाया था क्योंकि तब अंग्रेजी शासक
कश्मीर में जमीने खरीद-खरीद कर अपनी ऐशगाहें बनाने लगे थे, परन्तु अब ऐसी स्थिति नहीं है और अब भारत
के हर नागरिक को अधिकार है कि वह कश्मीर के विकास में अपना योगदान दे सके। स्पष्ट है कि मोदी सरकार के
ताजा फैसले से न केवल जम्मू-कश्मीर की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में मदद मिलेगी, बल्कि कश्मीरी नेताओं
की ब्लैकमेलिंग वाली सियासत पर भी लगाम लगेगी। इस फैसले का एक दूरगामी असर यह भी होगा कि कश्मीर
में सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्तर पर विविधता का निर्माण होगा और उससे पाकिस्तानपरस्त तत्वों के दुस्साहस
का दमन होगा। उचित यह होगा कि जम्मू-कश्मीर और खासकर घाटी में जो पूर्व सैनिक बसना चाहें, उन्हें
अतिरिक्त रियायत दी जाए।