सुरेंदर कुमार चोपड़ा
नो दिनों तक पूजा अर्चना का आधार बनी सांझी की आखिर विदाई घड़ी आ ही गई।दशहरे से पहले दिन सांझी को
भोग लगाकर भारी मन के साथ विदा किया जाता है।जिन बेटियों ने उत्साह के साथ अपनी हस्तकला सिद्ध करते
हुए सांझी को बनाया था और सांझी की प्राण प्रतिष्ठा करके देवी रूप में सांझी की पूजा की,।उन्हें सांझी को दुर्गा
नवमी पर विदा होना अखरता है।घर मे नो दिनों तक विशेष इष्ट के रूप में सांझी की आरती से घर का वातावरण
भक्तिमय हो जाता है।
'जाग सांझी जाग री….।'नवरात्र में घर घर मे लगी सांझी की यह आरती सुबह शाम गायी जाती है और दीपक
जलाकर मां दुर्गा रूपी सांझी की पूजा की जाती है।कच्ची मिटटी की देवी,चाँद सितारे बनाकर उन्हें विभिन्न रंगों से
सजाकर गोबर के सहारे दीवार पर चिपकाया जाता है और उनके सामने जौ बोये जाते है।सांझी पूजा से जुड़े अनेक
लोकगीत है।जो दिल को लुभाते है।
'लिल्ली धोडी रे कौन फिरे सवार,मै था दुलीचन्द बोबो हे, सांझी का लेवणहार। बोबो थोडा पिला दे हे तेरा बीर
प्यासा जाए, 'यह लोक गीत नवरात्रों के दिनों में प्राय हर घर में गाया जाता है।मां सांझी की आरती करते समय
सुबह शाम गाये जाने वाले इस लोग गीत में कही न कही एक संदेश जरूर होता है,साथ ही इसमें भारतीय संस्कृति
की अनूठी झलक भी देखने को मिलती है। श्राद्ध के अन्तिम दिन अमावस्या को देवी रूप में मिटटी से बनी मां
सांझी को प्रतिष्ठित किया जाता है और मां सांझी की पूरे नवरात्रों तक पूजा अर्चना की जाती है। दो दशक पहले
तक गांव हो या शहर, धर लडकियां कच्ची मिटटी से नई नई डिजाईन व नये नये साज श्रंगार के साथ सांझी
तैयार करती थी और सांझी के साथ चांद तारे से लेकर कई आकृतियां सजाई जाती थी। जो शिल्पकला का अदभुत
नमूना भी है।
श्राद्ध पक्ष आते ही सांझी बनाने का सिलसिला शुरू हो जाता था और नवरात्र से एक दिन पहले गोबर से चिपकाकर
दिवारों पर सांझी लगाई जाती थी। लेकिन वक्त बदलने के साथ सांझी भी हाईटेक हो गई है। अब सांझी धरों में
बनाने के बजाए बाजारों से खरीदकर लगाई जाती है।एक सांझी 20 रूपये से 100 रूपये के मध्य आसानी से मिल
जाती है। ऐसे में सांझी को धर में बनाने की परम्परा भी खत्म हो गई है।लेकिन इससे धर की लडकियां सांझी
बनाने की शिल्पकला से वंचित हो गई है। धार्मिक मान्यता है कि सांझी एक गरीब परिवार में जन्मी पली और बडी
हुई एक ऐसी लडकी थी जिसे ससुराल भी गरीब ही मिली।
ससुराल में सांझी को कई झूठे इल्जाम और ताने सहन करने पडतें थे। यानि सांझी को ससुराल में प्रताडित किया
गया। सांझी को मायके लिवाने जब उसका भाई दुलीचन्द उसकी ससुराल आया तो उससे सांझी की पीडा देखी नही
गई। हद तो तब हो गई जब ससुराल वालों ने सांझी को उसके भाई के साथ भेजने से इंकार कर दिया।सांझी जिद
पर अड गई और भाई दुलीचन्द के साथ मायके चली गई। जहां पहुंचने पर सांझी की आरती उतारकर पूरे गांव ने
स्वागत किया। सांझी के मायके में स्वागत के दौरान चने जिसे चाब कहा जाता है रूपी प्रसाद बाटा गया था। तभी
पर्व मनाने और पर्व पर चाब के रूप में भीगे हुए चने बांटने की परम्परा है।
राधा बल्लभ संप्रदाय के अनुयायी सांझी को राधा कृष्ण की पे्रम भक्ति के रूप व्याख्यायित करते है तो कही कही
सांझी पूजा 16 दिनों तक किये जाने की भी परम्परा है। लोक कथाओं के साथ साथ लोक गीतों में कालजयी सांझी
की कथा सहज ही समझ में आ जाती है। सांझी की आरती सुबह शाम करते समय प्रार्थना के रूप में जो लोक गीत
गाए जाते है उन लोक गीतो की एक बानगी देखिए, चाब दे री चाब दे सांझी की मां चाब दे , तेरी सांझी जीवे
चाब दे। इसी तरह आरता री आरता सांझी मां आरता। गाकर सांझी मां की पूजा की जाती है।
इसी सांझी मां की प्रतिमा के सामने सांझी स्थापना के अगले दिन कच्ची मिटटी में जौ बोये जाते है। प्रतिदिन
सुबह शाम सांझी को स्नान कराते समय व भोग लगाते समय इन बोये गए जौ में नियमित पानी छिडकने से जौ
अकंुरित होकर पौधा बनने लगता है जिसे नोरते कहते है। चूंकि दशहरे तक ये नोरते काफी बडे हो जाते है इस
लिए इन्ही नोरतों से दशहरे की पूजाकर कर बहने अपने भाईयों के कानो पर नोरते रखकर उनकी दिर्धायु की
कामना करती है और बदले में भाई अपनी बहन को सोगात देता है। हांलाकि सांझी प्रतिमा को दशहरे से एक दिन
पूर्व ही श्राद्धाभाव से उतारकर किसी दरिया में विर्सजित कर दिया जाता है। धर की लडकिया सांझी प्रतिमा को
विर्सजित करते समय उदास भी होती है क्योंकि उन्होने सांझी की प्रतिमा को बडे परिश्रम व उत्साह से बनाया था।
परन्तु उन्हे यह ढांढस बंधाकर कि अगले साल फिर सांझी मां आएगी और उन्हे फिर से सांझी की एक अच्छी सी
प्रतिमा बनाने का अवसर मिलेगा, लडकियों को मना लिया जाता है।सचमुच लडकियों में सांझी बनाने के नाम पर
उनकी शिल्पकला प्रर्दशित करने का नवरात्र एक अच्छा अवसर है। जिसमें कन्या की पूजा के साथ ही स्त्री शक्ति
सम्मान के रूप में मां दुर्गा का भावपूर्ण स्मरण किया जाता हैऔर श्रद्धालु पूरे नवरात्र उपवास रखकर मां सांझी व
मां दुर्गा की पूजा अर्चना करते है। साथ ही नन्ही मुन्नी बच्चियों को भोजन कराकर उनका आर्शीवाद प्राप्त किया
जाता है। है न भारतीय संस्कृति की यह अनूठी परम्परा ,जहां आधी दुनिया यानि स्त्री जाति के सम्मान का एक
बडा अवसर है। यह सम्मान बरकरार रहे ,कन्याओं को देवी स्वरूप में पूरे वर्ष सम्मान मिले ,तभी नवरात्रि की
सार्थकता है।