संयोग गुप्ता
बिहार विधान सभा में चुनाव प्रचार ने अपनी रफ़्तार पकड़ ली है। इस बार के चुनावों में कुछ नए राजनैतिक
समीकरण भी देखने को मिल रहे हैं। आम तौर पर चुनावों में सत्ता पक्ष अपनी उपलब्धियों व विगत पांच वर्ष की
अपनी कारगुज़ारियों व जनता के लिए किये गए अपने लोकहितकारी योजनाओं को गिनाकर वोट मांगता है। तो
विपक्ष उसकी कमियां बताकर तथा उसके द्वारा किये जा रहे दावों पर सवाल खड़ा करते हुए जनता बीच जाता है
और सत्ता के लिए अपना दावा पेश करता है। सत्ता धारी दल पूरा ज़ोर लगाकर यहाँ तक कि सरकारी संसाधनों का
इस्तेमाल करते हुए अपनी सत्ता को बचाए रखना चाहता है तो विपक्षी दल भी येन केन प्रकरेण सत्ता पर क़ाबिज़
होना चाहता है। परन्तु गत दो दशकों से राजनीति में एक ऐसा नया चलन शुरू कर दिया गया है जिससे
जनहितकारी योजनाओं या इससे जुड़े मुद्दों का तो ज़िक्र ही कम से कम होता है जबकि अनेक फ़ुज़ूल की ऐसी बातें
चुनावी विमर्श के दौरान में छेड़ दी जाती हैं जो मतदाताओं का ध्यान जनता से जुड़े मूल मुद्दों से भटका देती हैं।
नतीजतन सरकार के पांच वर्षों के काम काज व उसकी उपलब्धयों पर चुनावों के दौरान चर्चा नहीं हो पाती और
असंबद्ध विषयों में मतदाताओं को उलझाकर तथा उनकी भावनाओं को भड़काकर वोट झटकने की कोशिश की जाती
है। बिहार में सत्ता पर क़ाबिज़ होने की लिए पहले भी यह खेल खेले जा चुके हैं और इस बार फिर उसी तरह के
मुद्दे उठाने की कोशिश की जा रही है।
कमोबेश गत 15 वर्षों से राज्य का नेतृत्व नितीश कुमार कर रहे हैं। 2015 में जब यही नितीश कुमार व उनकी
जनता दल यूनाइटेड कांग्रेस व राष्ट्रीय जनता दल के महागठबंधन का हिस्सा थे उस समय भारतीय जनता पार्टी
की ओर से स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नितीश कुमार के डी एन ए पर सवाल उठाया था। जवाब में जे डी यू के
लाखों सदस्यों ने अपना डी एन ए प्रधानमंत्री को भेजने की मुहिम छेड़ी थी। नितीश कुमार ने भी डी एन ए के
सवाल को बिहार की स्मिता का प्रश्न बना दिया था। प्रधानमंत्री ने एक चुनावी सभा में नितीश के विरोध करने के
सन्दर्भ में यह भी कहा था कि नितीश ने मेरे सामने से थाली खींचने की कोशिश की थी। थाली गोया 'सत्ता की
थाली'।यह प्रधानमंत्री के शब्द हैं जिससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि नेतागण सत्ता या राजनीति को सेवा का
माध्यम नहीं बल्कि 'भोजन की थाली ' समझते हैं। उसी दौर में जब भाजपा की जे डी यू से पुनः 'सगाई' नहीं हुई
थी और मीडिया नितीश कुमार को सुशासन बाबू की उपाधि से नवाज़ चुका था,तभी भाजपा के नंबर दो नेता अमित
शाह ने बिहार की जनता को यह भी आगाह किया था कि यदि नितीश कुमार के नेतृत्व वाला महागठबंधन विजयी
हुआ तो पाकिस्तान में पटाख़े फूटेंगे। क्या अजब इत्तेफ़ाक़ है कि आज नितीश की जीत से नहीं बल्कि नितीश के
विरोधी दलों के लोगों से भाजपा बिहार के मतदाताओं को यह ख़तरा बता रही है कि इनमें कोई जिन्ना समर्थक है
इसलिए वोट इन्हें मत दो बल्कि हमें दो। इनके जीतने से बिहार आतंकियों की पनाह गाह बन जाएगी इसलिए वोट
इन्हें नहीं बल्कि हमें दो। पिछले चुनावों में यही स्वयंभू राष्ट्रवादी गाय को सजाकर उसके गले में बाहें डालकर रोते
हुए गौ रक्षा के नाम पर नितीश के विरुद्ध वोट मांगते थे। परन्तु अब नितीश कुमार इनके साथ हैं तो गऊ माता
भी सुरक्षित हैं,नितीश का डी एन ए भी ठीक है और थाली खींचने का कोई गिला शिकवा भी नहीं।
बिहार में मतदाताओं में अब एक नया भय इस बात का पैदा किया जा रहा है कि महागठबंधन यानि आर जे डी व
उनके सहयोगियों के सत्ता में आने से वह लालू राज पुनः आ जाएगा जिसे 'गुंडा राज ' या जंगल राज कहा जाता
था। नक्सलियों का भी भय खड़ा किया जा रहा है। अभी चुनाव क़रीब आते आते इस तरह के और भी कई नए
शगूफ़े सामने आएँगे जिनका सीधे तौर पर जनता की समस्याओं या राज्य के विकास अथवा बिहार वासियों की
मूलभूत ज़रूरतों से कोई लेना देना नहीं है। इसी वर्ष कोरोना के क़हर के दौरान देश में सबसे अधिक प्रभावित बिहार
के युवा व कामगार लोग हुए। बेरोज़गार भी हुए और परेशान भी। भारतीय इतिहास में इतना बड़ा पैदल आवागमन
1947 की विभाजन त्रासदी के बाद पहली बार देखा गया। बिहार इनमें देश का सबसे अधिक प्रभावित राज्य रहा।
कोरोना प्रबंधन में भी बिहार काफ़ी पीछे नज़र आया। सबसे बड़ी बात यह भी कि पिछले चुनाव में जनता ने नितीश
को जिस भरोसे के साथ भाजपा के विरोधी महागठबंधन का नेता चुना उन्होंने ठीक उसके विरुद्ध जाकर
महागठबंधन से नाता तोड़कर भाजपा से ही हाथ मिला लिया। और मतदाता इस 'पल्टीबाज़ी' को ठगे से होकर देखते
रह गए। आज बिहार के मतदाताओं की बारी है कि वह नितीश से उस 'राजनैतिक धर्म परिवर्तन' की वजह पूछ
सकें। महागठबंधन के साथ रहते हुए नितीश कुमार का क़द इतना ऊँचा हो गया था की इन्हें विपक्ष की ओर से
प्रधानमंत्री पद का दावेदार समझा जाने लगा था। परन्तु लोकतान्त्रिक जनशक्ति पार्टी के नेता चिराग़ पासवान ने
जिस तरह एक दूरगामी रणनीति के तहत नितीश कुमार के विरुद्ध चुनाव मैदान में उतरने का निर्णय लिया है इसे
देखकर राजनैतिक विश्लेषकों का तो यही मानना है कि यह सब कुछ बिहार की राजनीति से नितीश कुमारको
निपटाने की दिशा में उठाया जाने वाला एक 'अदृश्य क़दम' है। इसका नतीजा चुनाव परिणामों के बाद सामने
आएगा।
वैसे भी नितीश कुमार के विकास के जादू का असर भी अब कम होने लगा है। बिहार की सड़कों पर फिर वही गड्ढे
नज़र आने लगे हैं जो पहले कभी हुआ करते थे। नियमित बिजली सप्लाई भी अब बाधित हो चुकी है। भ्रष्टाचार का
ज़िक्र ही क्या करना, अभी पिछले दिनों कुछ ही दिनों के भीतर बिहार में दो नव निर्मित पुल बह गए। इनमें एक
पुल तो मुख्यमंत्री के उद्घाटन के साथ ही बह गया। इन हालात में गोदी मीडिया व इनके द्वारा कराए जाने वाले
सर्वेक्षणों का यह आंकलन पूरी तरह से सही नहीं प्रतीत होता कि राजग चुनाव में एकतरफ़ा जीत हासिल करने जा
रहा है। बिहार के मतदाता कम से कम इतने समझदार तो ज़रूर हैं कि वे इस बारे में सोच सकें कि आख़िर बिहार
विधान सभा चुनावों के वक़्त ही पाकिस्तान में पटाख़े फूटने,बिहार में आतंकियों के बसने और पाकिस्तान के
संस्थापक जिन्नाह की चर्चा क्यों होने लगती है?