विनय गुप्ता
जम्मू-कश्मीर में चीन की मदद से अनुच्छेद 370 की वापसी का शरारत भरा सपना देखने वाले नेशनल कांफ्रेंस के
नेता फारूक अब्दुल्ला किस तरह कलह की राजनीति करने पर आमादा हैं, इसका पता उनके साथ-साथ कुछ अन्य
कश्मीरी नेताओं की ओर से तथाकथित गुपकार घोषणा पत्र का बेसुरा राग अलापने से चलता है। नेशनल कांफ्रेस
और पीडीपी के अलावा तीन अन्य राजनीतिक दलों के हस्ताक्षर वाले इस घोषणा पत्र का उद्देश्य राज्य में पांच
अगस्त 2019 से पहले वाली स्थिति बहाल करना है। फारूक अब्दुल्ला जिस चीन से तमाम उम्मीदें पाले बैठे हैं,
उसी चीन ने अपने देश में हज़ारों मस्जिदों को खुलेआम तोड़ा। वह अपने देश के मुलसमानों पर जो जुल्म कर रहा
है, उसके बारे में किसी को बताने की जरूरत नहीं है। पर फारूक अब्दुल्ला या तो कुछ जानना नहीं चाहते या
जानकर भी चुप हैं। बहरहाल, कहना न होगा कि फारूक अब्दुल्ला की देश विरोधी बयानबाजी से भारत के शत्रुओ
को ताकत तो जरूर ही मिलती है। दोनों देशों के बीच लद्दाख की सीमा पर जो कुछ भी गुजरे महीनों में हुआ
उसके लिए चीन को तो कभी भी माफ तो नहीं किया जाएगा और न ही किया जाना चाहिए। अब चीन की भी
आंखें खुल गई हैं. भारत ने भी दोनों देशों के बीच की सरहद पर अपने लड़ाकू विमानों से लेकर दूसरे प्रलयकारी
अस्त्र भी पर्याप्त मात्रा में तैनात कर दिए हैं। अब चीन की किसी भी हरकत का कायदे से जवाब देने के लिए
भारतीय जल, थल और वायु सेनाएं तैयार है।
फारूक अब्दुल्ला फिलहाल श्रीनगर लोकसभा सीट से लोकसभा सांसद भी हैं. वह केंद्र सरकार के अनेकों वर्ष मंत्री भी
रहे हैं. सच पूछा जाए तो उन्होंने बहुत पहले ही समझदारी से बोलना लगभग बंद ही कर दिया है। कुछ साल पहले
ही फारुक अब्दुल्ला ने चेनाब घाटी में एक कार्यक्रम के दौरान पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर पर भारत के दावे को
लेकर कह डाला था कि 'क्या यह तुम्हारे बाप का है'? उन्होंने आगे और कहा, 'पीओके भारत की बपौती नहीं है
जिसे वह हासिल कर ले'। अब्दुल्ला ने पाकिस्तान के साथ सुर में सुर मिलाते हुए कहा था 'नरेंद्र मोदी सरकार
पाकिस्तान के कब्जे से पीओके को लेकर तो दिखाए.' मतलब यह कि फारूक अब्दुल्ला के मुताबिक पीओके हासिल
करना भारत के लिए नामुमकिन ही है। यह तो भारत में रहकर भारत को सीधे धमकी देना नहीं तो क्या है ? हाल
में संसद ने एक प्रस्ताव ध्वनिमत से पारित करके पीओके पर अपना पूरा हक जताते हुए कहा था कि पीओके
सहित सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का अटूट अंग है। 'पाकिस्तान को उस भाग को छोड़ना ही होगा जिस पर उसने
कब्जा जमाया हुआ है।'क्या फारूक अब्दुल्ला संसद के एक सम्मानित सदस्य होने के नाते उस प्रस्ताव को खारिज
करते है? उनके सार्वजनिक बयान का तो यही मतलब है।
क्या जम्मू-कश्मीर के मसले पर जो देश की नीति है, उससे हटकर भी आपकी कोई नीति या सोच हो सकती है?
अगर है तो उसे भी बताकर देश को अनुगृहीत कर दें. फारूक अब्दुल्ला कश्मीर में भारतीय सैनिकों पर पत्थर फेंकने
वालों के समर्थन में भी खुलकर सामने आ चुके हैं. उन्होंने पत्थरबाजों का समर्थन किया है. अब जरा सोच लें कि वे
कितने गैर-जिम्मेदार हो गए हैं? फारूक अब्दुल्ला ने कहा था अगर कुछ नौजवान सीआरपीएफ के जवानों पर
पत्थर मार रहे हैं तो कुछ सरकार द्वारा प्रायोजित भी हैं. मतलब यह कि उन्हें विवादास्पद बयान देना ही सदा
पसंद हैं। यह ठीक है कि भारत ने चीन को दो टूक जवाब दे दिया और देता रहेगा लेकिन इसी के साथ फारूक
अब्दुल्ला जैसे नेताओं को भी जवाब देने की जरूरत है, जो जिस थाली में खाते हैं उसमें ही छेद करने वाली
कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं। वह अपनी हरकत से देश के प्रति अपनी निष्ठा को खुद ही संदेह के दायरे में लाने
का काम कर रहे हैं। कुछ इसी तरह का रवैया पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती का भी है। यह आवश्यक ही नहीं,
अनिवार्य है कि कश्मीर की जनता तक यह संदेश पहुंचाने में देर न की जाए कि फारूक अब्दुल्ला और महबूबा
मुफ्ती जैसे उन्हें लूटने वाले नेता उनके हितों को फिर से दांव पर लगाने का काम कर रहे हैं।