-प्रभुनाथ शुक्ल-सर्वोच्च अदाल यानी सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश की बदहाल और खस्ताहाल प्राइमरी शिक्षा पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। जनहित याचिका पर सुनावाई करते हुए सोमवार को अदालत ने अखिलेश सरकार को खरीखोटी सुनाई और राज्य के सचिव को विकलांग हो चुकी व्यवस्था में सुधार के लिए चार सप्ताह यानी 30 दिन का वक्त दिया है। लेकिन सवाल है कि क्या अदालत की फटकार और लताड़ से प्रदेश की शिक्षा व्यस्था सुधर जाएगी। फिलहाल बदलाव की कोई उम्मीद नहीं दिखती है। सुप्रीम कोर्ट और उच्च अदालतें समय-समय पर जनहित से जुड़े फैसले सुना चुकी हैं लेकिन जमीनी हकीकत में वह फलीभूत होता नहीं दिखता है। जिसका नतीजा है सरकारों और अदालतों के बीच तल्खी का फासला बढ़ता जा रहा है। इसकी वजह है कि अक्सर स्कूलों की शिक्षा और सेहत के सुधार के लिए जो भी योजनाएं लागू की जाती हैं दरअसल वह व्यवहारिक और सैद्धांतिक रुप से कमजोर होती हैं। इनमें चुनावी छौंका अधिक होता है। प्रदेश में फल और दूध वितरण योजना पूरी तरह चुनावी है। प्रदेश में पर्याप्त दूध उपलब्ध नहीं है केवल कृत्रिम दूध बच्चों को बांटे जाते हैं। बच्चों की पौष्टिकता बढ़ाने के लिए देश लागू दोपहरी भोजन और दूसरी योजनाएं बेमतलब साबित हो रही हैं। ग्राम पंचायतों को इसकी जिम्मेदारी दी गई है लेकिन वे अधिक से अधिक बचत करने में लगी हैं। कम बच्चों के होने के बाद अधिक उपस्थिति दिखायी जाती है।
प्रदेश में शिक्षकों की भारी कमी है। हालांकि सरकार ने सवा दो लाख से अधिक शिक्षकों की नियुक्ति की है लेकिन 20 हजार बेसिक स्कूल सिर्फ एक शिक्षकों के भरोसे चल रहे हैं जबकि शहरी क्षेत्रों यह अनुपात आठ है। प्रदेश में 1 लाख 58 हजार से अधिक प्राथमिक स्कूल हैं। शिक्षामित्रों का मामला भी अभी सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। अदालत की टिप्पणी पर कोई सवाल नहीं उठाए जा सकते हैं। प्राइमरी स्कूल की नौकरी आज सबसे आरामगाह साबित हो रही है। शिक्षक और शिक्षिकाएं खैरात में मोटी तनख्वाह ले रहे हैं। शिक्षा के सुधार के लिए इतने बजट उपलब्ध कराए जा रहें जिसका नतीजा है करप्शन और कमीशनखोरी बढ़ रही है। प्रदेश के हालात ऐसे भी हैं कि ग्रामीणांचलों में नियुक्ति तमाम शिक्षक और शिक्षिकांए स्कूल आते ही नहीं केवल विभागीय अफसरों और बाबूओं की मिली भगत से तनख्वाह ले रहे हैं। सरकार अगर इसकी जांच कराए तो बड़ा खुलासा होगा। प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता और सुधार के लिए गांव-गांव में स्कूल खुल रहे हैं। स्कूलों में निःशुल्क किताबें और यूनिमार्फाम वितरित करवाए जाते हैं। गरीब बच्चों को छात्रवृत्ति दी जाती है। लेकिन शिक्षा व्यवस्था पर इसका कोई असर नहीं दिखता। राज्य के 40 जिलों में छात्रों की संख्या घटी है। जबकि यह 86 फीसदी से कम नहीं होनी चाहिए। तमाम कवायदों के बाद भी सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या लगातार घट रही है। हालात यहां तक हैं कि सरकारी सुविधाओं का लाभ यानी स्कारशिप लेने के लिए छात्रों का नामांकन दो-दो स्थानों पर कराया गया है। वहीं बच्चा निजी कांवेंट और प्राइमरी स्कूल का भी छात्र है। प्राथमिक और पूर्व माध्यमिक स्कूलों में युवा शिक्षकों एक पूरी पीढ़ी है लेकिन गुणवत्ता पर उसका असर नहीं दिखता।
देश भर में शिक्षा गारंटी योजना लागू है। जिसमें 06 से 14 साल के बालक और बालिकाओं के लिए निःशुल्क शिक्षा का प्राविधान है। बिना किसी सामाजिक भेदभाव के सबको समान शिक्षा दिलाने पर बल दिया गया है लेकिन जमींन पर ऐसा कुछ नहीं दिखता नहीं है। शिक्षा की गुणावत्ता का स्तर दिन पर दिन गिरता जा रहा है। पढ़ने वाले बच्चों को 100 तक की गिनती पीएम एवं सीएम का नाम तक नहीं मालूम है। शौचालय, पानी, और बिजली की सुविधा उपलब्ध न होने से छात्राएं बीच में ही स्कूल छोड़ देती हैं। शिक्षा सत्र में भी बदलाव किया गया है। जुलाई के बजाय अब अप्रैल से नया सत्र शुरु हो जाता है। इस दौरान प्राथमिक स्कूलों में अधिक दाखिले के लिए स्कूल चलो अभियान चलाया जाता है। स्कूली बच्चे रैली निकालते हैं और शिक्षा विभाग अखबारों में बड़ी-बड़ी रैली की खबरें और तस्वीरें प्रकाशित करवाई जाती हैं। लेकिन आज भी प्रदेश में देश में 61 लाख जबकि प्रदेश में 16 लाख से अधिक बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं। शिक्षा सुधार के लिए इलाबाद उच्च न्यायलय ने एक फैसला सुनाया था जिमसें राजनेताओं, अफसरों और समाज के संभ्रांत परिवारों के बच्चों को प्राइमरी स्कूलों भेजने की बात कहीं गई थी सरकार के शिक्षामंत्री ने भी इस कदम को अच्छा बताते हुए कदम उठाया था लेकिन वह जमीन पर कहीं नहीं दिखती है। यहां सिर्फ सामाजिक और आर्थिक रुप से कमजोर तबकों के बच्चे ही शिक्षाग्रहण करते हैं। प्रदेश में 1.98 लाख प्राथमिक और पूर्व माध्यमिक विद्यालय हैं। जिसमें तकरीबन 1.96 करोड़ बच्चे पढ़ते हैं। प्रदेश में एक लाख 12 हजार से अधिक आंगनबाड़ी केंद्र संचालित हैं जिसमें 80 हजार से अधिक सेंटरों को प्राथमिक स्कूल से अटैच किया गया हैं। चालू सत्र में खैरात में किताबें बांटने के लिए 250 करोड़ का बजट आवंटित किया गया था लेकिन आधा सत्र बीतने के बाद अभी तक पूरी किताबें नहीं बंट पायी। हालांकि गिरते शिक्षा के स्तर से सरकार भी अनजान नहीं है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव शिक्षा की जमींनी पड़ताल के लिए 15 जुलाई 1016 श्रवस्ती जिले में अपने भ्रमण के दौरान अचानक एक प्राथमिक स्कूल में धमक पड़े। वहां की सच्चाई जान बेहद दुःखी हुए। उन्होंने एक-एक कर 11 बच्चों से हिंदी का एक पाठ पढ़वाया लेकिन एक बच्ची को छोड़ कोई्र नहीं पढ़ पाया। जिस पर नाराज मुख्यमंत्री ने कहा था कि हर साल 20 हजार करोड़ प्राथमिक शिक्षा पर खर्च होता है और आलम यह है कि बच्चे हिंदी तक नहीं पढ़ पाते। उन्होंने यहां तक कहा कि यूपी में प्राथमिक शिक्षा गहरे अंधकार में है, शिक्षक आने वाली नस्लों को बर्बाद कर रहे हैं। यह पीड़ा किसी आम आदमी की नहीं प्रदेश के मुख्यमंत्री की है।
जरा सोचिए फिर लकवाग्रस्त प्राथमिक शिक्षा में कैसे सुधार आएगा। गुरुकुल जैसी व्यवस्था पर सवाल खड़े हो गए हैं। गुरु संदीपन की पाठशालाय अब आरामशालाओं में तब्दील हो चली हैं। अदालत के आदेश और आलोचना भर से स्थिति नहीं सुधरने वाली है। पूरी शिक्षा व्यवस्था में जंग लग गया है। स्थिति बेहद दुरुह है । वक्त रहते अगर उचित कदम नहीं उठाए गए तो प्रदेश को इसका खामियाजा भुगतना होगा।