सवाल सिर्फ एमएसपी का

asiakhabar.com | September 30, 2020 | 5:37 pm IST

शिशिर गुप्ता

करीब 250 किसान संगठन सड़कों पर हैं। कुछ राजनीतिक दलों को भी हुड़दंग करने की आड़ मिल गई है।
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने संसद में पारित बिलों पर हस्ताक्षर कर अपनी मंज़ूरी दे दी है, लिहाजा अब कानून से
बचने का एकमात्र रास्ता सर्वोच्च न्यायालय ही है। किसान उग्र और आंदोलित हैं और किसी भी तरह केंद्र सरकार

को झुकाने पर आमादा हैं। अब आंदोलन सिर्फ पंजाब, हरियाणा और उप्र तक ही सीमित नहीं रह गया है, बल्कि
कर्नाटक, ओडिशा, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु आदि राज्यों के सैकड़ों गांवों में भी किसान के गुस्से ने कोहराम मचा
रखा है। किसान रेलवे टै्रक पर बैठे हैं, वहीं तंबू तान लिए गए हैं और घोषणा के मुताबिक ‘रेल रोको आंदोलन’
गांधी जयंती दो अक्तूबर तक जारी रहेगा। किसान संघर्षजीवी तो है, लेकिन हिंसक नहीं हो सकता, लिहाजा
राजधानी दिल्ली के ‘इंडिया गेट’ पर जिस तरह टै्रक्टर फूंका गया, हम उसे ‘किसान आंदोलन’ का हिस्सा नहीं
मानते। ऐसे प्रदर्शन आंदोलन की आड़ में फर्जी हैं, क्योंकि इससे कुछ भी हासिल नहीं होगा। किसान की एक ही
बुनियादी मांग है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को ‘कानूनी अधिकार’ घोषित किया जाए। उसके बाद
फसल आढ़ती खरीदें या कॉरपोरेट घराने खरीदें, किसान की फसल की कीमत सुनिश्चित हो सके और किसान
आर्थिक तौर पर ज्यादा सुरक्षित हो सके। प्रधानमंत्री मोदी ने 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने का वायदा
और संकल्प किया था, लेकिन अभी तक उसका कोई सरकारी रोडमैप सार्वजनिक नहीं किया गया है। किसानों की
शिकायत रही है कि हाल ही में उन्होंने मक्के की फसल आधे एमएसपी से भी कम दामों पर बेची है, क्योंकि
मंडियों और बाजार की रणनीतियां ही किसान-विरोधी रही हैं। अधिकतर किसान संगठन ऐलान कर चुके हैं कि यदि
सरकार एमएसपी को ‘कानूनी अधिकार’ घोषित करती है, तो आंदोलन वापस लिया जा सकता है।
आंदोलित किसान संगठन चाहते हैं कि एमएसपी का दर्जा भी वही हो, जो खाद्य सुरक्षा कानून के तहत खाद्यान्न,
मनरेगा में काम और बच्चों की एक खास उम्र तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के अधिकारों का है। यानी किसान
एमएसपी को ‘पात्रता के अधिकार’ के तौर पर और सरकारी तंत्र का संरक्षण चाहता है। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी और
कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने देश भर के किसानों को, संसद के जरिए, आश्वस्त किया है कि एमएसपी पर सरकारी
खरीद और एपीएमसी मंडियों की व्यवस्था बरकरार रहेगी। किसानों को भरोसा दिलाने के मद्देनजर सरकार ने 21
सितंबर को ही रबी फसलों के एमएसपी घोषित कर दिए थे, हालांकि ऐसी कार्रवाई 23 अक्तूबर के आसपास होती
रही है। यही नहीं, धान की सरकारी खरीद भी तय तारीख से पहले ही शुरू कर दी गई है। इसके बावजूद किसानों
की चिंता है कि यदि उसकी कुसुम, रामतिल या रागी फसलों के दाम, आंतरिक इलाकों की मंडियों में ही, एमएसपी
से कम दिए जाते हैं, तो वे क्या करेंगे और सरकार भी क्या कर लेगी? क्योंकि नए कृषि कानूनों में सिविल कोर्ट
के प्रावधान ही नहीं किए गए हैं। अंततः एसडीएम और कलेक्टर या उसके अधिकृत किसी अधिकारी को ही
‘न्यायाधिपति’ माना गया है। किसान या किसी भी नागरिक का अदालत तक न पहुंच पाना, दरअसल, मौलिक
अधिकार का ही उल्लंघन है। क्या ऐसे सरकारी नौकरशाह किसान-हित की भाषा बोल सकते हैं या उनके पक्ष में
कोई निर्णय, सरकार के खिलाफ, दे सकते हैं?
फिलहाल सरकार खामोश है, लेकिन विपक्ष के तौर पर कांग्रेस बेहद आक्रामक मुद्रा में आ गई है। पंजाब के
मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने शहीद भगतसिंह के गांव जाकर प्रतीकात्मक धरना दिया। केरल के कांग्रेस सांसद
टीएन प्रतापन ने इस कानून को सर्वोच्च अदालत में चुनौती दी है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपनी राज्य
सरकारों को हिदायत दी है कि वे अनुच्छेद 254 (2) के तहत समानांतर बिल पारित करने पर विचार करें, ताकि
केंद्रीय कानून को नकारा जा सके। संविधान में ऐसी व्यवस्था भी है। संविधान सभा में खूब विमर्श हुआ था कि
कृषि को केंद्रीय या राज्यों की सूची में रखा जाए। अंततः कृषि को राज्य का मामला तय किया गया। तो संसद से
बिल पारित करा केंद्र सरकार ने संविधान का अतिक्रमण किया है क्या? यह नया सवाल उठ खड़ा हुआ है। यदि

प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार किसानों की आय में बढ़ोतरी करने की वाकई पक्षधर है, तो बेशक एमएसपी
पर पुनर्विचार करना होगा।


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