उदारवादी बुद्धिजीवी औऱ विदेशी मीडिया का बेनकाब याराना..

asiakhabar.com | September 30, 2020 | 5:36 pm IST

अर्पित गुप्ता

भारत में बेनकाब हो चुके सेक्युलरिस्ट उदारवादियों का विदेशी नेक्सस(याराना)वैश्विक जगत में भी सबको नजर
आने लगा है। टाइम पत्रिका के ताजा अंक में विश्व की 100 ताकतवर शख्सियत के साथ हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी को जगह देना और साथ में शाहीन बाग धरने पर बैठी एक 82 बर्षीय महिला को इस सूची में शामिल किया
जाना बहुत कुछ स्पष्ट कर रहा है। वैसे भी अमेरिका और पश्चिमी मीडिया के लिए भारत के हिन्दू तत्व औऱ दर्शन
सदैव उसी अनुपात में हिकारत भरे रहे है जैसा कि भारत के सेक्युलरिस्ट इंटलेक्चुअल (वाम बुद्धिजीवियों का बड़ा
वर्ग) प्रस्तुत करता आया है। टाइम की सूची में यूं तो जिनपिंग, ट्रम्प, मर्केल सहित अन्य राष्ट्रों के प्रमुख भी
शामिल है लेकिन जिस वैशिष्ट्य के साथ हमारे प्रधानमंत्री को छापा गया है उससे दो बातें स्पष्ट होती है-प्रथम यह
कि मोदी के बगैर विदेशी मीडिया का भी गुजारा नही होता है दूसरा भारत को समझने और रिपोर्टिंग के लिए
वामपंथी ही उनके पास अकेले स्रोत है।
"टाइम" ही नही बीबीसी, दी इकोनॉमिस्ट, न्यूयार्क टाइम्स, वाल स्ट्रीट जनरल, वाशिंगटन पोस्ट, गल्फ न्यूज,
एफ़वी, डीपीए, रॉयटर्स, एपी, गार्डियन, जैसे बड़े मीडिया हाउस का भारतीय एजेंडा देश के उन्ही बुद्विजीवियों
द्वारा निर्धारित औऱ प्रसारित होता है जिनकी पहचान पिछले कुछ बर्षों में टुकड़े टुकड़े, अवार्ड वापिसी और अफजल
प्रेमी के रूप में सार्वजनिक हो चुकी है। मई 2014 के बाद से सरकारी धन औऱ स्वाभाविक शासक दल की
सुविधाओं पर टिके रहने वाला यह बड़ा बौद्धिक गिरोह भारतीय लोकतंत्र और संसदीय व्यवस्था के प्रति लोगों को
भड़काने में भी जुटा हुआ है। सुविधाओ से सराबोर लुटियंस से बेदखली ने इस गिरोह को इतना परेशान कर दिया है
कि आज भारत के विरुद्ध खड़े होने में भी इन्हें संकोच नही है। वस्तुतः हिंदुत्व औऱ बाद में नरेंद्र मोदी के विरुद्ध
सामरिक दुश्मन की तर्ज पर एक से लंबा प्रायोजित अभियान चलाने के बाबजूद जनता द्वारा मोदी को राज दिए
जाने के संसदीय घटनाक्रम ने इस वर्ग की कमर ही तोड़ दी है। 2014 के बाद 2019 की मोदी की ऐतिहासिक
जीत तो किसी पक्षाघात से कम नही है।

ध्यान से देखा जाए तो भारतीय उदारवादियों ने बेशर्मी की सीमा को लांघकर दुनियां में भारत और हिंदुत्व को
लांछित करने में कोई कसर नही छोड़ी है। हिन्दू नेशनलिस्ट, हिन्दू तालिबान, हिन्दू रेडिकल, हिन्दू मर्डरर जैसी
शब्दावलियों को सर्वप्रथम किसी विदेशी मीडिया ने नही बल्कि भारतीय वाम बुद्धिजीवियों ने ईजाद किया है। टाइम
पत्रिका ने प्रधानमंत्री मोदी को लेकर 2012, 2015, 2019 में भी स्टोरी प्रकाशित की है और सबकी इबारत में
हिन्दू शब्द अवश्य आया है। बीजेपी के लिए हिन्दू राष्ट्रवादी विशेषण लगाया जाता है। मानों हिन्दू औऱ हिंदुत्व कोई
नाजिज्म का स्रोत हो। ताजा अंक में पत्रिका के संपादक कार्ल विक लिखते है-"लोकतंत्र के लिए निष्पक्ष चुनाव होना
ही पर्याप्त नही है क्योंकि इससे केवल यही मालूम पड़ता है कि किसे अधिक वोट मिले हैं। भारत की 130 करोड़
आबादी में ईसाई, मुस्लिम, सिख, जैन, बौद्ध, लोग रहते है, 80 प्रतिशत हिन्दू है, अब तक सभी प्रधानमंत्री
हिन्दू ही हुए। मोदी। ऐसे शासन कर रहे है जैसे औऱ कोई उनके लिए महत्व ही नही रखता। मुसलमान मोदी की
हिन्दू राष्ट्रवादी पार्टी के निशाने पर है"
पत्रिका आगे लिखती है
"नरेंद्र मोदी सशक्तीकरण के वादे के साथ सत्ता में आये। उनकी हिन्दू राष्ट्रवादी भाजपा ने ना केवल उत्कृष्टता को
बल्कि बहुलतावाद विशेषकर भारत के मुसलमानों को पूरी तरह खारिज कर दिया है। दुनियां का सबसे जीवित
लोकतंत्र अंधेरे में घिर गया है।" सवाल यह है कि दुनियां की सबसे बड़ी निर्वाचन प्रक्रिया से दो बार चुनकर आये
मोदी को निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया के बाद भी खारिज किया जाएगा? लोकतंत्र का झंडा लेकर घूमने वाले अमेरिकी
मीडिया के लिए भारत में निष्पक्ष चुनाव की स्वीकार्यता कोई महत्व नही रखती है? क्या यह निष्कर्ष हमारे संसदीय
लोकतंत्र की विश्वसनीयता पर ठीक वैसा ही आक्षेप नही है जो टुकड़े औऱ अवार्ड वापसी गैंग पिछले 6 बर्षों से
स्थानीय विमर्श में लगाते आ रहे है। कभी ईवीएम, कभी वोट परसेंट, कभी चुनावी मुद्दों की विकृत व्याख्या औऱ
हिन्दू धुर्वीकरण जैसे कुतर्कों को खड़ा करके मोदी सरकार की स्वीकार्यता पर ही प्रश्नचिह्न यहां भी लगाये जाते है।
क्या देश के सभी प्रधानमंत्रियों का हिन्दू होना भारत में अपराध है। क्या डेमोक्रेट, रिपब्लिकन, लेबर, कंजरवेटिव
पार्टियां ईसाई अस्मिता के धरातल पर नही खड़ी है? केवल बीजेपी को हिन्दू राष्ट्रवादी विशेषण लगाया जाना
कुत्सित मानसिकता को प्रमाणित नही करता है?
क्या अमेरिका, इंग्लैंड या यूरोप में गैर ईसाई राष्ट्राध्यक्ष बनते रहे है? चेक रिपब्लिक औऱ फ्रांस को छोड़ कितने
देशों ने खुद को धर्मनिरपेक्ष घोषित कर रखा है। इसलिए बुनियादी सवाल यही है कि क्यों भारत के सिर पर
सेक्यूलरिज्म को थोपकर इसकी सुविधाजनक व्याख्या के आधार पर हमारे चुने गए प्रधानमंत्री को लांछित किया
जाए। इससे भी बड़ा सवाल यह है कि विदेशी मीडिया के पास क्या कोई अध्ययन और शोध मौजूद है जो यह
प्रमाणित करता हो कि मोदी और बीजेपी मुसलमानों को निशाने पर ले रहे है?सबका साथ, सबका विकास, सबका
विश्वास मोदी सरकार का दर्शन रहा है। सरकार की फ्लैगशिप स्कीमों में प्रधानमंत्री आवास, उज्ज्वला, जनधन, हर
घर शौचालय, सुकन्या, किसान सम्मान निधि, खाद्य सुरक्षा, मुद्रा में किसी हितग्राही को केवल मुसलमान होने
पर बाहर किया गया हो ऐसा कोई भी उदाहरण आज तक सामने नही आया है। शैम्पेन के शुरुर औऱ सिगार के
छल्लो में बैठकर बनाई गईं प्रायोजित खबरें अक्सर तथ्य की जगह कथ्य का प्रतिबिम्ब होती है। भारतीय
बुद्धिजीवियों ने इसी विधा से 60 साल तक शैक्षणिक, सांस्कृतिक, मीडिया संस्थानों पर राज किया है। मोदी और
नया भारत इस अभिजन बौद्धिक विलास को खारिज कर चुका है इसलिए झूठी औऱ मनगढ़ंत प्रस्थापनाओं का
अंतिम दौर आज अपने अस्तित्व को बचाने के लिए उठ खड़ा हुआ है। टाइम औऱ दूसरे विदेशी मीडिया संस्थानों को

शायद पता ही नही की जिन बेपर्दा चेहरों के जरिये वे भारत को दुनिया के सामने प्रस्तुत करते है उनका
राजनीतिक और सामाजिक पिंडदान तो यहां पहले ही हो चुका है।
टाइम ने दुनियां के 100 ताकतवर शख्सियत में शाहीन बाग की 82 बर्षीय दादी बिलकिस बानो को जगह दी है।
इसकी इबारत लिखाई गई है-राणा अयूब से। जी हां वही राणा अयूब जो सार्वजनिक तौर पर मोदी अमित शाह के
विरुद्ध झूठ का प्रोपेगंडा चलाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में बेपर्दा हो चुकीं है। "गुजरात फाइल्स "-एनाटॉमी ऑफ ए
कवरअप 'कूटरचना में इन्ही राणा अयूब ने हरेन पांड्या की हत्या की मनगढ़ंत कहानियां गढ़ी औऱ फिर एक जेबी
एनजीओ से सुप्रीम कोर्ट में नए सिरे से जांच के लिए जनहित याचिका दायर कराई। सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात फाइल्स
को फर्जी, मनगढ़ंत, काल्पनिक बताकर खारिज कर दिया। दिल्ली दंगो के दौरान दो साल पुराना कोई वीडियो ट्वीट
कर नफरत फैलाने के मामले में भी इन मोहतरमा का दामन दागदार रहा है। खुद को निष्पक्ष औऱ अंतरराष्ट्रीय
स्तर का दावा करने वाली पत्रिका का बिलकिस को 100 ताकतवर शख्सियत में रखा जाना और राणा अयूब से ही
उसके बारे में लिखवाना टुकड़े टुकड़े गैंग औऱ पश्चिमी मीडिया के गठबन्धन को भी प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त
है। सभी जानते है कि शाहीन बाग का धरना अवैध था उस धरने में भारत के विरुद्ध षडयंत्र रचे गए।
शरजील इमाम, उमर खालिद जैसे छात्र नेताओं ने भारत के चिकिन नेक काटने, ट्रम्प के दौरे पर अराजकता
फैलाने से लेकर दिल्ली दंगों तक की पृष्ठभूमि तैयार की। अब तो सलमान खुर्शीद, योगेंद्र यादव जैसे लोगों के नाम
भी दिल्ली दंगों को लेकर दिल्ली पुलिस की चार्जशीट में सामने आ रहे है। नागरिकता संशोधन कानून का सबन्ध
भारत के किसी मुसलमान से नही हैं यह सर्वविदित तथ्य है एनआरसी का प्रारूप तब औऱ आज भी सामने नही
था, लेकिन देश भर में झूठ और नफरत फैला कर मोदी अमित शाह के साथ भारत को बदनाम किया गया। इसी
नकली औऱ प्रायोजित धरना प्रदर्शन की आइकॉन के रूप में राणा अयूब के जरिये टाइम ने बिलकिस को मोदी के
समानन्तर जगह देकर अपनी चालाकी औऱ शातिरपन को खुद ही प्रमाणित कर दिया। राणा के हवाले से बिलकिस
को लेकर लिखा गया है कि "वो ऐसे देश में प्रतिरोध का प्रतीक बन गईं जहाँ मोदी शासन बहुमत की राजनीति
द्वारा महिलाओं और अल्पसंख्यक की आवाज को बाहर कर रही है"सवाल यह है कि तीन तलाक के नारकीय दंश
से मुक्ति दिलाने वाले मोदी राज में महिलाओं औऱ अल्पसंख्यक के उत्पीडन का प्रमाणिक साक्ष्य किसी के पास
उपलब्ध है?सिवाय अतिरंजित मोब लिंचिंग घटनाओं के जो 130 करोड़ के देश में स्थानीय कानून की न्यूनता का
नतीजा होती है जो अखलाख के साथ पालपुर में भी घटित होती है लेकिन शोर केवल अल्पसंख्यक औऱ उसमें भी
मुसलमानों को लेकर खड़ा किया जाता है। समझा जा सकता है कि टाइम में राणा अयूब, स्वाति चतुर्वेदी को ही
जगह क्यों मिलती है…!


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