क्यों है बिहार राष्ट्रीय राजनीति का संकेतक

asiakhabar.com | September 29, 2020 | 5:04 pm IST

संयोग गुप्ता

भारतीय राजनीति में लंबे अर्से से,बल्कि कहें कि स्वतंत्रता के बादसे यह कहा जा रहा है कि दिल्ली दरबार का
रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर निकलता है. लेकिन यह भी सच है कि भारत की राजनीति की तासीर का असल
थर्मामीटर बिहार ही है. भले ही कुछ बरस पहले विभाजन के बाद बिहार से टूटकर झारखण्ड अस्तित्व में आ गया
हो लेकिन देश की राजनीति का रुख अभी भी बिहार के मिजाज सेपरखा जाता है. इसके पीछे वजहें बताने वालों के
अपने-अपने तर्क हो सकते हैं. लेकिन हकीकत यही है कि बिहार की माटी की ताकत अपने मेहनत के दम पर ही
पूरे देश में अपना प्रभाव और अधिकार रखती है जिससे शायद ही कोई इंकार कर पाए. बस इसीलिए भारत की
राजनीति में बिहार के महत्व को कभी कमतर नहीं आका जा सकता. देश ही नहीं दुनिया में बिहार की मौजूदगी
सहजता से दिख जाती है. यह बिहारियों की जीवटता, कर्मठता और मेहनत ही है जो वह देश तो छोड़िए दुनिया में
कहीं भी अपनी मेहनत के दम पर जगह बना लेता है. इसी वजह से भारत के हर कोने में बिहार के निवासी अपनी
एक अलग पहचान और मुकाम बनाए हुए हैं. कम से कम निर्माण के क्षेत्र में जो खास दबदबा बिहार के
राजमिस्त्रियों और कारीगरों का है वह दूसरों को हासिल नहीं है. देश की सबसे प्रतिष्ठित सिविल सर्विसेज हो
इंजीनियरिंग, माइनिंग या कॉर्पोरेट क्षेत्र हों बिहार की धाक देखते ही बनती है. कहने का मतलब यह कि भारत के
हर कोने में बड़े से लेकर छोटे गाँव तक में बिहार के लोगों की मौजूदगी देश मेंराजनीतिकसंवाहक भी बनती है. यह
सच है कि बिहारियों का चाहे जिस भी ओहदे में रहेंअपनी माटी से लगाव और जुड़ाव जीवन्त रहता है और जहाँ हैं
वहाँ भी असर डालता है.
इसका उदाहरण मैने बचपन से मप्र में अपने नगर में देखा है. जहाँ साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स का धनपुरी स्थित
कोयला क्षेत्र है तो महज चंद फर्लांग दूर कभी एशिया का सबसे बड़ा कहलाने वाला अमलाई का कागज कारखाना.
अमलाई में तो एक समय90 प्रतिशत से ज्यादा कामगार बिहार प्रान्त के रहे हैं जो अभी भी 50 प्रतिशत से ज्यादा
हैं. इसी तरह कोयलांचल धनपुरी में भी पूर्वांचल के लोगों का काफी दबदबा था और है. मुझे याद है कि आज से
तीन-चार दशक पहले चुनावों के वक्त हर दल के नेताओं का जमावड़ा बजाएपूरे चुनाव क्षेत्र के, इन्हीं कामगारों के
कैम्पों, कॉलोनियों में हुआ करता था. तब न तो संचार के इतने तेज साधन थे और फोन लगना भी बड़ी दूर की
बात होती थी. उन दिनों हर किसी को बस डाकिये का इंतजार रहता था. सब एक दूसरे से पूछते थे कि देश से कोई
चिट्ठी आई!चिट्ठी यानी उसमें संदेश होता था कि होने जा रहे चुनाव में बिहार और पूर्वांचल का मिजाज क्या है?

बस सैकड़ों मील दूर मौजूद यह तबके प्रवासी राजनीति की फिजा बदल देते थे और पूरे चुनावी क्षेत्र में एक नया
माहौल देखते ही देखते बन जाता था. स्थानीय स्तर पर की गई सारी की सारी मेहनत धरी रह जाती थी और यह
जहाँ भी रहते हवा का रुख बदल देते. इसीलिए चुनावों के दौरान, बजाए चुनावी तैयारियों के हर कहीं बस यही चर्चा
होती थी कि बिहारियों और गोरखपुरियों के कैम्प में चिट्ठी आने दो. देखते ही देखते नई हवा चल पड़ती जिसका
असर भी होता. इन्हीं के दम पर मैने देखा है विन्ध्य की राजनीति के पुरोधाओं में से एक मप्र के दबंग समाजवादी
नेता व गुजरात के राज्यपाल रहे स्व. कृष्णपाल सिंह किस तरह बेफिक्र रहते थे. चूंकि मैं उनका करीबी था इसलिए
उनकी रणनीति और राजनीति को जानता, समझता था. यूँ तो उन दिनों उनका चुनाव क्षेत्र काफी विस्तृत था
लेकिन ज्यादा फोकस बजाए स्थानीय गाँवों व कस्बों के वो कोयलांचल और कागज कारखाने वाले क्षेत्रों में करते थे
जो नतीजे को एकतरफा बदलने वाला होता था. चुनावी रणनीति में उनका यह कॉन्फीडेंस और तरीका ही था जो वह
अक्सर विरोधियों को शिकस्त दे देते थे जिसके पीछे उन्हें बिहार और पूर्वांचल से मिलने वाला समर्थन और वहाँ से
उनके समर्थन में आने वाली कथित चिट्ठी होती थी. तभी जब मतदान पेटियाँ खुलती थीं तो 60 प्रतिशत क्षेत्र में
उनकी जीत-हार का अंतर बहुत कम और धड़कनें बढ़ाने वाला होता था लेकिन वह आश्वस्त रहते थे और कहते थे
कि आखिर में धनपुरी और अमलाई की पेटियाँ तो खुलने दो. होता भी यही था एकमुश्त उनके पक्ष में पड़े वोट
उनकी धाकदार जीत दर्ज कराती थी.
धीरे-धीरे बिहार में क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व जरूर बढ़ता गया और राष्ट्रीय स्तर की पार्टियाँ दूसरे दर्जे की होती
गईं. लेकिन देश की राजनीति में भाजपा या काँग्रेस का दूसरी जगहों पर फैसला भी इसी में छुपे संदेशों से होता
रहा. इसको भी मैने 2014 के आम चुनावों से पहले महसूस किया. तब मैं करीब एक पखवाड़े गोवा में था. वहाँ मैं
पणजी सहित आसपास के वहाँ के दूर दराज ग्रामीण इलाकों में भी गया था. वहाँ भी मुझे चाहे क्रूज पर हों या बीच
पर, होटल-रेस्टॉरेन्ट हों फिर टैक्सी हर जगह बिहार के लोग मिल ही जाते थे. वहाँ भी अपने इलाके जैसी लजीज
चाट, पकौड़े और चाय का स्वाद इन्हीं की सड़क किनारे खासकर मीरा मार बीच के पास की दूकानों पर ही मिलता
था. मुझे भी थोड़ी बहुत पूर्वांचल की बोली आती है तो मैने गोवा में भी जहाँ भी यह मिलते राजनीति की बात जरूर
करता. तभी मुझे चुनावों से काफी पहले समझ आ गया था कि 2014 में किस तरह की मोदी लहर चलने वाली
है. हुआ भी वही. इतना सब लिखने का मतलब बस यही कि भारत की राजनीति में दक्षिण से ज्याद उत्तर उसमें भी
पूर्वांचल उसमें भी खास बिहार की खनक से इंकार नहीं किया जा सकता.
अब सारे देश की निगाहें इसी बिहार पर चुनावों की घोषणा होते ही आ टिकी हैं. कोई माने या माने लेकिन यही
बड़ा सच है कि बिहार की राजनीति भले ही गठबंधन में उलझ क्षेत्रीय दलों तक सीमित दिखती हो लेकिन
उसकाअसर पूरे देश में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के भविष्य को बड़ा संकेत भी देने वाली है. वैसे भी बिहार
के चुनाव राजनीति में बदलाव के संकेतक होते हैं. इस बार वहाँ पर दो बड़े राजनीतिज्ञ या तो पूरी तरह से गायब हैं
या फिर कमान अपनी संतानों को सौंप चुके हैं. लालू यादव जहाँ अदालत के फैसले के बाद परिदृश्य से दूर जेल में
बैठे हैं तो रामविलास पासवान स्वास्थ्य और उम्र का हवाला देकर बेटे पर निर्भर हैं. चुनाव दो पुराने गठबन्धनों के
बीच ही होगा जिसमें एक के मुखिया नितिश कुमार तो दूसरी के तेजस्वी यादव होंगे. हाँ चिराग पासवान को लेकर
वैसी ही दुविधा है जैसी कि उनके पिता के साथ रहती थी क्योंकि देश की राजनीति में हवा के रुख को भांपने और
उसी अनुरूप चलने में रामविलास पासवान का अब तक को कोई सानी भी नहीं है.
यूँ तो बिहार में विधान सभा की कुल 243 सीटें हैं जिसमें बहुतमत के लिए 122 सीटें जरूरी हैं.अभी वहाँ जनता
दल (यूनाइटेड) और भाजपा की सरकार है. जेडीयू नेता नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं तो भाजपा के सुशील मोदी उप-
मुख्यमंत्री हैं. रोचक यह है कि 2015 में नीतीश के नेतृत्व में जेडीयू ने लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल

(आरजेडी) के साथ चुनाव लड़ा.तब जेडीयू, आरजेडी, कांग्रेस और अन्य दलों का एक महागठबंधन बना जिसमें
जेडीयू को 69 और आरजेडी को 73 सीटें मिली थीं. जेडीयू और आरजेडी ने मिलकर सरकार बनाई जिसमें
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बने और लालू यादव के बेटे उप मुख्यमंत्री. लेकिन 2017 में नीतीश ने आरजेडी से
गठबंधन तोड़ भाजपा के साथ दोबारा सरकार बनाई. यहाँ बीजेपी के पास 54 विधायक थे. काँग्रेस को 23 सीटें ही
मिलीं जबकि रामविलास पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी 2 सीट पर सिमट गई. अब जीतनराम माँझी फिर से
एनडीए शामिल हो गए हैं जबकि इससे पहले वो आरजेडी में चले गए थे. रोचक यह है कि इस लोकसभा चुनाव में
काँग्रेस को 1 सीट मिली जबकि जबकि आरजेडी का खाता तक नहीं खुला. चूँकि बिहार में दलबदल की संभावनाएँ
बहुत ज्यादा है इसलिए कई स्थानीय क्षत्रप यहाँ से वहाँ हो सकते हैं.
हाँ बिहार में समाप्त हो रही मौजूदा विधानसभा की सबसे बड़ी रोचकता और विशेषता यह रहेगी कि सिवाय 3
विधायकों के जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) दल से हैं को छोड़कर इस बार सारे के सारे
विधायक सरकार चला चुके हैं. चाहे वह किसी भी दल से क्यों न रहे हों. लेकिन इस बार बिहार में ऊंट किस करवट
बैठेगा इस पर पूरे देश की फिर से निगाहें हैं क्योंकि बिहार में स्थानीय दल और गठबन्धनों के बावजूद राष्ट्रीय
राजनीति के लिए भी एक संदेश निकलता है जिसे अपनी-अपनी तरह से देखा जाता है और यही राष्ट्रीय राजनीति
में हवा के रुख का भी भान कराता है. बहरहाल अभी तो चुनाव का आगाज है अंजाम तक पहुँचते-पहुँचते फिर
कितने रिकॉर्ड बनेंगे यही देखने लायक होगा.


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