कृषि और हाई वैल्यू फसलें: डा. भरत झुनझुनवाला

asiakhabar.com | September 29, 2020 | 5:00 pm IST

विकास गुप्ता

सरकार ने मंडियों के माध्यम से कृषि उत्पादों को बेचने की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया है। अब बड़े उद्यमी
सीधे किसानों से अनुबंध करके उनसे माल खरीद सकेंगे। इस लेन-देन में मंडी समितियों अथवा राज्य सरकारों की
कोई भूमिका नहीं रह जाएगी। यह परिस्थिति मूल रूप से हमारे खुदरा बिक्री व्यवस्था के समानांतर है। जिस प्रकार
ई-मार्केटिंग पोर्टल्स जैसे अमाजोन, फ्लिपकार्ट और स्नैपडील के आने से किराना दुकानों को कुछ झटका लगा है,
लेकिन फिर भी वे अपने पैर पर खड़े हुए हैं। इसी प्रकार यदि बड़ी कंपनियां किसानों से अनुबंध कर लेंगी तो भी
मंडियों की भूमिका बनी रहेगी। मंडियों द्वारा एक महत्त्वपूर्ण सेवा दी जाती है। उनके द्वारा किसान द्वारा लाए जा
रहे विभिन्न गुणवत्ता के माल को छांट कर उनको खरीदने वाले अलग-अलग खरीददारों तक पहुंचाया जाता है। यह
कार्य बड़ी कंपनियां नहीं कर सकती हैं, इसलिए मंडियों का अस्तित्व बना रहेगा। बड़ी कंपनियों के प्रवेश से हमारी
मंडियां उसी प्रकार समाप्त नहीं होंगी जिस प्रकार ई-पोर्टल के प्रवेश से किराना दुकानें समाप्त नहीं हुई हैं। बल्कि
इस व्यवस्था से मंडियों की कार्य शैली में भी सुधार आ सकता है।
सरकार ने दूसरा परिवर्तन आवश्यक वस्तु अधिनियम के दायरे से अनाज, दाल और खाद्य तेल इत्यादि को बाहर
करने का किया है। इस अधिनियम के अंतर्गत इन माल के भंडारण पर प्रतिबंध था। निर्धारित सीमा से अधिक
भंडारण करने की स्वीकृति किसी व्यापारी को नहीं थी। पूर्व में इस अधिनियम को लाने का उद्देश्य था कि बड़े
व्यापारियों द्वारा माल को खरीदकर भंडारण कर लिया जाता है, बाजार में कृत्रिम अनुपलब्धता पैदा की जाती है,
दाम बढ़ाए जाते हैं और फिर उस माल को ऊंची कीमत पर बेचा जाता है। ऐसा करने से एक तरफ किसान को
न्यून दाम मिलता है, चूंकि बड़े व्यापारी किसान से दाम बढ़ने के पूर्व सस्ता माल खरीदकर भंडारण कर लेते हैं।
उपभोक्ता को बढ़ा हुआ दाम देना पड़ता है। बढ़े दाम का लाभ व्यापारी को मिलता है। अधिनियम से इन माल को

बाहर करने का अर्थ है कि अब बड़े व्यापारी इन माल को खरीदकर इनका भंडारण करने और बाजार में दाम को
मैनिपुलेट करने के लिए स्वतंत्र होंगे। यह लाभप्रद भी है और हानिप्रद भी है। लाभ यह है कि बाजार में माल को
खरीदकर उपभोक्ता तक पहुंचाने का कार्य ये बड़े व्यापारी फूड कारपोरेशन की तुलना में कुशलतापूर्वक कर सकते हैं।
फूड कारपोरेशन को सरकार व्यापार करने के लिए भारी सबसिडी देती है, जबकि व्यापारी उसी कार्य को करके धन
कमाते हैं। जो काम धन कमा कर किया जा सके, उसे सबसिडी देकर करने का कोई औचित्य नहीं बनता है।
इसलिए यह व्यवस्था ठीक है। इसमें हानि यह है कि यदि बड़े व्यापारियों ने माल का भंडारण कर कृत्रिम शार्टेज
बनाई तो इससे उपभोक्ता को हानि होगी।
इसका उपाय यह है कि सरकार व्यवस्था करे कि व्यापारी अपनी खरीद की जानकारी सार्वजनिक करेगा जिससे कि
सरकार को ज्ञात हो जाए कि किस माल का कितना भंडार है और सरकार के अधिकारी देख सकें कि आने वाले
समय में इस भंडार का दुरुपयोग मार्केट को मैन्युपुलेट करने के लिए किया जा सकता है या नहीं। इसके साथ-साथ
सरकार फूड कारपोरेशन को आदेश दे कि वह भी माल को खरीदे और आयात करे। यदि सरकार को ज्ञात होता है
कि बड़े व्यापारी प्याज का बड़ी मात्रा में भंडारण कर रहे हैं तो सरकार फूड कारपोरेशन के माध्यम से प्याज का
आयात कर सकती है और व्यापारियों को लाभ के स्थान पर नुकसान वहन करने को मजबूर कर सकती है। इसलिए
आवश्यक वस्तु अधिनियम से इन माल को निकालना अपने में सही है, बशर्ते कि साथ-साथ सरकार व्यवस्था बनाए
जिसमें कृषि उत्पादों के माल की अधिकता होने पर फूड कारपोरेशन इन्हें खरीदकर निर्यात करे और इनकी कमी
होने पर फूड कारपोरेशन समय से पहले आयात करे और संतुलन बनाए रखे। इन मुद्दों के बीच में अपने कृषि क्षेत्र
की मूल समस्याओं पर भी गौर करने की जरूरत है। एक समस्या न्यूनतम समर्थन मूल्य की है। सरकार के द्वारा
निर्धारित उत्पादों का समर्थन मूल्य घोषित किया जाता है और इस मूल्य पर जितना भी माल किसान उपलब्ध
कराएं, सरकार उसको खरीदने को वचनबद्ध होती है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि ऊंची कीमत की फसलों में
प्रवेश करने का किसान को प्रोत्साहन नहीं है। किसान को ज्ञात है कि यदि वह धान और गेहूं का उत्पादन करेगा तो
उसकी खरीद सरकार द्वारा कर ली जाएगी और उसे निर्धारित मूल्य मिल जाएगा। लेकिन अपने देश में कृषि के
विस्तार के लिए जरूरी यह है कि हम ऊंची कीमत की फसलों का उत्पादन करें। जैसे फूल, आर्गेनिक सब्जियां
अथवा विशेष आकार की डिजायनर सब्जी इत्यादि। बता दें कि फ्रांस में अंगूर, इटली में जैतून और अमरीका में
अखरोट जैसी फसलों की अंतरराष्ट्रीय मांग है। इन क्षेत्रों में जो फसलों का उत्पादन किया जाता है, उन फसलों की
विशेष गुणवत्ता होती है, जैसे नीदरलैंड में ट्यूलिप के फूल की।
भारत में हर प्रकार का मौसम देश के किसी न किसी हिस्से में उपलब्ध रहता है। जैसे जाड़े के समय में गुलाब के
फूल दक्षिण भारत में उत्पादित हो सकते हैं और गर्मी के समय इन्हें पहाड़ में उत्पादन किया जा सकता है। इसलिए
सरकार को चाहिए कि हर राज्य में जो फसलें ऊंचे दाम की उत्पादित हो सकती हैं, उनके ऊपर रिसर्च करे और
किसानों द्वारा उनका उत्पादन कराए। यदि हम ऐसा करेंगे तो किसान ऊंची मूल्य की फसलें उत्पादित करके बेच
सकेंगे। दूसरा विषय कृषि सबसिडी का है। आज भी राज्य सरकारों द्वारा किसानों को बिजली पर भारी सबसिडी दी
जा रही है जिसका परिणाम हो रहा है कि उनके द्वारा भूमिगत पानी का अति उपयोग किया जा रहा है। भूमिगत
पानी का जलस्तर गिर रहा है। इसलिए सरकार को चाहिए कि किसानों को दी जाने वाली बिजली सबसिडी को
समाप्त करने की योजना के लिए राज्य सरकारों को प्रोत्साहन दे और साथ-साथ इससे किसानों पर बढ़ने वाले
अतिरिक्त भार की भरपाई करने को न्यूनतम समर्थन मूल्य में उतनी ही वृद्धि कर दे। जैसे यदि आज किसान की

गेहूं की उत्पादन लागत 18 रुपए प्रति किलो है और बिजली का मूल्य देने के बाद उसकी उत्पादन लागत 21
रुपए प्रति किलो हो जाती है तो इसी के समानांतर समर्थन मूल्य में भी 3 रुपए प्रति किलो की वृद्धि कर दे तो
किसान के ऊपर वास्तव में अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ेगा। किसान को सबसिडी के स्थान पर बढ़ी हुई कीमत दी जानी
चाहिए। अच्छी कीमत मिलने से किसान का मनोबल बढ़ेगा। सरकार द्वारा जो परिवर्तन किए जा रहे हैं, ये मूलतः
सही दिशा में हैं। आवश्यक वस्तु अधिनियम व्यवस्था में निर्धारित फसलों को बाहर करना ठीक है, लेकिन साथ-
साथ व्यवस्था करनी चाहिए कि भंडारण की सूचना सार्वजनिक हो और फूड कारपोरेशन द्वारा समय रहते सभी
फसलों के मूल्यों को नियंत्रण में रखने के लिए आयात-निर्यात किए जाएं।


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