एक देश, एक कृषि बाजार

asiakhabar.com | September 19, 2020 | 3:54 pm IST

विनय गुप्ता

किसान और कृषि से जुड़े संशोधन बिल लोकसभा से पारित हो गए। राज्यसभा में अंकगणित एकतरफा नहीं है,
लिहाजा कुछ मुश्किल हो सकती है। यदि बीजद और वाईएसआर कांग्रेस सरीखे दलों का समर्थन मिला, तो बिल
वहां भी पारित कराए जा सकते हैं। वैसे बीजद की मांग है कि अभी बिलों को स्थायी समिति को भेज देना चाहिए।
विपक्ष ने कृषि सुधारों का विरोध कर संसद से वॉकआउट ही नहीं किया, बल्कि उन्हें ‘किसान-विरोधी’ भी करार
दिया। विषय की गंभीरता और संवेदनशीलता तब सामने आई, जब भाजपा के सबसे पुराने सहयोगी-अकाली दल-ने
बिलों का विरोध किया और कोटे की केंद्रीय खाद्य प्रसंस्करण मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने इस्तीफा तक दे दिया।
प्रधानमंत्री मोदी की सलाह पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इस्तीफा स्वीकार कर अतिरिक्त दायित्व कृषि मंत्री नरेंद्र
तोमर को सौंपा है। अब भाजपा और अकाली दल पंजाब और देश की राजनीति में साथ-साथ रहेंगे अथवा नहीं, यह
निर्णय फिलहाल विचाराधीन है। कांग्रेस और विपक्षी दलों का विरोध समझ में आता है, लेकिन अकाली दल इस
मुद्दे पर अध्यादेश लाने के समय से ही विरोध क्यों करता रहा है? अकाली दल बुनियादी तौर पर किसानों की
पार्टी है। उसने और कांग्रेस सरकारों ने पंजाब में किसान और उनकी फसलों के लिए ऐसा आधारभूत ढांचा तैयार
किया है कि वहां का औसत किसान भी संपन्न है। पंजाब में कृषि से जुड़े 12 लाख से अधिक परिवार हैं और
करीब 28 हजार पंजीकृत कमीशन एजेंट हैं।
फसलों की सरकारी खरीद पर आढ़तियों को औसतन 2.5 फीसदी कमीशन मिलती है और राज्य सरकार को भी
खरीद एजेंसी से छह फीसदी कमीशन मिलती रही है। भय है कि कमीशन का यह कारोबार न खत्म हो जाए! पंजाब
में कृषि विपणन मंडियों का भी जाल बिछा हुआ है। किसान और मंडी के बीच एक पारिवारिक संबंध रहा है।
हालांकि अपवाद के तौर पर किसानों के शोषण की कहानियां भी सुनी जाती रही हैं। प्रधानमंत्री ने देश के सामने
संकल्प लिया था कि किसान की आमदनी दोगुनी सुनिश्चित की जाएगी। फिलहाल तो कोई आसार नहीं हैं, लेकिन
डेढ़ साल बाद पंजाब में विधानसभा चुनाव हैं, लिहाजा अपना जनाधार बचाए रखना और उसे लामबंद करना अकाली
दल के लिए बड़ी चुनौती है। 2017 के चुनाव में अकालियों के सिर्फ 15 विधायक ही जीत पाए थे। वह सबसे
कमजोर चुनावी प्रदर्शन था। बहरहाल कृषि सुधारों के तहत एक प्रयोगात्मक व्यवस्था सामने आ रही है-एक देश,
एक कृषि बाजार। आम कारोबारी की तरह किसान भी अपने खेत, गांव, तहसील, जिला और राज्य से बाहर निकल
कर देशभर में अपनी फसल बेचने को स्वतंत्र हो, तो इस पर सवाल और भ्रामक प्रचार क्यों किया जा रहा है?
दुष्प्रचार किया जा रहा है कि जमींदारी प्रथा लौट आएगी और अंबानी, अडाणी नए जमींदार होंगे। जमींदारी प्रथा
कानूनन समाप्त हो चुकी है और नए भारत में उसकी कोई संभावना नहीं है। यदि कोई व्यापारी, कंपनी, बाजार
और संगठन किसान की दहलीज या खेत तक आकर फसल के बेहतर दाम देना चाहता है, तो इसमें साजिश या
शोषण की गंध क्यों आ रही है?
अंबानी, अडाणी के हुक्म से यह देश चलता है क्या? यदि संसद के जरिए कोई नया कानून बना है, नई व्यवस्था
तैयार की जा रही है, तो जवाबदेही सरकार की भी होगी। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और सरकारी खरीद

की व्यवस्थाएं बरकरार रहेंगी, इस संदर्भ में हमें प्रधानमंत्री के सार्वजनिक आश्वासन पर भरोसा करना चाहिए।
सरकारी खरीद एफसीआई और अन्य एजेंसियों के जरिए जारी रहेगी, तो तयशुदा दाम खंडित कैसे किए जा सकते
हैं? क्या हम किसी ‘केला गणतंत्र’ में रहते हैं? देश के जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी 15-16 फीसदी की है।
करीब 60 फीसदी आबादी की आजीविका ही कृषि है। क्या इतनी विशाल अर्थव्यवस्था और कारोबार पर अदालतें
भी आंख मूंद लेंगी? दरअसल हम किसान संगठनों की दलीलों और प्रदर्शनों से सहमत नहीं हैं। पंजाब, हरियाणा,
राजस्थान, दिल्ली, उप्र आदि राज्यों में किसान सड़कों पर आंदोलित हैं। आने वाली 20 सितंबर को हरियाणा में
व्यापक प्रदर्शन है, तो 25 सितंबर को ‘पंजाब बंद’ का आह्वान किया गया है। उससे पहले ‘रेल रोको’ का भी नारा
दिया गया है। विचारणीय बात तो यह है कि यदि किसान ही कृषि सुधारों से आश्वस्त नहीं हैं, उनका विरोध कर
रहे हैं, तो फिर सभी सुधार बेमानी हैं। प्रधानमंत्री को देश को आश्वस्त करने की एक और पहल करनी पड़ेगी।


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