विकास गुप्ता
आज से करीब साढ़े छः वर्ष पूर्व हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी ने अपने पहले संसदीय भाषण में वादा
किया था कि देश में जितने भी मौजूदा व पूर्व संसदों व विधायकों पर न्यायालयों में आपराधिक प्रकरण चल रहे है
उनका निपटारा विशेष न्यायालयों का गठन कर एक वर्ष में कर दिया जाएगा और देश की सियासत को अपराध
मुक्त कर दिया जाएगा, पचहत्तर महीनें बाद भी मोदी जी अपनी इस पहले संकल्प को मूर्तरूप नहीं दे पाए, हमारे
प्रधानमंत्री की तो पूरे विश्व में ‘‘एक सशक्त प्रधानमंत्री’’ की पहचान है और पूरा विश्व इस पहचान का सम्मान भी
करता है, फिर क्या कारण है कि प्रधानमंत्री चाहते हुए भी अपने पहले संकल्प को मूर्तरूप नहीं दे पाए और आज
देश भर के उच्च न्यायालयों को सर्वोच्च न्यायालय को लिखकर देना पड़ रहा है कि आज भी देश के मौजूदा पूर्व व
वर्तमान सांसदों-विधायकों पर करीब साढ़े चार हजार (4442) आपराधिक प्रकरण लम्बित है, इनमें से आधे से
अधिक (2556) आपराधिक प्रकरण मौजूदा सांसदों-विधायकों पर लम्बित है। क्या उच्च न्यायालयों की इस खुली
रिपोर्ट से हमारा प्रजातंत्र कलंकित नहीं होता? और यदि अभी कुछ वर्ष और यही चलता रहा तो फिर क्या यह
लोकतंत्र सुरक्षित रह पाएगा?
शायद इसी कारण हमारे निर्वाचित जन प्रतिनिधि जिनके बारे में संवैधानिक धारणा एक जनसेवक की है, उनसे वे
ही लोग हमेशा भयभीत रहते है, जिनके मतों से ये आपराधिक तत्व राजनीति में रूतबें के सिंहासन तक पहुंचे, इस
मामले में प्रजातंत्र का हर स्तंभ डरा-सहमा सा है, क्योंकि इनका सतत् प्रयास हर स्तंभ पर कब्जा करना हो गया
है, विधायिका के तो ये सदस्य है ही, कार्यपालिका इनके नियंत्रण में रहती है और सिर्फ न्यायपालिका ही है, जिस
पर इनका जोर नही चल पाता, इसलिए तीनों स्तंभों में न्यायपालिका पर ही देश की जनता का भरोसा रह गया है
और चैथें अघोषित स्तंभ खबर पालिका की तो बात ही नहीं करें, वह तो स्वयं इन आपराधिक जन प्रतिनिधियों के
नियंत्रण में रहने को उत्सुक है।
कुल मिलाकर आज-कल प्रजातंत्र की मुख्य धुरी चुनाव भी तमाशा बनकर रह गए है, आज चुनाव किस तरह जीते
जाते है, यह किसी से भी छुपा हुआ नहीं है, आपराधिक तत्वों के प्रति चुनाव आयोग न तो सख्ती कर पाता है
और न उन्हें चुनाव लड़ने से वंचित ही कर पाता है, इसलिए ऐसे तत्व भय व डर के बल पर चुनाव जीतकर हमारे
पवित्र प्रजातंत्र के मंदिरों (संसद-विधानसभा) में पहुंच जाते है और अपनी हर महत्वाकांक्षा की पूर्ति उसी हैसियत का
दुरूपयोग कर करते है, फिर वह चाहे धनोपार्जन हो या रूतबा।
आज हमारी आजादी को तिहत्तर साल होने आए और संविधान को लागू हुए 70 साल से अधिक हो गए और हमारे
संविधान में स्पष्ट रूप से हमारे प्रजातंत्र के इन मंदिरों को अपराध और आपराधिक तत्वों से दूर रखने का उल्लेख
है, किंतु इसके बावजूद क्या कारण है कि हमारा चुनाव आयोग स्वयं ही संविधान की भावना का सम्मान नहीं कर
पा रहा है, क्या चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक संगठन पर भी सत्ता के सिंहासनों पर विराजित ये तत्व हावी हो गए
है? इसी एक कारण से हमारे प्रजातंत्र की छवि पूरे विश्व में कितनी खराब हो रही है? इसकी तनिक भी चिंता
हमारे इन कलयुगी भाग्यविधाताओं को है? चुनाव आयोग हर चुनाव के पहले राजनीतिक दलों का इस बारे में
आगाह करता रहता है, किंतु राजनीतिक दलों पर उसका कोई असर नहीं होता। अब तो सर्वोच्च न्यायालय को ही
कुछ करना पड़ेगा तथा चुनाव आयोग के नियमों के साथ यह जोड़ना पड़ेगा कि जिन प्रत्याशियों के यदि किसी भी
न्यायालय में कोई आपराधिक प्रकरण लम्बित है तो उसे चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया जाए, जब तक वह सभी
प्रकरणों में निर्दोष साबित न हो जाए तब तक वह पंचायत से लेकर संसद तक कोई चुनाव नहीं लड़ सकता, अब
समूचे देश की निगाहें सुप्रीम कोर्ट पर ही केन्द्रित है, जिसने पूरे देश के उच्च न्यायालयों से यह रिपोर्ट प्राप्त की है,
साथ ही स्वयं प्रधानमंत्री जी को भी अपनी प्राथमिकताओं में अपने इस संकल्प को मूर्तरूप देने वाले इस पुनीत
कार्य को शामिल करना चाहिए, जिससे कि अन्य मुद्दों के साथ प्रजातंत्र की अस्मिता से जुड़ा यह मामला भी
सुलझ सके और उनकी पहली संकल्पित घोषणा को मूर्तरूप मिल सके।