राजीव गोयल
उत्तर प्रदेश के बदायूं की घटना हमारे लिए विचारणीय है। हम घटानाओं से सीख लेने के बजाय जांचों में उलझा कर
अपने दायित्वों से मुंहमोड़ लेते हैं। एक सिपाही ने एसएसआई को इसलिए गोली मार दिया कि वह 10 दिन का
अवकाश चाहता था। लेकिन एसआई सिपाही को सिर्फ़ चार दिन का अवकाश दे रहा था। जिसकी वजह से सिपाही
इसी बात से झल्ला गया और एसआई को गोली मारने के बाद ख़ुद को गोली मार लिया। दोनों को इलाज के लिए
भर्ती कराया गया है। निश्चित रूप से यह बुरी ख़बर है। सिपाही को ऐसा नहीँ करना चाहिए था। क्योंकि अगर उसी
का अनुशरण यूपी पुलिस करने लगे तो स्थिति कितनी खतरनाक होगी यह समझा जा सकता है।
उत्तर प्रदेश में बदायूं की घटना सिर्फ़ उदारहण है। इस तरह की अनगिनत घटाएँ सेना, सीआरपीएफ और दूसरी
जगह भी आए दिन मीडिया की सुर्ख़ियां बनती हैं। उत्तर प्रदेश पुलिस में ही बदायूं सरीखे अनगिन उदारहण हैं।
हालांकि यह घटना जाँच का विषय है। क्योंकि सिपाही से अधिक एसआई का भी गुनाह हो सकता है। कभी- कभी
ओहदे के अहम या अनबन की वजह से भी इस तरह की घटनाएं होती हैं। फ़िलहाल जाँच के बाद यह स्थिति साफ
होगी। हम उस बहस में नहीँ पड़ना चाहते हैं। लेकिन यह घटाना हुई क्यों यह जानना आवश्यक है।
देश के सशस्त्र बल में अवकाश की बड़ी समस्या है। यह समस्या सिर्फ़ यूपी पुलिस की नहीँ सभी राज्यों की है।
पुलिस कर्मियों में काम के अधिक बोझ की वजह से मानसिक तनाव, अनिद्रा, चिड़चिड़ापन और दूसरी बीमारियाँ
पैदा होती हैं। पुलिसवालों को हमेशा ऑनड्यूटी रहना पड़ता है। जिसका नतीजा होता है कि कई पुलिसकर्मी अपनी
औसत दैनिक नींद भी पूरी नहीँ कर पाते हैं। दिनरात नौकरी करने की वजह से स्थिति विकट हो जाती है। छुट्टी
न मिलने की वजह से परिवार को पर्याप्त समय नहीँ दे पाते हैं। बीबी और बच्चों को अपना प्यार नहीँ दे पाते।
अपने बुजुर्ग माँ- बाप की देखभाल नहीँ कर पाते। परिजनों के बीमार होने या किसी विषम परिस्थिति में फंसने की
वजह से वह अपना पारिवारिक दायित्व नहीँ निभा पाते हैं।
अधिकांश पुलिस के लोग अपने बाल- बच्चों को भी साथ नहीँ रख पाते हैं। क्योंकि पुलिस विभाग के पास तैनाती
स्थल पर पर्याप्त आवासीय सुविधा उपलब्ध नहीँ होती है। पुलिस थानों में बैरक उस हिसाब से नहीँ होते जीतने
पुलिस के लोग रहते हैं। जहाँ होते भी हैं वह जीर्ण असुविधाओं से युक्त होते हैं। पुलिसकर्मी और अफसर निजी
किराए के कमरों में रहते हैं। मेस की भी उचित सुविधा नहीँ होती क्योंकि अधिकांश थानों पर फालोवर की तैनाती
नहीँ है। पुलिस निजी फालोवर यानी रसोईया रख कर काम चलाती है। कोरोना संक्रमण काल में पुलिसवालों के लिए
गम्भीर स्थिति है। पुलिस के लोग कई- कई महीनों तक संक्रमण के डर से अपने परिजनों से नहीँ मिल पाए हैं।
उत्तर प्रदेश पुलिस में 'साप्ताहिक अवकाश' पर अभी तक फैसला नहीँ हो पाया है। राज्य की योगी सरकार भी
'वीकली ऑफ' को लेकर गम्भीर है। राज्य की पुलिस और अफसरों से इस पर राय भी माँगी गई थीं, लेकिन अभी
तक इस पर कोई फैसला नहीँ हो पाया है। हर इंसान का सार्वजनिक जीवन से इतर उसकी अलग जिंदगी होती है।
उसके लिए उसे वक्त ज़रूरी है। फ़िर पुलिस कोई मशीन नहीँ होती है वह भी हमारे आपके बीच के होते हैं। पुलिस
वालों से अगर बेहतर काम लेने हैं तो उनके लिए अच्छी सुख- सुविधाओं के साथ उनकी निजी जिंदगी का ख़याल
रखना होगा। पुलिस को जितनी बेहतर सुविधाएं मिलेगी उसके काम का तरीका भी उतना अच्छा और प्रभावशाली
होगा। हम दबाव में 'गुड़ वर्क' की उम्मीद नहीँ पाल सकते हैं। देश के कई राज्यों में वीकली ऑफ' और आठ घंटे
की ड्यूटी का नियम है। जबकि यूपी पुलिस चौबीस घंटे 'ऑनड्यूटी' रहती है।
पुलिस को और अधिक क्रियाशील बनाने के लिए अधिक भर्ती करनी होगी। राज्य की आबादी के अनुपात में पुलिस
की संख्या कम है। हालांकि यह स्थिति पूरे भारत और राज्यों की है, लेकिन फ़िर भी गम्भीरता से विचार करना
होगा। देश में औसतन 732 व्यक्तियों पर एक पुलिस कर्मी की व्यवस्था है। जबकि संयुक्त राष्ट्र ने हर 450
व्यक्तियों पर एक पुलिसकर्मी की सिफारिश की है। 2017 तक दस हजार आबादी पर सिर्फ़ 148 पुलिस की
उपलब्धता थीं। जबकि विश्वस्तर की रेटिंग 222 पुलिस की है। ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट
(बीपीआरडी) के सर्वे के अनुसार देश के 90 फीसदी पुलिस हर रोज आठ घंटे से ज्यादा काम करती है। 73 फीसदी
पुलिस वालों को एक दिन की भी छुट्टी नहीं मिलती।
यूपी के चर्चित पुलिस अधिकारी अमिताभ ठाकुर ने गृह मंत्री राजनाथ सिंह और पूर्व सीएम अखिलेश यादव को एक
पत्र लिखकर 'वीकली ऑफ' की मांग रखी थीं। राज्य की योगी सरकार भी इसे लेकर गम्भीर थीं, लेकिन अभी तक
इस पर कोई पहल नहीँ कि जा सकी है। देश और राज्यों में पुलिस सुधार की लम्बे समय से मांग उठ रहीं थीं,
लेकिन आज तक उस पर अमल नहीँ किया गया। 1977 में धर्मवीर की अध्यक्षता में राष्ट्रीय पुलिस आयोग गठित
किया गया था। आयोग ने केंद्र सरकार को आठ रिपोर्टें सौंपी थीं, लेकिन सभी पर सरकारों ने अमल नहीँ किया।
बदायूं की घटना के बाद वरिष्ठ आईपीएस अमिताभ ठाकुर ने अपने फ़ेसबुक वाल पर लिखा है कि 28 साल पहले
जब मैं यूपी पुलिस में आया उस दौरान भी छुट्टी एक बहुत बड़ी समस्या थी। शुरू से ही इस मामले में उदार रहा
था। हर किसी को तत्काल छुट्टी देने पर डांट भी खाता था। आईआईएम लखनऊ में किये गए अपने रिसर्च में पाया
कि यदि कर्मियों को सही ढंग से छुट्टी मिलती रहे तो पुलिस का प्रदर्शन दोगुना बढ़ सकता है।
वरिष्ठ मनोचिकित्सक डा. मनोज तिवारी मानते हैं कि पुलिस वालों के लिए अवकाश बेहद ज़रूरी है। बदायूं की
घटना की मूल वजह यहीं है। समय पर छुट्टी ना मिलने काम का अधिक भोझ बढ़ जाता है। 74 फीसदी
पुलिसकर्मियों का माना है कि उन पर काम का अधिक दबाव है। जबकि 84 फीसदी पुलिस वालों ने यह माना है
कि वे अपने परिवार को समुचित समय नहीं दे पाते हैं।
'स्टेट ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट' में कहां गया है कि भारत में औसतन पुलिसकर्मी 14 घंटे से अधिक काम
करते हैं। जबकि 44 फीसदी पुलिस के लोग 12 घंटे से अधिक काम करते हैं। कि 24 फीसद पुलिस वाले 16 घंटे
से अधिक काम करते हैं। पुलिस की अनियमित दिनचर्या की वजह से हृदय, मांसपेशी, डायबिटीज और आँख की
बीमारियाँ अधिक पायी जाती हैं। काम की अधिकता की वजह से अनिद्रा और मानसिक तनाव अधिक बढ़ रहा है।
राष्ट्रीय स्तर पर बेहतर पुलिस बल तैयार करने के लिए उनकी समस्याओं और मनोभावों को समझना ज़रूरी होगा।
काम का समय निर्धारित किया जाए और सप्ताह में एक दिन छुट्टी प्रदान की जाए। परिवार को साथ रखने की
व्यवस्था किया जाए। बाहरी दबावों से पुलिस बल को मुक्त किया जाए। स्थानांतरण की स्थाई नीति बनाई जाए।
पुलिस बलों की पर्याप्त नियुक्ति कर उनके काम के बोझ को कम किया जाए। समय-समय पर मनोवैज्ञानिक
परीक्षण कराया जाए ताकि जिनमें उच्च स्तर का तनाव या अन्य किसी प्रकार की मानसिक समस्या दिखाई पड़े।
राज्य सरकार पुलिस कि स्थिति पर गम्भीरता से विचार करते हुए आवश्यक क़दम उठाने चाहिए। व्यक्तिगत
समस्याओं को लेकर पुलिस का हिंसा पर उतर आना अच्छा संकेत नहीँ है। हमें बदायूं की घटना को गम्भीरता से
लेकर उस पर विचार करना चाहिए। राज्य स्तर पर पुलिस आयोग गठित कर विभाग में उनकी व्यक्तिगत
समस्याओं पर रिपोर्ट तैयार कर समस्या का उचित समाधान करना चाहिए।