विनय गुप्ता
समूचा विश्व इन दिनों शहीद-ए-करबला हज़रत इमाम हुसैन की शहादत को याद कर रहा है। बावजूद इसके कि
कोरोना महामारी ने लगभग पूरी दुनिया को अपने शिकंजे में जकड़ा हुआ है, इसके बावजूद दुनिया के करोड़ों घरों,
इमामबारगाहों व हज़रत इमाम हुसैन के चाहने वालों के आस्तानों से या हुसैन, या हुसैन की आवाज़ें बुलंद हो रही
हैं। 30 अगस्त को पूरी दुनिया आशूर (दसवीं मुहर्रम) के उस दिन को याद करेगी जब हज़रत इमाम हुसैन ने 680
ईस्वी में अपने परिवार व सहयोगियों की मात्र 72 सदस्यों की छोटी सी टोली के साथ लाखों की फ़ौज वाले क्रूर
यज़ीदी लश्कर से मुक़ाबला करते हुए अपने पूरे परिवार को क़ुर्बान कर दिया था। उस समय यज़ीद इब्ने मुआविया
स्वयं को मुसलमान कहने वाला सीरिया का एक ऐसा शासक था जो दुष्ट, दुश्चरित्र, क्रूर तथा अहंकारी था। यज़ीद
उस समय के इमाम तथा हज़रत मोहम्मद के नवासे व हज़रत अली के बेटे हज़रत इमाम हुसैन से अपने सीरियाई
शासन की इस्लामिक मान्यता हासिल करना चाहता था। परन्तु उसका जीवन चरित्र क़तई ऐसा नहीं था जिससे उसे
मुस्लिम शासक तो क्या साधारण मुसलमान भी कहा जा सके। लिहाज़ा हज़रत हुसैन ने उसके राज्य को इस्लामी
राज्य स्वीकार करना गवारा नहीं किया। जिसकी परिणिति करबला की दर्दनाक घटना के रूप में सामने आई।
दुनिया में विभिन्न धर्मों में सद्मार्ग पर चलने वाले अनेक ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने असत्य, अन्याय, अहंकार
तथा क्रूरता के आगे घुटने नहीं टेके। प्रायः इसके बदले में उन्हें कड़ी परीक्षा के दौर से ही गुज़ारना पड़ा है।अनेक
महापुरुषों, संतों व फ़क़ीरों को अपनी व अपने परिवार की क़ुर्बानी भी देनी पड़ी है। भारत भी अनेक मुग़ल शासकों
व अंग्रेज़ों की क्रूरता व अत्याचार की ऐसी अनेक दास्तानों का चश्मदीद रहा है। आज भी भारतीय समाज का
विभिन्न वर्ग अपने अपने वर्ग व समाज से जुड़े अनेक शहीदों को पूरी श्रद्धा के साथ समय समय पर याद करता
है। इमाम हुसैन भी एक ऐसे शहीद का नाम है जिस पर करबला में यज़ीदी सेना द्वारा इतना ज़ुल्म-ो- सितम ढाया
गया जिसकी कोई दूसरी मिसाल अब तक नहीं मिलती। करबला में छह महीने के बच्चे से लेकर 80 वर्ष के बुज़ुर्ग
तक ने अपनी शहादत पेश की। कारण सिर्फ़ यही था कि हुसैन चाहते थे कि उनके नाना हज़रत मोहम्मद द्वारा
संचालित किया गया इस्लाम धर्म किसी ऐसे अधार्मिक व दुष्ट व बदचलन व्यक्ति के हाथों में न जाने पाए ताकि
आने वाले समय में इतिहास यह न लिखे कि हुसैन के रहते हुए यज़ीद जैसा बदचलन व बदकिरदार कोई व्यक्ति
भी किसी 'इस्लामी देश' का मान्यता प्राप्त 'इस्लामी बादशाह' रह चुका है।
उसी शहीद-ए-करबला की याद में यदि भारत वर्ष में ही देखें तो देश की कई हिन्दू रियासतों में मुहर्रम के अवसर
पर ताज़ियादारी की जाती रही है तथा मुहर्रम संबंधी कई आयोजन किये जाते रहे हैं। मुंशी प्रेम चंद ने करबला
नामक कहानी लिख कर इराक़ के करबला में बहने वाली फ़ुरात नदी व भारत की गंगा नदी के बीच संवाद का वह
दर्दनाक दृश्य प्रस्तुत किया है जिसे पढ़कर किसी की भी आँखें नाम हुए बिना नहीं रह सकतीं। कुंवर महेंद्र सिंह बेदी
'सहर'जैसे कई प्रसिद्ध ग़ैर मुस्लिम शायरों ने हज़रत हुसैन व करबला की दास्तान पर अनेक कलाम कहकर उन्हें
श्रद्धांजलि अर्पित की है। आज भी जहाँ कहीं करबला के इस शहीद का ताज़िया, अलम (निशान) ताबूत या उनकी
याद में दुलदुल आदि निकलता है तो पारंपरिक रूप से तमाम ग़ैर मुस्लिम सदस्य जिनमें औरतें, बच्चे बुज़ुर्ग सभी
शामिल होते हैं, हुसैन की याद दिलाने वाली इन निशानियों पर फूल चढ़ाते हैं, इनके समक्ष नत मस्तक होते हैं
तथा तरह तरह की मन्नतें व मुरादें मांगते हैं। बिहार के दरभंगा में सैकड़ों वर्षों से मुहर्रम के मातमी जुलूस के साथ
साथ हिन्दू समाज के लोग अपने अंदाज़ से मैथिली भाषा में मर्सिया रुपी 'झरनी' पढ़ते हैं। लखनऊ में एक प्रसिद्ध
संत स्वामी नारंग जी महाराज लगभग प्रत्येक वर्ष मुहर्रम के जुलूस में ज़ंजीरी मातम कर हज़रत हुसैन को अपनी
रक्तांजलि भेंट करते हैं। न जाने कितने ग़ैर मुस्लिम कवि हुसैन व करबला पर आधारित सलाम व नौहा लिखते हैं
तथा ग़ैर मुस्लिम नौहा ख़्वान इन कलामों को बड़े गर्व के साथ सार्वजनिक स्थानों पर प्रस्तुत करते हैं।
वैसे भारत के साथ हज़रत इमाम हुसैन के वह ऐतिहासिक रिश्ते हैं जिन्हें रहती दुनिया तक मिटाया नहीं जा
सकता। कश्मीर के मोइयाल ब्राह्मणों द्वारा करबला के मैदान में उनकी सहायता के लिए पहुँचना एक ऐतिहासिक
व प्रमाणिक तथ्य तो है ही। यह भी तारीख़ के पन्नों में दर्ज है कि इमाम हुसैन ने यज़ीद के सामने लड़ाई टालने
के लिए एक प्रस्ताव यह भी रखा था कि वह उन्हें 'हिन्द' जाने दे, जिसे उसने अस्वीकार कर दिया। मशहूर शायर
विश्वनाथ प्रसाद 'माथुर' लखनवी उसी संदर्भ में फ़रमाते हैं – "आँख में उनकी जगह, दिल में मकां शब्बीर का। यह
ज़मीं शब्बीर की, यह आसमां शब्बीर का।। जब से आने को कहा था करबला से हिन्द में। हो गया उस रोज़ से
हिन्दोस्तां शब्बीर का।।" मुसलमान जन्नत में जाने की स्वयंभू रूप से जो भी शर्तें निर्धारित करें परन्तु हुसैन के
परस्तार 'माथुर' लखनवी का अक़ीदा व उनका विश्वास देखिये – 'जन्नत में यही कह के चले जाएंगे 'माथुर'। शब्बीर
के क़दमों के निशां ढूंढ रहे हैं ।। इसी तरह एक और मशहूर ग़ैर मुस्लिम नौहा ख़्वान श्री किशन लाल सीतापुरी का
एक कलाम बेहद प्रसिद्ध व प्रचलित है। उसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं- "भारत में अगर आ जाता, ह्रदय में
उतारा जाता। यूं चाँद बनी हाशिम का धोखे से न मारा जाता ।। चौखट से न उठते माथे, हर ओर से पूजा होती।
इस देश की भाषाओं में, भगवान पुकारा जाता।। यूँ नहर न रोकी जाती, यूँ हाथ न काटे जाते। हाथों के सहारे
मिलते, कांधों पे बिठाया जाता।। सेना में उसी के होते, और मर के अमर हो जाते।दो प्रेम भरे शब्दों पर, तन मन
धन वारा जाता"।। यह शेर भी वे अक्सर पढ़ते -मैं हिन्दू हो के भी दुश्मन नहीं हूँ, नबी की आल को शिकवा नहीं
है। मेरे माथे की सुर्खी पे ना जाओ, तिलक है, खून का धब्बा नहीं है।। महात्मा गाँधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू,
डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, रविंद्र नाथ टैगोर तथा सरोजिनी नायडू जैसी हस्तियां हज़रत इमाम हुसैन की बेमिसाल क़ुर्बानी
के क़ायल रहे हैं।
विश्व इतिहास इस हक़ीक़त को कभी झुठला नहीं सकता कि इस्लाम पर आतंकवाद का गहरा धब्बा लगाने की
शुरुआत यदि एक कथित मुस्लिम शासक यज़ीद के हाथों करबला से हुई थी तो उसका ज़बरदस्त प्रतिरोध भी उसी
समय हज़रत मोहम्मद के नाती हज़रत इमाम हुसैन द्वारा अपने पूरे परिवार व साथियों की शहादत देकर किया
गया था। तभी तो अल्लामा इक़बाल को कहना पड़ा था कि – "क्या तमाशा हुआ इस्लाम की तक़दीर के साथ। क़त्ल
शब्बीर हुए नारा-ए-तकबीर के साथ"? इसलिये इस्लाम धर्म और उसके मर्म को समझने के लिए किसी मुस्लिम
बादशाह या तानाशाह के चरित्र का अध्ययन करने या उसका उदाहरण देने की ज़रुरत नहीं बल्कि इमाम हुसैन की
क़ुर्बानी और करबला की घटना के संदर्भ में इस्लाम को समझने की ज़रुरत है।