विनय गुप्ता
नेपाल एक तरफ तो भारत के साथ हाल के दिनों में बढ़ी तल्खी को कम करने की कोशिश करता दिख रहा है
लेकिन दूसरी तरफ वह कालापानी के मसले को गरमाने की भी तैयारी में है। नेपाल सरकार कालापानी पर अपना
दावा जताने के लिए एक किताब निकालने की तैयारी कर रही है जिसे एंबेसी के जरिए कई अलग अलग देशों में
भेजा जाएगा। ताकि कालापानी पर नेपाल के दावे को लेकर वह दूसरे देशों की सहानुभूति हासिल कर सके।
जानकारी मिली है कि नेपाल गूगल से बात कर उसे इस बात पर राजी करने की कोशिश कर सकता है कि वह
नेपाल के वर्जन वाला मैप भी दिखाए। नेपाल ने कुछ वक्त पहले ही अपने नए नक्शे को मंजूरी दी है। जिसमें
कालापानी के साथ ही भारत के इलाके लिपुलेख और लिम्पयाधुरा को भी नेपाल का हिस्सा दिखाया गया है। नेपाल
की यह फितरत ऐसे समय सामने आई है, जब दोनों देशों के रिश्तों में जमी बर्फ पिघल रही है और करीब नौ माह
बाद दोनों देश वार्ता की मेज पर आए हैं।
फिर अचानक से कालापानी विवाद पर किताब लाने का मकसद क्या है। अगर देखा जाए तो नेपाल काफी दिनों से
चीन के प्रभाव में है। वह इस समय ऐसे दोराहे पर है, जहां वह न न तो चीन को छोड़ सकता है और न ही भारत
को दूर कर सकता है। चीन ने जब नेपाल पर आंखें तरेरीं तो उसे भारत याद आया। इसीलिए वह वार्ता को राजी
हुआ। मगर उसे यह भी पता है कि अगर वह चीन को नाराज करेगा तो उसके यहां चल रहे निर्माण कार्य ठप हो
जाएंगे। फिर चीन से उसे जो कर्ज मिला है, वह भी लौटाना पड़ेगा। नेपाल की आर्थिक हालत ऐसी नहीं है कि वह
चीन को एक झटके में कर्ज लौटा सके। इसीलिए वह दोनों को खुश करके चलना चाहता है। मगर नेपाल यह नहीं
समझ रहा है कि दो नाव की सवारी में घाटा उसी का है। जब तक नेपाल खुले दिल और मन से भारत के साथ
था, तब तक सुखी था। हर गम और खुशी के मौके पर भारत ने उसका साथ दिया। मगर जैसे ही उसका झुकाव
चीन की तरफ गया, उसकी हालत पतली होती गई। आज नेपाल भले ही दिखावे के लिए सही भारत के साथ
बातचीत का राग अलाप रहा है, मगर उसे अब तय करना होगा कि वह किस ओर जाएगा। भारत के साथ दोस्ती
की इबारत वह लिख चुका है, अगर बैर चाहता है तो यह भी सही।
पिछले कुछ समय से भारत के खिलाफ नेपाल जिस आक्रामकता के साथ कदम बढ़ाता जा रहा है, वह दुर्भाग्यपूर्ण
तो है ही, इससे क्षेत्र में अशांति का एक और रास्ता खुल गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस वक्त नेपाल पूरी
तरह से चीन के प्रभाव में है। नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली चीन के इशारे पर चल रहे हैं। ओली के सत्ता में
आने के बाद से नेपाल में चीनी का दखल तेजी से बढ़ा है। चीन ने नेपाल में कई परियोजनाएं शुरू की हैं। इसके
पीछे चीन का मकसद नेपाल के रास्ते भारत की घेरेबंदी करना ज्यादा है। दुख की बात यह है कि नेपाल यह समझ
नहीं पा रहा कि जिस एकमात्र और सबसे करीबी पड़ोसी भारत से उसके सदियों पुराने रिश्ते रहे हैं, उसी के खिलाफ
वह इस तरह की पलटी मार कर क्या हासिल कर लेगा। कहना न होगा कि भारत ने हमेशा हर तरह से नेपाल का
साथ दिया है, संकट में उसके साथ खड़ा रहा है, फिर भी नेपाल चीन के इशारे पर भारत के खिलाफ मोर्चा खोले
हुए है, वह भी बेबुनियादी मुद्दों पर। नेपाल को इस वक्त लग रहा है कि भारत चीन और पाकिस्तान से घिरा हुआ
है। ऐसे में कालापानी और लिंपियाधुरा को उससे हथियाया जा सकता है। पर ऐसा सोचना नेपाल की बड़ी भूल
होगी।
नेपाल जिन इलाकों पर दावे कर रहा है, वे भारत का ही हिस्सा हैं। इस तथ्य को चीन और नेपाल अच्छी तरह
समझते हैं। लेकिन अब नेपाल क्षेत्रों पर अनधिकृत दावे कर उन्हें विवादित बनाने की चीन की रणनीति पर चल
निकला है। कालापानी क्षेत्र को लेकर हकीकत यह है कि भारत में होते हुए भी इस क्षेत्र को लेकर नेपाल ने भ्रम की
स्थिति बना रखी है। दो सौ साल पहले ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाली शासकों के बीच जो सुगौली संधि हुई थी,
उसके मुताबिक भारत ने अपनी सीमा कालापानी नदी के झरनों तक मानी थी और नेपाल ने उसे इस नदी के
किनारों तक मानी है। दो सौ साल पहले नक्शे नहीं बने थे, इसलिए इन सीमाओं की व्याख्या अपनी-अपनी तरह से
की जाती रही। क्षेत्रफल में ये इलाके बहुत छोटे हैं, पर इनका सामरिक महत्त्व काफी है, नेपाल से ज्यादा भारत और
चीन के लिए। ऐसा नहीं है कि भारत और नेपाल मिल बैठ कर इस विवाद को सुलझा नहीं सकते। पर चीन नेपाल
को ऐसा करने नहीं दे रहा। नेपाल को यह समझना चाहिए कि भारत से बिगाड़ कर उसे कुछ हासिल नहीं होने
वाला। जितनी जरूरत भारत को नेपाल की है, उससे कहीं ज्यादा नेपाल को भारत की जरूरत है।