शहीद खुदीराम बोस के 112वीं शहादत दिवस पर विशेष : जंग-ए-आजादी में महज 18 की उम्र में शहीद हुए थे खुदीराम बोस

asiakhabar.com | August 11, 2020 | 1:45 pm IST

अर्पित गुप्ता

11 अगस्त को अमर शहीद खुदीराम बोस की 112वीं शहादत दिवस है। देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त
कराने के लिए लाखों क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की कुर्बानियां दी, अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। ऐसा ही एक
नाम है खुदीराम बोस का, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में महज 18 साल की छोटी सी उम्र में
फांसी का फंदा चूम लिया था। भारत के स्वातंत्र्य संग्राम के इतिहास में खुदीराम बोस का नाम अमिट है। शहीद
खुदीराम बोस का राष्ट्र के प्रति अमर प्रेम नई पीढ़ी और देशवासियों को हमेशा ही प्रेरणा देता रहेगा।
अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ वर्ष 1857 में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम विद्रोह का बिगुल बजाने वाले महानायक
सिपाही मंगल पांडे को 8 अप्रैल 1857 फांसी देकर भारत की आज़ादी की पहली लड़ाई अर्थात 1857 के संग्राम
को अंग्रेजों द्वारा दबा दिए जाने के बाद करीब 50 वर्षों तक देश में कोई जोरदार विरोध का स्वर सुनाई नहीं पड़ा।
इस घोर सन्नाटे को खुदीराम बोस व प्रफुल्ल चंद्र चाकी ने तोड़ा।
बहन ने किया था खुदीराम का लालन पालन
खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 को बंगाल के मिदनापुर जिले के गांव हबीबपुर में हुआ था। उनके पिता
का नाम त्रैलोक्य नाथ और माता का नाम लक्ष्मीप्रिय देवी था। खुदीराम के सिर से माता-पिता का साया बहुत
जल्दी ही उतर गया था इसलिए उनका लालन-पालन उनकी बड़ी बहन ने किया।
बंगाल विभाजन के बाद बने थे क्रांतिकारी
बंगाल में उभरते हुए राष्ट्रीय आन्दोलन को नष्ट करने के लिए 16 अक्टूबर 1905 को लार्ड कर्जन ने बंगाल का
विभाजन किया। 1905 में हुए बंगाल विभाजन के बाद तो खुदीराम बोस क्रांतिकारी सत्येन बोस की अगुवाई में
क्रांतिकारी बन गए। 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में चले आंदोलन में भी खुदीराम बोस ने बढ़-चढ़ कर

भाग लिया। पुलिस ने 28 फरवरी, 1906 को सोनार बंगला नामक एक इश्तहार बांटते हुए खुदीराम बोस को
दबोच लिया लेकिन वह पुलिस के शिकंजे से भागने में सफल रहे।
मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड को मारने की मिली जिम्मेवारी
कोलकाता का चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड क्रांतिकारियों को अपमानित करने और उन्हें दंड देने के लिए
बदनाम था। इसके लिए क्रांतिकारियों ने उसकी हत्या का फैसला किया। युगांतर क्रांतिकारी दल के नेता वीरेंद्र कुमार
घोष ने घोषणा की कि किंग्सफोर्ड को मुजफ्फरपुर (बिहार) में ही मारा जाएगा। इस काम के लिए खुदीराम बोस
तथा प्रफुल्ल चंद को चुना गया। किंग्सफोर्ड को मारने के लिए खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी को एक बम और
पिस्तौल दी गई थी। 30 अप्रैल 1908 को दोनों युरोपियन क्लब के बाहर किंग्सफोर्ड का इंतजार करने लगे। रात
के 8.30 बजे दोनों ने किंग्सफोर्ड की बग्गी पर हमला कर दिया। हमले में किंग्सफोर्ड बाल-बाल बच गए, लेकिन
उनकी बेटी और एक अन्य महिला की मौत हो गई।
फैसला सुनकर मुस्कुराए खुदीराम बोस
8 जून, 1908 को उन्हें अदालत में पेश किया गया और 13 जून,1908 को शहीद खुदीराम बोस को मौत की
सजा सुनाई गई। जब जज ने फैसला पढ़कर सुनाया तो खुदीराम बोस मुस्कुरा उठे। जज को लगा कि खुदीराम सजा
को समझ नहीं पाए हैं, इसलिए वे मुस्कुरा रहे हैं। जज ने पूछा कि क्या तुम्हें सजा के बारे में पूरी बात समझ आ
गई है। इस पर बोस ने दृढ़ता से जज को कहा कि ‘ये मेरा सौभाग्य है की जिस देश की मिट्टी का मैंने नमक
खाया है, देश के लिए फांसी के तख्ते पर झूल कर आज उस मिट्टी का कर्ज चुकाने का मौका मिला है’।
चार अंतिम इच्छाएं पूरी करने का आग्रह
फांसी की सजा सुनाने के बाद खुदीराम बोस ने अपनी चार अंतिम इच्छाएं पूरी करने का आग्रह किया था मगर
अंग्रेजों ने इनकार कर दिया था। चार अंतिम इच्छाएं में एक बार अपनी जन्मभूमि, दीदी-भतीजा को देखना,
भतीजी की शादी की जानकारी व जन्मस्थल के सामने स्थित सिद्धेश्वरी काली मां के चरणामृत पीने की इच्छाएं
शामिल थीं।
11 अगस्त 1908 को खुदीराम बोस फांसी पर चढ़े
11 अगस्त, 1908 को सुबह 6 बजे हाथ में गीता लेकर खुदीराम बोस हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए। तब उनकी
आयु मात्र 18 साल 8 महीने और 8 दिन थी। महान क्रांतिकारी खुदीराम बोस की शहादत के बाद देश में
देशभक्ति की लहर उमड़ पड़ी। खुदीराम बोस देश युवाओं के लिए अनुकरणीय हो गए।
यहां सजी थी शहीद खुदीराम बोस की चिता
अमर शहीद खुदीराम बोस की चिता गंडक नदी के तट पर बसे सोडा गोदाम चौक, चंदवारा में सजाया गया था। ये
जगह मुजफ्फरपुर स्थित केंद्रीय कारागार से करीब दो किलोमीटर के दायरे में ही है, जहां शहीद खुदीराम बोस को
फांसी दी गई थी।

‘खुदीराम धोती’
शहीद खुदीराम बोस की लोकप्रियता का यह आलम था कि उनको फांसी दिए जाने के बाद बंगाल के जुलाहे एक
खास किस्म की धोती बुनने लगे, जिसकी किनारी पर ‘खुदीराम’ लिखा होता था और बंगाल के नौजवान बड़े गर्व से
वह धोती पहनकर आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। इतिहासवेत्ता शिरोल ने लिखा है कि ‘बंगाल के राष्ट्रवादियों के
लिए वह वीर शहीद और अनुकरणीय हो गया’। भारत के कई जाने माने इतिहासकारों ने शहीद खुदीराम बोस को
देश को आजाद कराने के लिए हंसते- हंसते अपनी जान देश के खातिर कुर्बान करने वाला सबसे कम उम्र का
क्रांतिकारी माना हैं।


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