अकबरी लोटा

asiakhabar.com | July 23, 2020 | 5:38 pm IST
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राजीव गोयल

लाला झाऊलाल को खाने-पीने की कमी नहीं थी। काशी के ठठेरी बाजार में मकान था। नीचे की दुकानों से 100
रुपया मासिक के करीब किराया उतर आता था। कच्चे -बच्चेे अभी थे नहीं, सिर्फ दो प्राणी का खर्च था। अच्छाा
खाते थे, अच्छाच पहनते थे। पर ढाई सौ रुपए तो एक साथ कभी आंख सेंकने के लिए भी न मिलते थे।
इसलिए जब उनकी पत्नीह ने एक दिन यकायक ढाई सौ रुपए की मांग पेश की तब उनका जी एक बार जोर से
सनसनाया और फिर बैठ गया। जान पड़ा कि कोई बुल्लाल है जो बिलाने जा रहा है। उनकी यह दशा देखकर उनकी
पत्नीय ने कहा, डरिए मत, आप देने में असमर्थ हों तो मैं अपने भाई से मांग लूं।
लाला झाऊलाल इस मीठी मार से तिलमिला उठे। उन्होंईने किंचित रोष के साथ कहा, अजी हटो! ढाई सौ रुपए के
लिए भाई से भीख मांगोगी? मुझसे ले लेना।
लेकिन मुझे इसी जिंदगी में चाहिए।
अजी इसी सप्तासह में ले लेना।
सप्तायह से आपका तात्पेर्य सात दिन से है या सात वर्ष से?
लाल झाऊलाल ने रोब के साथ खड़े होते हुए कहा, आज से सातवें दिन मुझसे ढाई सौ रुपए ले लेना।
मर्द की एक बात!

हां, जी हां! मर्द की एक बात!
लेकिन जब चार दिन ज्यों-त्योंक में यों ही बीत गए और रुपयों का कोई प्रबंध न हो सका तब उन्हेंद चिंता होने
लगी। प्रश्ना अपनी प्रतिष्ठाो का था, अपने ही घर में अपनी साख का था। देने का पक्कान वादा करके अब अगर
न दे सके तो अपने मन में वह क्यात सोचेगी? उसकी नजरों में उनका क्या मूल्ये रह जाएगा? अपनी वाहवाही
की सैकड़ों गाथाएं उसे सुना चुके थे। अब जो एक काम पड़ा तो चारों खाने चित हो रहे? यह पहली ही बार उसने
मुंह खोलकर कुछ रुपयों का सवाल किया था। इस समय अगर वे दुम दबाकर निकल भागते हैं तो फिर उसे क्या
मुंह दिखाएंगे? मर्द की एक बात- यह उसका फिकरा उनके कानों में गूंज-गूंजकर फिर गूंज उठता था।
खैर, एक दिन और बीता। पाचवें दिन घबराकर उन्होंने पं. बिलवासी मिश्र को अपनी विपदा सुनाई। संयोग कुछ
ऐसा बिगड़ा था कि बिलवासी जी भी उस समय बिलकुल खुक्खू थे। उन्होंने कहा कि मेरे पास हैं तो नहीं पर मैं
कहीं से मांग-जांचकर लाने की कोशिश करूंगा, और अगर मिल गया तो कल शाम को तुमसे मकान पर मिलूंगा।
यह शाम आज थी। हफ्ते का अंतिम दिन। कल ढाई सौ रुपया या तो गिन देना है या सारी हेकड़ी से हाथ धोना है।
यह सच है कि कल रुपया न पाने पर उनकी स्त्रीा डामल-फांसी न कर देगी-केवल जरा-सा हंस देगी। पर वह कैसी
हंसी होगी! इस हंसी की कल्प ना मात्र से लाला झाऊलाल की अंतरात्मौ में मरोड़ पैदा हो जाता था।
अभी पं. बिलवासी मिश्र भी नहीं आए। आज ही शाम को उनके आने की बात थी। उन्हींद का भरोसा था। यदि न
आए तो? या कहीं रुपए का प्रबंध वे न कर सके तो?
इसी उधेड़-बुन में पड़े हुए लाल झाऊलाल धुर छत पर टहल रहे थे। कुछ प्याथस मालूम पड़ी। उन्होंोने नौकर को
आवाज दी। नौकर नहीं था। खुद उनकी पत्नील पानी लेकर आई। आप जानते ही हैं कि हिंदू समाज में स्त्रियों की
कैसी शोचनीय अवस्थान है! पति नालायक को प्याधस लगती है तो स्त्री। बेचारी को पानी लेकर हाजिर होना पड़ता
है।
वे पानी तो जरूर लाईं पर गिलास लाना भूल गई थीं। केवल लोटे में पानी लिए हुए वे प्रकट हुईं। फिर लोटा भी
संयोग से वह जो अपनी बेढंगी सूरत के कारण लाला झाऊलाल को सदा नापसंद था। था तो नया, साल ही दो साल
का बना, पर कुछ ऐसी गढ़न उस लोटे की थी कि जैसे उसका बाप डमरू और मां चिलमची रही हो।
लाला झाऊलाल ने लोटा ले लिया, वे कुछ बोले नहीं, अपनी पत्नीस का वे अदब मानते थे। मानना ही चाहिए। इसी
को सभ्याता कहते हैं। जो पति अपनी पत्नीी की पत्नीै नहीं हुआ वह पति कैसा! फिर उन्हों।ने यह भी सोचा होगा
कि लोटे में पानी हो तो तब भी गनीमत है-अभी अगर चूं कर देता हूं तो बालटी में जब भोजन मिलेगा तब क्या
करना बाकी रह जाएगा।

लाला झाऊलाल अपना गुस्साश पीकर पानी पीने लगे। उस समय वे छत की मुंडेर के पास खड़े थे। जिन बुजुर्गों ने
पानी पीने के संबंध में यह नियम बनाए थे कि खड़े-खड़े पानी न पियो, उन्होंयने पता नहीं कभी यह भी नियम
बनाया था या नहीं कि छत की मुंडेर के पास खड़े होकर पानी न पियो। जान पड़ता है इस महत्वनपूर्ण विषय पर
उन लोगों ने कुछ नहीं कहा है।
इसलिए लाला झाऊलाल ने कोई बुराई नहीं की और वे छत की मुंडेर के पास खड़े होकर पानी पीने लगे। पर
मुश्किल से दो-एक घूंट वे पी पाए होंगे कि न जाने कैसे उनका हाथ हिल उठा और लोटा हाथ से छूट पड़ा।
लोटे ने न दाहिने देखा न बाएं, वह नीचे गली की ओर चल पड़ा। अपने वेग में उल्काि को लजाता हुआ वह आंखों
से ओझल हो गया। किसी जमाने में न्यू,टन नाम के किसी खुराफाती ने पृथ्वील की आकर्षण शक्ति नाम की एक
चीज ईजाद की थी। कहना न होगा कि यह सारी शक्ति इस लोटे के पक्ष में थी।
लाला झाऊलाल को काटो तो बदन में खून नहीं। ठठेरी बाजार ऐसी चलती हुई गली में, ऊंचे तिमंजिले से, भरे हुए
लोटे का गिरना हंसी खेल नहीं है। यह लोटा न जाने किस अधिकारी के खोपड़े पर काशी-वास का संदेश लेकर
पहुंचेगा। कुछ हुआ भी ऐसा ही। गली में जोर का हल्लाि उठा। लाला झाऊलाल जब तक दौड़कर नीचे उतरे तब तक
भारी भीड़ उनके आंगन में घुस आई।
लाला झाऊलाल ने देखा कि इस भीड़ में प्रधान पात्र एक अंग्रेज है जो नखशिख से भीगा हुआ है और जो अपने एक
पैर को हाथ से सहलाता हुआ दूसरे पर नाच रहा है। उसी के पास उस अपराधी लोटे को देखकर लाला झाऊलाल जी
ने फौरन दो और दो जोड़कर स्थिति को समझ लिया। पूरा विवरण तो उन्हेंप पीछे प्राप्तो हुआ।
हुआ यह कि गली में गिरने से पूर्व लोटा एक दुकान के सायबान से टकरा गया। वहां टकराकर उस दुकान पर खड़े
उस अंग्रेज को उसने सांगोपांग स्नासन कराया और फिर उसी के बूट पर जा गिरा।
उस अंग्रेज को जब मालूम हुआ कि लाला झाऊलाल ही उस लोटे के मालिक हैं तब उसने केवल एक काम किया।
अपने मुंह को उसने खोलकर खुला छोड़ दिया। लाला झाऊलाल को आज ही यह मालूम हुआ कि अंग्रेजी भाषा में
गालियों का ऐसा प्रकांड कोश है।
इसी समय पं. बिलवासी मिश्र भीड़ को चीरते हुए आंगन में आते दिखाई पड़े। उन्होंशने आते ही पहला काम यह
किया कि एक कुर्सी आंगन में रखकर उन्होंनने साहब से कहा, आपके पैर में शायद कुछ चोट आ गई है। आप
आराम से कुर्सी पर बैठ जाइए। दूसरा एक जरूरी काम यहह किया कि जितने आदमी आंगन में घुस आए थे सबको
निकाल बाहर किया।
साहब बिलवासी जी को धन्यावाद देते हुए बैठे और लाला झाऊलाल की ओर इशारा करके बोले, आप इस शख्स
को जानते हैं?

बिल्कुंल नहीं और मैं ऐसे आदमी को जानना भी नहीं चाहता जो निरीह राह-चलतों पर लोटे से वार करे।
मेरी समझ में यह एक खतरनाक पागल है।
नहीं, मेरी समझ में यह एक खतरनाक मुजरिम है।
परमात्मा, ने लाला झाऊलाल की आंखों को इस समय कहीं देखने के साथ खाने की भी शक्ति दी होती तो यह
निश्च्य है कि अब तक बिलवासी जी को वे अपनी आंखों से खा चुके होते। वे कुछ समझ नहीं पाते थे कि बिलवासी
जी को इस समय हो क्या गया है।
साहब ने बिलवासी जी से पूछा, तो अब क्या करना चाहिए?
पुलिस में इस मामले की रिपोर्ट कर दीजिए, जिससे यह आदमी फौरन हिरासत में ले लिया जाए।
पुलिस स्टेमशन है कहां?
पास ही है, चलिए मैं बता दूं।
चलिए।
अभी चला। आपकी इजाजत हो तो पहले मैं इस लोटे को इस आदमी से खरीद लूं। क्यों जी! बेचोगे? मैं पचास
रुपए तक इसका दाम दे सकता हूं।
लाला झाऊलाल तो चुप रहे पर साहब ने पूछा, इस रद्दी से लोटे का आप पचास रुपए दाम क्योंा दे रहे हैं?
आप इस लोटे को रद्दी-सा बताते हैं? आश्च र्य है! मैं तो आपको एक विज्ञ और सुशिक्षित आदमी समझता था।
आखिर बात क्यात है, कुछ बताइए भी?
यह जनाब! एक ऐतिहासिक लोटा जान पड़ता है। मुझे पूरा विश्वाहस है कि यह वह प्रसिद्ध अकबरी लोटा है,
जिसकी तलाश में संसार भर के म्यू जियम परेशान हैं।

यह बात?
जी हां जनाब! सोलहवीं शताब्दीू की बात है। बादशाह हुमायूं शेरशाह से हारकर भागा था और सिंध के रेगिस्ताजन
में मारा-मारा फिर रहा था। एक अवसर पर प्या स से उसकी जान निकल रही थी। उस समय एक ब्राह्मण ने इसी
लोटे से पानी पिलाकर उसकी जान बचाई थी। हुमायूं के बाद जब अकबर दिल्लीकश्वहर हुआ तब उसने उस ब्राह्मण
का पता लगाकर उससे इस लोटे को ले लिया और इसके बदले में उसे इसी प्रकार के दस सोने के लोटे प्रदान किए।
यह लोटा सम्राट अकबर को बहुत प्यालरा था। इसी से इसका नाम अकबरी लोटा पड़ा, वह बराबर इसी से वजू
करता था। सन 57 तक इसके शाही घराने में ही रहने का पता है पर इसके बाद लापता हो गया। कलकत्ते के म्यू
जियम में इसका प्लाास्टकर का मॉडेल रखा हुआ है। पता नहीं यह लोटा इस आदमी के पास कैसे आया। म्यू
जियम वालों को पता चले तो फैंसी दाम देकर खरीद ले जाएं।
इस विवरण को सुनते-सुनते साहब की आंखों पर लोभ और आश्चनर्य का ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे कौड़ी के आकार से
बढ़कर पकौड़ी के आकार के हो गए। उसने बिलवासी जी से पूछा, तो आप इस लोटे को लेकर क्याक करिएगा?
मुझे पुरानी और ऐतिहासिक चीजों का संग्रह करने का शौक है।
मुझे भी पुरानी और ऐतिहासिक चीजों का संग्रह करने का शौक है। जिस समय यह लोटा मेरे ऊपर गिरा उस समय
मैं यही कर रहा था। उस दुकान पर से पीतल की कुछ पुरानी मूर्तियां खरीद रहा था।
जो कुछ हो लोटा तो मैं ही खरीदूंगा।
वाह, आप कैसे खरीदेंगे? मैं खरीदूंगा। मेरा हक है।
हक है?
जरूर हक है। यह बताइए कि उस लोटे के पानी से आपने स्नानन किया या मैंने?
आपने।
वह आपके पैर पर गिरा या मेरे?
आपके।
अंगूठा उसने आपका भुरता किया या मेरा?

आपका।
इसलिए उसे खरीदने का हक मेरा है।
यह सब झोल है। दाम लगाइए, जो अधिक दाम दे वह ले जाए।
यही सही। आप उसका पचास रुपया दे रहे थे, मैं सौ देता हूं।
मैं डेढ़ सौ देता हूं।
मैं दो सौ देता हूं।
अजी मैं ढाई सौ देता हूं। यह कहकर बिलवासी जी ने ढाई सौ के नोट लाला झाऊलाल के आगे फेंक दिए।
साहब को भी अब ताव आ गया। उसने कहा, आप ढाई सौ देते हैं तो मैं पांच सौ देता हूं। अब चलिए?
बिलवासी जी अफसोस के साथ अपने रुपए उठाने लगे, मानो अपनी आशाओं की लाश उठा रहे हों। साहब की ओर
देखकर उन्होंने कहा, लोटा आपका हुआ, ले जाइए! मेरे पास ढाई सौ से अधिक हैं नहीं।
यह सुनना था कि साहब के चेहरे पर प्रसन्नवता की कूंची फिर गई। उसने झपटकर लोटा उठा लिया और बोला,
अब मैं हंसता हुआ अपने देश लौटूंगा। मेजर डगलस की डींग सुनते-सुनते मेरे कान पक गए थे।
मेजर डगलस कौन हैं?
मेजर डगलस मेरे पड़ोसी हैं। पुरानी चीजों का संग्रह करने में मेरी उनकी होड़ रहती है। गत वर्ष वे हिंदुस्ता्न आए
थे और यहां से जहांगीरी अंडा ले गए थे।
जहांगीरी अंडा?
जी हां जहांगीरी अंडा। मेजर डगलस ने समझ रखा था कि हिंदुस्तामन से वे ही ऐसी चीजें ले जा सकते हैं।
पर जहांगीरी अंडा है क्या ?

आप जानते होंगे कि एक कबूतर ने नूरजहां से जहांगीर का प्रेम कराया था। जहांगीर के पूछने पर कि मेरा एक
कबूतर तुमने कैसे उड़ जाने दिया, नूरजहां ने उसके दूसरे कबूतर को भी उड़ाकर बताया था कि ऐसे। उसके इस
भोलेपन पर जहांगीर सौ जान से निछावर हो गयाय उसी क्षण से उसने अपने को नूरजहां के हाथ बेच दिया। पर
कबूतर का एहसान वह नहीं भूला। उसके एक अंडे को उसने बड़े जतन से रख छोड़ा। एक बिल्लौीर की हांड़ी में वह
उसके सामने टंगा रहता था। बाद में वही अंडा जहांगीरी अंडा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसी को मेजर डगलस ने
परसाल दिल्लीर में एक मुसलमान सज्ज न से तीन सौ रुपए में खरीदा।
यह बात?
हां, पर अब वे मेरे आगे दूर की नहीं ले जा सकते। मेरा अकबरी लोटा उनके जहांगीरी अंडे से भी एक पुश्तर पुराना
है।
साहब ने लाला झाऊलाल को पांच सौ रुपए देकर अपनी राह ली। लाला झाऊलाल का चेहरा इस समय देखते बनता
था। जान पड़ता था कि मुंह पर छः दिन की बढ़ी हुई दाढ़ी के एक-एक बाल मारे प्रसन्नाता के लहरा रहे हैं।
उन्हों।ने पूछा, बिलवासी जी! आप मेरे लिए ढाई सौ रुपया घर से लेकर चले थे? पर आपको मिला कहां से? आप
के पास तो थे नहीं।
इस भेद को मेरे सिवा ईश्वपर ही जानता है। आप उसी से पूछ लीजिए। मैं नहीं बताऊंगा।
पर आप चले कहां? अभी मुझे आपसे काम है, दो घंटे तक।
दो घंटे तक?
हां और क्या।! अभी मैं आपकी पीठ ठोंककर शाबाशी दूंगाय एक घंटा इसमें लगेगा। फिर गले लगाकर धन्य?वाद
दूंगा, एक घंटा इसमें भी लग जाएगा।
अच्छान पहले अपने पांच सौ रुपए गिनकर सहेज लीजिए।
रुपया अगर अपना हो तो उसे सहेजना एक ऐसा सुखद और सम्मो हक कार्य है कि मनुष्यर उस समय सहज में ही
तन्मायता प्राप्तं कर लेता है। लाला झाऊलाल ने अपना कार्य समाप्तम करके ऊपर देखा। पर बिलवासी जी इस बीच
अंतर्धान हो गए थे।
वे लंबे डग भरते हुए गली में चले जा रहे थे।

उस दिन रात्रि में बिलवासी जी को देर तक नींद नहीं आई। वे चादर लपेटे चारपाई पर पड़े रहे। एक बजे वे उठे।
धीरे-से, बहुत धीरे-से, अपनी सोई हुई पत्नीह के गले से उन्होंकने सोने की वह सिकड़ी निकाली जिसमें एक ताली
बंधी हुई थी। फिर उसके कमरे में जाकर उन्होंठने उस ताली से संदूक खोला। उसमें ढाई सौ के नोट ज्योंी-के-ज्यों
रखकर उन्होंाने उसे बंद कर दिया। फिर दबे पांव लौटकर ताली को उन्होंाने पूर्ववत अपनी पत्नीी के गले में डाल
दिया। इसके बाद उन्होंलने हंसकर अंगड़ाई ली, अंगड़ाई लेकर लेट रहे और लेटकर मर गए।
दूसरे दिन सुबह आठ बजे तक वे जीवित भए।


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