सांसों की किफायत

asiakhabar.com | July 21, 2020 | 4:10 pm IST

अर्पित गुप्ता

कोरोना काल में बिगड़ते मंसूबों को फिर से खड़ा करने के लिए, नई जमीन की जरूरत रहेगी। निजी क्षेत्र अपनी
सांसों की किफायत में जीने की कोशिश कर रहा है, तो सरकारी घंटियों को नई हवाओं का घर्षण महसूस करना
होगा। हिमाचल के परिप्रेक्ष्य में सार्वजनिक क्षेत्र की चिंताएं फिलहाल सामने न आई हों, लेकिन कोरोना जंग से

बाहर निकलने की जुस्तजू दिखाई देनी चाहिए। हिमाचल सरकार अब उस एहसास की पताका नहीं फहरा सकती जो
कभी पिछले जनादेश को चिन्हित करता था। अब तो यह साबित करने का दौर है कि कोरोना के दंश निकल जाएं
और एक नई पटरी पर समाधानों की आशा को क्षमता में बदला जा सके। जयराम सरकार ने राज्य की उधेड़बुन से
बाहर निकलने के लिए निजी निवेश को अंगीकार किया था, तो अब इन कसरतों की हिमायत में प्रयास देखे
जाएंगे। हिमाचल का माइंड सेट कुछ इस दिशा में अग्रसर रहा है कि निजी क्षेत्र या निजी तौर पर प्रयोगधर्मिता का
स्थान ही कमजोर हो गया। हिमाचल निजी बस आपरेटर संघ ने किराया वृद्धि पर विपक्ष से पूछ कर यही साबित
किया है कि कोरोना काल में केवल राजनीतिक विरोध के लिए मसौदा बनाया जा रहा है जबकि वर्तमान स्थिति के
परिप्रेक्ष्य में हर क्षेत्र पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करना होगा। क्या राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में निजी क्षेत्र की
भागीदारी को रौंद कर नीतियां सफल होंगी या राज्य की क्षमता में नागरिक समाज को केवल लाभार्थी बना कर ही
प्रदेश के आर्थिक खाते संपन्न होंगे। व्यापार और बाजार के लिए अगर मैत्रीपूर्ण ढंग से नहीं सोचा, तो कोरोना काल
के बाद आर्थिक मरघट ही सजेंगे। जाहिर तौर पर पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के नजरिए से सरकारों को सोचना
होगा, वरना सरकारी ढांचा राज्य की क्षमता को दीमक की तरह चाटता रहेगा। सरकारी निवेश को अगर निजी क्षेत्र
की तरह समझा जाए, तो प्रबंधन की तलाश में कई अवसर और लक्ष्य दिखाई देंगे। प्रदेश अपने चयनित स्कूल-
कालेजों तथा स्वास्थ्य संस्थानों का संचालन अगर प्रबंधकीय दृष्टि से करे तो लागत और खर्च के बीच वित्तीय
संतुलन पैदा होगा। सरकार के अपने प्रबंधन में नवाचार की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए अगर कुछ बस स्टैंड
को एक आर्थिक मॉडल के रूप में चुना जाए, तो ढांचागत व व्यवस्थागत सुधारों से ये नए निवेश केंद्र बन सकते
हैं। पर्यटन राज्य की नई तस्वीर को अगर प्रमुख मार्गों पर हर दस किलोमीटर के फासले पर स्थापित किया जाए,
तो ग्रामीण आर्थिकी में कितने ही हॉट बाजार, मनोरंजन स्थल, हाई-वे सुविधाएं तथा हिमाचली उत्पादों के लिए
बिक्री केंद्र विकसित हो सकते हैं। निजी क्षेत्र के सहयोग से शिक्षा की बैसाखियां हटाई जा सकती हैं। उदाहरण के
लिए मछली, शहद व जड़ी-बूटियों के उत्पादन में हिमाचल की अपनी क्षमता है, लेकिन इन्हें शिक्षा का विषय
मानकर किसी विश्वविद्यालय ने पहल नहीं की। पौंग के किनारे स्थापित नगरोटा सूरियां कालेज को फिशरीज स्टडी
का प्रमुख केंद्र मानकर बीएससी, डिप्लोमा तथा मार्केटिंग पर पाठ्यक्रम तैयार किए होते, तो प्रदेश की क्षमता को
निश्चित रूप से बहुत कुछ हासिल होता। कुछ इसी तरह नगरोटा बगवां के शहद अनुसंधान केंद्र को किसान की
पृष्ठभूमि से जोड़ते हुए इसे वहां के कालेज को सौंप कर विशेष पाठ्यक्रम चलाया जा सकता है। सरकार का फर्ज
अगर अपने नागरिकों को गुणवत्तायुक्त सेवाएं नहीं दे रहा है, तो यह नवाचार की कमी है। प्रदेश नगर निकायों के
वर्तमान ढांचे को अगर भविष्य के निवेश का प्रबंधन करना है, तो नीतियों के अलावा ढांचागत सुधारों की
संभावनाएं दिखाई देनी चाहिएं। हिमाचल सरकार को कोविड काल के बाहर अब नई योजनाओं, परियोजनाओं और
नीतियों पर गौर करते हुए अपने वर्तमान ढांचे की उपयोगिता बढ़ानी होगी। ऐसा संभव नहीं कि सरकार केवल
सार्वजनिक ढांचे के बीच बैठकर इस दौर से बाहर निकल पाएगी, बल्कि अप्रत्याशित परिस्थितियों को फिर से
सामान्य बनाने के लिए नागरिक व्यवहार को प्रश्रय देने का नया अर्थ गढ़ना होगा। सरकारों की आलोचना होगी,
आर्थिक दबाव बढ़ेंगे और वित्तीय व्यवस्था को समेटने की जरूरत भी रहेगी, लेकिन यह ऐसा अवसर भी है जो
सार्वजनिक क्षेत्र में नवीनता और प्राइवेट सेक्टर में सहभागिता को नए मंच पर ले जा सकता है। कोविड-19 ने
सरकार की भूमिका में बदलाव पेश करते हुए इन्हें काम करने को तरह-तरह की नसीहतें दी हैं। लॉकडाउन से
अनलॉक होते मंजर में न पहले की स्थितियां लौटी हैं और न ही कोरोना से अभिशप्त हुई रफ्तार के विराम टूटे हैं।

ऐसे में राज्य को धीरे-धीरे अपने ढर्रों, वादों और सपनों से बाहर निकल कर मौजूदा हकीकत का सामना करने के
लिए कार्य संस्कृति का परिचय और जनता की अभिलाषा को सहयोग के दायित्व बोध के लिए तैयार करना होगा।


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