राजीव गोयल
राजस्थान की कांग्रेस सरकार का पतन टल गया, लेकिन संकट बरकरार है। फिलहाल उसका हश्र मध्यप्रदेश जैसा
नहीं हुआ है, लेकिन यह मौजूदा दौर की सबसे बड़ी और गंभीर राजनीतिक बगावत है। सत्तारूढ़ दल में विभाजन
स्पष्ट हो गया है। हालांकि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने 102 या 106 विधायकों की बैठक कर अपने बहुमत का
दावा किया है, लेकिन स्थानीय जानकार उसे ‘छलावा’ करार दे रहे हैं। बागी उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट का दावा
है कि मुख्यमंत्री को 84 विधायकों का समर्थन हासिल है। सोमवार और मंगलवार को जो बहुमत दिखाया गया था,
उसमें कांग्रेस के साथ-साथ निर्दलीय और अन्य विधायक भी शामिल थे, लिहाजा सरकार अल्पमत में है। पायलट
खेमे के विधायक अपने फैसले पर अड़े रहे। चेतावनी के बावजूद वे विधायक दल की बैठक में शामिल नहीं हुए।
उनकी संख्या 20-25 के बीच बताई जा रही है। बहुमत का सच तभी सामने आएगा, जब विधानसभा का विशेष
सत्र बुलाया जाएगा और सरकार नए सिरे से विश्वास-मत हासिल करेगी। लिहाजा मुख्यमंत्री प्रस्ताव पारित करा लें
या बागी खेमा कुछ भी दावे करता रहे, सब बेमानी है। तब तक ‘खेल’ जारी रहेगा। राजनीतिक बगावत किसी भी
पराकाष्ठा तक जा सकती है। बहरहाल पायलट का विद्रोह गंभीर लगता है, क्योंकि पार्टी आलाकमान के पांच बड़े
नेताओं के फोन और मध्यस्थता के बावजूद वह पिघले नहीं हैं। हैरत यह है कि मंगलवार दोपहर तक न तो उप
मुख्यमंत्री और न ही प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया था। यह ही राजनीति है कि अंततः उन्हें दोनों पदों से
बर्खास्त कर दिया गया। उनके समर्थक मंत्रियों को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। यानी कांग्रेस में ही लौटने
की संभावनाएं अब खत्म हो गई हैं। गोविंद सिंह को नया प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है। लेकिन यह बगावत कांग्रेस
नेतृत्व के लिए भारी चुनौती है। पायलट ने भाजपा में न जाने की घोषणा भी की है। कांग्रेस में मुख्यमंत्री और उप
मुख्यमंत्री के बीच टकराव कोई नई बात नहीं है। दलबदल के अलावा सरकारों की बर्खास्तगी और रातोंरात मुख्यमंत्री
बदलना कांग्रेस की पुरानी परंपरा रही है। हालांकि राजस्थान कांग्रेस में बगावत का यह बुनियादी कारण नहीं है।
गहलोत बनाम पायलट का टकराव दो पीढि़यों का संघर्ष भी हो सकता है, लेकिन उप मुख्यमंत्री के खिलाफ ऐसी
कार्रवाई सामने आई है, जो अभी तक के इतिहास में अभूतपूर्व और अप्रत्याशित है। पायलट की तात्कालिक
नाराजगी की बुनियाद यही है। मुख्यमंत्री के अधीन गृह विभाग ने उप मुख्यमंत्री को ‘देशद्रोह’ की कानूनी धारा के
तहत नोटिस भेजा था। क्या मजाक और पारदर्शिता है यह…! दरअसल गहलोत पायलट का पंगा ही समाप्त कर देना
चाहते थे, जिसमें वह सफल रहे। बेशक वह वरिष्ठ और अनुभवी नेता हैं, लेकिन पायलट ने राजस्थान कांग्रेस का
नेतृत्व तब संभाला था, जब गहलोत के नेतृत्व में पार्टी बहुत बुरी तरह चुनाव हारी थी और 80 फीसदी से ज्यादा
जनादेश के साथ भाजपा सत्ता में आई थी। उस नौजवान नेता ने पांच लंबे सालों तक संघर्ष किया और कांग्रेस के
लिए वैकल्पिक जनमत तैयार किया। दिसंबर, 2018 में कांग्रेस को जनादेश मिला, तो उसके सूत्रधार और चेहरा
सचिन पायलट ही थे, लिहाजा मुख्यमंत्री बनने की उनकी महत्त्वाकांक्षा स्वाभाविक ही थी। गहलोत तब तक दृश्य से
गायब थे और पार्टी संगठन में काम कर रहे थे। आलाकमान ने गलत निर्णय लिया और क्षमता, प्रतिभा, युवा चेहरे
पर अनुभवी और बुजुर्ग नेता को मुख्यमंत्री बनाना तय किया। पायलट को ‘खून की घूंट’ पीनी पड़ी, क्योंकि उन्हें
उप मुख्यमंत्री पद देना तय हुआ था और उनका प्रदेश नेतृत्व बरकरार रहना था। वह कसक अब बगावत बनकर
सामने आई है, क्योंकि उन्हें ‘देशद्रोही’ करार देने की प्रक्रिया शुरू की गई है। सरकार रहे या न रहे, लेकिन कांग्रेस
के इस भीतरी कलह और टकराव के नतीजे अच्छे नहीं हो सकते। बेशक कांग्रेस भाजपा की भूमिका को कोसती रहे,
लेकिन अभी सरकार बनाने से वह बहुत दूर है, क्योंकि उसके 72 विधायक ही हैं और सरकार बनाने के लिए
कमोबेश 101 विधायक चाहिए। पायलट के पालाबदल से भी वह संभव नहीं है। यकीनन भाजपा की निगाह
घटनाक्रम पर जरूर होगी, क्योंकि वह भी एक राजनीतिक पार्टी है। बहरहाल अब भाजपा ने भी सदन में विश्वास-
मत जीतने की मांग की है। राज्यपाल भी हस्तक्षेप कर सकते हैं। अब पायलट क्या करेंगे? नई पार्टी बनाएंगे या
भाजपा में शामिल होंगे, यह भविष्य की सियासत है। जो घटित हुआ है, उसे ही अभिधा में ग्रहण न किया जाए।