विनय गुप्ता
भारत चीन विवाद तथा गलवान घाटी में हुई बीस भारतीय सैनिकों की शहादत जैसे टी आर पी आधारित समाचारों
को पिछले दिनों पीछे धकेलते हुए उत्तर प्रदेश के कानपुर के बिकरू गांव में हुई आठ पुलिस कर्मियों की शहादत
मीडिया में अपनी सुर्ख़ियाँ बटोरने में कामयाब हुई थीं। दो जुलाई को देर रात कानपुर देहात के चौबेपुर थाने का एक
पुलिस दल शिकायत कर्ता राहुल तिवारी द्वारा विकास दुबे के ख़िलाफ़ धारा-307 के तहत दर्ज एक आपराधिक
मामले में उसे गिरफ़्तार करने पहुंचा था। तभी दूबे व उसके साथियों ने इस पुलिस दल ए के 47 जैसे आधुनिक
स्वचालित शस्त्रों के द्वारा गोलियों की बौछार कर डाली। नतीजतन एक डी एस पी, एक थानाध्यक्ष सहित कुल
आठ पुलिस कर्मी मौक़े पर ही शहीद हो गए। अभी इस ख़बर पर चर्चा के बीच विकास दूबे के कई साथियों के
कथित एनकाउंटर की ख़बरें आनी शुरू हुई थीं कि अचानक रहस्मयी तरीक़े से उज्जैन के महाकाल मंदिर से उसे
मंदिर के सुरक्षा गार्ड द्वारा पकड़े जाने व बाद में मध्य प्रदेश पुलिस के हवाले किये जाने की ख़बरें आने लगीं।
बहस छिड़ी, कि विकास दुबे ने आत्म समर्पण किया या जानबूझकर किसी योजना के तहत गिरफ़्तारी दी? बहरहाल
मध्य प्रदेश सरकार ने सरकारी औपचारिकताओं को आनन फ़ानन में पूरा कर विकास दुबे को यू पी पुलिस के हवाले
कर दिया। हालांकि 9 जुलाई को उज्जैन से अधिकांश मीडिया द्वारा यही ख़बरें प्रसारित की गईं कि कानपुर पुलिस
शूट आउट के मुख्य आरोपी विकास दूबे को लगभग दस घंटे की कड़ी पूछताछ के बाद उत्तर प्रदेश पुलिस की
स्पेशल टास्क फ़ोर्स के हवाले कर दिया गया है जो उसे 'विशेष विमान से लेकर कानपुर के लिए' रवाना हो गयी है।
उज्जैन के पुलिस अधीक्षक ने भी यही यह कहा था कि विकास दुबे को यूपी एसटीएफ़ के हाथों सौंप दिया गया है
और यूपी एसटीएफ़ विकास दूबे को लेकर कानपुर के लिए रवाना हो गई है। रहस्य तो यहीं से शुरू हो जाते हैं कि
विकास को विशेष विमान से लाए जाने की ख़बर कहाँ से शुरू हुई, इस ख़बर के सूत्र क्या थे?और यदि यह ख़बर
सही थी और उसे विमान से ही लाया जाना था फिर आख़िर लगभग दस घंटे की उज्जैन में हुई पूछ ताछ में ऐसा
क्या हो गया कि उसके विशेष विमान से आने का कार्यक्रम बदल कर बरसात की पूरी रात में सड़क मार्ग से
लगभग 13 घंटों की 670 किलोमीटर लंबी यात्रा करने जैसा ज़ोख़िम भरा क़दम उठाना पड़ा?
बहरहाल, इसी कथित उज्जैन-कानपुर यात्रा के दौरान कानपुर के समीप बर्रा पुलिस थानान्तर्गत एक कथित मुठभेड़
में उसे मार गिराया गया। अब इस पूरे घटनाक्रम पर तरह तरह के आरोप प्रत्यारोप, शक, राजनैतिक संरक्षण जैसे
कई तरह के अलग अलग पहलुओं पर चर्चा छिड़ी हुई है। परन्तु दो जुलाई की बिकरू घटना से लेकर 10 जुलाई के
विकास दूबे शूट आउट तक पुलिस विभाग के सामने भी पुलिस की चौकसी, पुलिस प्रशिक्षण, तत्परता, ख़ुफ़िया
सुचना तंत्र, अपने ही महकमे में छुपे बैठे 'विभीषणों' के प्रति अनभिज्ञता अथवा उदासीनता जैसे कई गंभीर व अति
महत्वपूर्ण सवाल खड़े होते हैं। ऐसी ही एक सबसे बड़ी लापरवाही थी ऐसे दुर्दांत आतंकी को सड़क के रास्ते उज्जैन
से कानपुर लेकर आना। रास्ते में यदि उसकी गाड़ी 'पलटी-पलटाई' न भी गयी होती तो भी उसे छुड़ाने के लिए
उसके बचे साथी पुलिस दल पर हमला बोल सकते थे। और जैसे अब कथित मुठभेड़ में कुछ जवान मामूली रूप से
घायल हुए हैं तब किसी बड़ी मुठभेड़ में जानें भी जा सकती थीं? यह जांच का विषय है कि उसे सड़क मार्ग से
लाने का फ़ैसला क्यों और किसके कहने पर किया गया।
रहा प्रश्न विकास द्वारा भागने की कोशिश करना, हथियार छीन कर भागना और पुलिस कर्मियों की चेतावनी के
बावजूद समर्पण करने के बजाए मुठभेड़ पर आमादा होना और तब पुलिस की जवाबी कार्रवाई में उसका मारा जाना,
आदि। यदि पुलिस की यह थ्योरी हू बहू सही है फिर तो इसका मतलब यही हुआ कि इतने बड़े दुर्दांत आतंकी यहाँ
तक कि पुलिस के ख़ून के प्यासे व क़त्ल जैसे लगभग 60 जघन्य अपराधों का सामने कर रहे मुजरिम को लगभग
760 किलोमीटर के रस्ते में उसे लाने के प्रबंध कैसे हों, उसकी सुरक्षा के क्या माक़ूल इंतज़ाम होने चाहिए, स्वयं
अपराधी को किस तरह रखा जाना चाहिए ताकि उसके हाथ-पांव किसी सुरक्षाकर्मी तक पहुँच न सकें। आम तौर से
ऐसे अपराधियों के दोनों हाथ पीछे की तरफ़ बाँध दिए जाते हैं। यहाँ भी और इस तरह के और भी सैकड़ों मामलों
में यह सुना जाता रहा है कि अपराधी या तो पुलिस कस्टडी से भाग गया या फिर इसी तरह भागने की कोशिश में
मारा गया। यह घिसा पिटा तरीक़ा अपनाने और फ़र्ज़ी मुठभेड़ जैसा 'लांछन' झेलने की आख़िर ज़रुरत ही क्यों
पड़ती है।
ख़बरों के अनुसार पुलिस विभाग के कुछ लोगों ने ही विकास को 2 जुलाई को पुलिस के देर रात पहुँचने की सूचना
दी। यह मामला कितना गंभीर है। इसका अर्थ यही हुआ कि पुलिस अपने ख़ुफ़िया तंत्र से तो नाकाम है ही साथ
साथ अपनी ही आस्तीन के सांपों से भी बेख़बर है। ऐसी लचर व्यवस्था में किसी इससे बड़े और संगीन ऑपरेशन
की कैसे और क्या उम्मीद की जा सकती है। शस्त्रों के मामले में भी हमारी पुलिस आतंकवादियों व गैंगस्टर्स से
पीछे है। पिस्टल, रिवॉल्वर्स या थ्री नॉट थ्री जैसे पुराने हथियारों से ए के 47 और ए के 56 या दूसरी अनेक
स्वचालित राइफ़ल्स का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता। इसके बावजूद धन्य है हमारे देश का पुलिस तंत्र कि
सरकार उसके हाथों में जो भी शस्त्र थमा देती है उसी को लेकर सुरक्षा कर्मी अपनी जान की परवाह किये बिना
किसी भी अपराधी से बिना इस सूचना के दो दो हाथ करने लग जाते हैं कि उसके पास कैसे हथियार हैं या
अपराधियों की सही संख्या क्या है? इस तरह की अपूर्ण तैयारी के बावजूद यहाँ तक कि 'विभागीय विभीषणों' के
बावजूद हमारे पुलिसकर्मी अपनी जान पर खेलकर जब इतनी दिलेरी व बहादुरी से हर तरह की मुठभेड़ का सामना
करने को तत्पर रहते हैं तो सोचने का विषय है कि यदि इनके पास आधुनिकतम शास्त्र हों, सटीक गुप्तचर तंत्र हो,
अपराधियों व माफ़ियाओं पर राजनेताओं का वरद हस्त न हो, प्रत्येक सिपाही व अधिकारी अपने कर्तव्यों के प्रति
वैसा ही वफ़ादार हो जैसी कि उसने सेवा शपथ ली हुई है, तो निश्चित रूप से भारतीय पुलिस एक आदर्श पुलिस के
रूप में अपनी पहचान बना सकती है। अन्यथा विकास शूट आऊट, या दंगे फ़साद में पक्षपात पूर्ण भूमिका,
रिश्वतख़ोरी, पुलिसिंग में राजनैतिक दख़लअंदाज़ी, अपराधी मानसिकता के लोगों का विभाग में भर्ती हो जाना जैसी
अनेक बातें हैं जो अपराधी व राजनीति के नेटवर्क पर तो सवाल उठाती ही हैं साथ साथ पुलिस चौकसी पर भी
सवाल खड़ा करती हैं।