विनय गुप्ता
पिछले कुछ महीनों से केरल ख़बरों में है. मीडिया में राज्य की जम कर तारीफ हो रही है. केरल ने कोरोना वायरस
का अत्यंत मानवीय, कार्यकुशल और प्रभावकारी ढंग से मुकाबला किया. इसके बहुत अच्छे नतीजे सामने आये और
लोगों को कम से कम परेशानियाँ भोगनी पडीं. केरल एक ऐसा राज्य है जहाँ सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं बहुत
अच्छी हैं और लोगों की उन तक आसान पहुँच है. यह एक ऐसा राज्य भी है जहाँ धार्मिक राष्ट्रवादियों को अब तक
कोई ख़ास चुनावी सफलता नहीं मिल सकी है. यह इस तथ्य के बावजूद कि राज्य में आरएसएस शाखाओं का
अच्छा-खासा नेटवर्क है और संघ ने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश सहित अनेक मुद्दों का
साम्प्रदायिकीकरण करने का हर संभव प्रयास किया है. कन्नूर जिले में संघ और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के
कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झडपें होती रहतीं हैं, जिनके लिए वे एक-दूसरे को दोषी ठहराते हैं और मृतकों के
आंकड़ों के जरिये यह साबित करने का प्रयास करते हैं कि दूसरा उनसे ज्यादा हिंसा कर रहा है.
अगले वर्ष (2021) मलाबार विद्रोह, जिसे मोपला विद्रोह भी कहा जाता है, की 100वीं वर्षगांठ मनाई जानी है.
यह सांप्रदायिक शक्तियों के लिए समाज को ध्रुवीकृत करने का एक सुनहरा मौका होगा. हाल में, फिल्म निदेशक
आशिक अबु ने घोषणा की कि वे इस विद्रोह के एक नेता, वरियामकुन्नत कुनहम्देद हाजी, जिन्हें अंग्रेजों ने मौत
की सजा दी थी, के जीवन पर ‘वरियामकुन्नन’ नाम से एक फिल्म बनाएंगे. कुनहम्देद हाजी ने ज़मींदारों और
उनके गुर्गों के हाथों दमन का शिकार हो रहे कृषकों के लिए संघर्ष किया था. इन जमींदारों, जिन्हें जनमी कहा
जाता था, में से अधिकांश ऊंची जातियों के हिन्दू थे, जिन्हें अंग्रेजों का संरक्षण प्राप्त था. यह दिलचस्प है कि
समस्या इसलिए शुरू हुई क्योंकि जमींदार हिन्दू थे और किसान, मुसलमान.
जैसा कि हम सब जानते हैं भारत में इस्लाम अरब व्यापारियों के ज़रिये मलाबार तट के रास्ते आया था. मलाबार
क्षेत्र की चेरामन जुमा मस्जिद, इस्लाम के भारत में प्रवेश का प्रतीक है. जो लोग जाति और वर्ण व्यवस्था से
पीड़ित थे उन्होंने इस्लाम अंगीकार कर लिया.
फिल्म के निर्माण की घोषणा से सांप्रदायिक तत्वों को मानो एक मौका हाथ लग गया. हिन्दू ऐक्य वेदी नामक एक
संस्था ने फिल्म निर्माताओं के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया है. संस्था का कहना है कि प्रस्तावित फिल्म के
ज़रिये हाजी और मोपला विद्रोह (जिसे माप्पिला विद्रोह भी कहा जाता है) के नेताओं का महिमामंडन करने के प्रयास
हो रहे हैं. यह विद्रोह मलाबार के दक्षिणी हिस्से में अगस्त 1921 में शुरू हुआ था और जनवरी 1922 में हाजी,
अंग्रेजों के हाथ चढ़ गए थे. विद्रोह असफल हो गया और अंग्रेजों ने क्रूरतापूर्वक इसका दमन किया. इसे मुसलमान
बनाम हिन्दू टकराव का स्वरुप दे दिया गया जबकि इसके नेतृत्व का उद्देश्य किसानों की समस्याओं को दूर करना
था. कुछ मुट्ठीभर तत्वों ने इसे हिन्दू-विरोधी रंग देने की कोशिश भी की. आर्य समाज (आधुनिक भारत पर सुमित
सरकार की पुस्तक में उद्दृत) के अनुसार इस विद्रोह के दौरान 2,500 हिन्दुओं को मुसलमान बनाया गया और
600 को मौत के घाट उतार दिया गया.
यह विद्रोह उस समय हुआ था जब पूरी दुनिया में तुर्की में खिलाफत की पुनर्स्थापना के लिए आन्दोलन चल रहा
था. भारत में गाँधीजी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, खिलाफत आन्दोलन का समर्थन कर रही थी. इसके
पीछे गांधीजी और कांग्रेस का उद्देश्य मुसलमानों को ब्रिटिश-विरोधी आन्दोलन का हिस्सा बनाना था. मोपला विद्रोह
के दौरान हाजी के नेतृत्व में जिन लोगों पर हमले हुए उनमें अंग्रेजों के प्रति वफ़ादार मुसलमान भी शामिल थे. कुछ
कट्टरपंथी तत्वों ने इस विद्रोह को हिन्दुओं के खिलाफ बताया. सच यह है कि इस विद्रोह में कई गैर-मुसलमानों ने
भी हिस्सेदारी की थी और अनेक ऐसे मुसलमान भी थे जिन्होंने इससे दूरी बनाये रखी.
इस विद्रोह की जड़ में था निर्धन किसानों का दमन. विद्रोह का सिलसिला सन 1921 से बहुत पहले ही शुरू हो
गया था. जैसे-जैसे पुलिस, अदालतों और राजस्व अधिकारियों की मिलीभगत से जनमी ज़मींदारों के अत्याचार बढ़ते
गए, वैसे-वैसे मोपला किसान विद्रोही होते गए. सबसे पहला विद्रोह 1836 में हुआ. सन 1836 और 1854 के
बीच, किसानों ने कम से कम 22 बार बगावत की. इनमें से 1841 और 1849 के विद्रोह काफी बड़े थे.
इस विद्रोह के कारणों का समाजशास्त्री डी.एन. धनगारे ने बहुत सारगर्भित वर्णन किया है. उनके अनुसार, विद्रोह के
पीछे था, “किसानों के पट्टे की अवधि का निश्चित न होना, ज़मींदारों और किसानों के परस्पर रिश्तों में गिरावट
और गरीब किसानों का राजनैतिक दृष्टि से अलग-थलग पड़ जाना.” वे लिखते हैं कि पट्टे से जुड़े मुद्दों पर शुरू
हुआ यह आन्दोलन, खिलाफत और असहयोग आंदोलनों से जुड़ गया. सन 1919 में शुरू हुए खिलाफत आन्दोलन
ने मुस्लिम किसानों को अपनी शिकायतों और तकलीफों का और खुल कर इज़हार करने की हिम्मत दी. खिलाफत
आन्दोलन ने इस्लाम के मानने वालों में वैश्विक स्तर पर एकता के भाव को जन्म दिया. स्थानीय समस्याएं,
वैश्विक मुद्दों से जुड़ गयीं. बाद में खलीफा को अपदस्थ कर दिए जाने से जो निराशा और कुंठा उपजी, उससे
हिंसा और तेज हो गई.
इस सबके बीच भी हाजी, जिन पर फिल्म प्रस्तावित है, इस विद्रोह को धार्मिक रंग दिए जाने के सख्त खिलाफ थे.
यह सही है कि एक छोटे-से तबके ने इसे सांप्रदायिक रंग दिया और वह इसलिए क्योंकि इस विद्रोह के निशाने पर
जो जनमी (जमींदार) थे, वे मुख्यतः ऊंची जातियों के हिन्दू थे. ब्रिटिश शासन, शोषक और पीड़क ज़मींदारों का
रक्षक था. इसीलिए विद्रोह के दौरान हाजी के नेतृत्व में ऐसे मुसलमानों पर भी हमले हुए जो अंग्रेजों के प्रति
वफ़ादार थे.
मलाबार विद्रोह से कुछ हद तक दोनों समुदायों के बीच रिश्तों में कड़वाहट आई. परन्तु यह अनायास हुआ और
विद्रोह के नेताओं जैसे हाजी का ऐसा करने का कोई इरादा नहीं था. हाँ, अंग्रेजों ने बांटो और राज करो की अपनी
नीति के अनुरूप इसे मुसलमानों के हिन्दुओं पर हमले के रूप में प्रस्तुत किया. हिन्दू सांप्रदायिक तत्व इस विद्रोह
को हिन्दुओं का कत्लेआम बताते आ रहे हैं. इस विद्रोह का ब्रिटिश सरकार ने निर्ममता से दमन किया जिसके
दौरान लगभग 10,000 मुसलमान मारे गए और बड़ी संख्या में उन्हें काले पानी की सजा दी गई. यह मूलतः
किसानों का विद्रोह था जिसे दुर्भाग्यवश कोई दूसरा ही रंग दे दिया गया. इस विद्रोह का उचित ढंग से आंकलन और
विश्लेषण किया जाना चाहिए जिससे इस आर्थिक-सामाजिक परिघटना को ठीक से समझा जा सके.