ऐसे भी कोई ‘सुशांत’ होता है? और क्यों होगा? जिंदगी के सिर्फ 34 साल, 12 फिल्मों में अभिनय का
सफरनामा, सुपरस्टार बनने की शख्सियत के लक्षण और असंख्य सपने, कल्पनाएं…फिर भी कोई अचानक ‘सुशांत’
हो सकता है? हंसता-मुस्कराता चेहरा, कामयाबी के शिखर, क्रिकेट इंडिया के विश्वविजेता कप्तान महेंद्र सिंह धोनी
के किरदार को बड़े परदे पर जीवंत करने वाला कलाकार, अभी तो चाणक्य, टैगोर और एपीजे अब्दुल कलाम सरीखे
इतिहास-पुरुषों को परदे पर जीने की बातें चल रही थीं, जमीनी सच्चाइयों के आभास वाला व्यक्तित्व, बिहार से
मायानगरी में आने वाले छोरे की महत्त्वाकांक्षाएं और सफलताएं…क्या ऐसे ‘सुशांत’ जीवन में भी अवसाद (डिप्रेशन)
हो सकते हैं? फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत अंततः अवसाद का शिकार क्यों हुए? ऐतिहासिक फिल्मकार
गुरुदत्त की याद आ रही है। कुछ यादें परवीन बॉबी, सिल्क स्मिता, जिया खान जैसी अभिनेत्रियों की भी ताजा हो
रही हैं। सफलतम फिल्मों के निर्माता मनमोहन देसाई ने भी खुदकुशी करके पूरी दुनिया को चौंकाया था। आज देश
के प्रधानमंत्री मोदी समेत कई मंत्री, मुख्यमंत्री, क्रिकेट के सूरमा सचिन तेंदुलकर और असंख्य चाहने वाले स्तब्ध
और सन्न हैं कि आखिर यह क्या हो गया? फिल्मी बादशाह शाहरुख खान और सुपरस्टार अभिनेत्री दीपिका
पादुकोण भी अवसाद के शिकंजे में फंसे थे, लेकिन ईश्वर कृपा रही कि वे आज ठीक-ठाक, स्वस्थ हमारे बीच
मौजूद और सक्रिय हैं और खूबसूरत फिल्में दे रहे हैं। तो फिर सुशांत के साथ ऐसा क्या हुआ कि उन्हें खुदकुशी
करनी पड़ी…जीवन की पराकाष्ठा…अवसाद का चरम, अंतिम क्षण…! क्या सुशांत भीतर से अशांत, बेचैन और बिखरे
हुए थे? क्या उन पर कोई अतिरिक्त मानसिक दबाव था? क्या लॉकडाउन के एकाकीपन, घरबंदी ने उनका
अवसाद बढ़ा दिया था? क्या असल जीवन में भी वह अकेलापन महसूस कर रहे थे और कुछ भावनात्मक सूत्रों को
थामने की कोशिश में थे? क्या उन्हें एहसास हो रहा था कि यह मायानगरी नकली है। चमक-दमक, शोहरत, धन
और विलासिता के पीछे घुप्प अंधेरों की अंतहीन गुफाएं हैं? यहां सुख-दुख, तनाव, चिंताएं साझा करने वाला कोई
भी नहीं है? सुशांत ने भी एक दिन पहले आधी रात में अपने एक फिल्मी दोस्त को फोन किया था। वह फोन
रिसीव नहीं किया जा सका। यदि दोनों दोस्तों के बीच कोई संवाद हो जाता, तो आज हमारा प्रिय, युवा अभिनेता
‘सुशांत’ नहीं होता! यह हमारी कल्पना भी हो सकती है! जिंदगी कल्पनाओं के सहारे ही खूबसूरत होती रही है।
सवाल कई हैं और अब बेमानी भी कहे जा सकते हैं, लेकिन इसी तरह टटोलते हुए शायद सच के सूत्र हाथ लग
जाएं! अवसाद पर भी सवाल करना फिजूल है, क्योंकि अभिनेता होने से पहले सुशांत सिंह राजपूत एक इनसान भी
थे। अन्य बीमारियों की तरह अवसाद भी एक बीमारी है। मनोचिकित्सकों का मानना है कि ऐसे व्यक्ति को चारों
ओर अंधेरा ही अंधेरा महसूस होता है। उसकी सोच नकारात्मक हो जाती है। वह भविष्य के प्रति निराश हो जाता
है। सवालों के जवाब नहीं मिलते और साझा करने वाला कोई चेहरा उस कालखंड में नजदीक नहीं होता। नतीजतन
उन क्षणों में आदमी आत्मघाती हो जाता है। बहरहाल सुशांत छोटे से कार्यकाल में एक सशक्त, रचनात्मक विरासत
छोड़ गए हैं। शुरुआत टीवी पर ‘पवित्र रिश्ता’ धारावाहिक की लोकप्रियता से हुई। उन्होंने नृत्य के रियल्टी शोज में
डांस का हुनर भी दिखाया, लेकिन फिल्म ‘काय पा छे’ से जो धमक भरी शुरुआत हुई, वह जारी रही। धोनी पर
फिल्म सुपरहिट रही, तो ‘छिछोरे’ के जरिए ऐसा पात्र जिया, जो आत्महत्या न करने की पैरोकारी करता है और
जीवन को अमूल्य मानता है। यह प्रयोगवादी फिल्म भी सुपरहिट रही। सुशांत ने शुरुआत में ही सुपरस्टार आमिर
खान की फिल्म ‘पीके’ में छोटा-सा रोल निभाने की चुनौती स्वीकार की थी। वह प्रयास भी सफल रहा और सुशांत
को स्थापित होने में मदद की, लेकिन ‘राब्ता’, ‘केदारनाथ’, ‘सोन चिरैया’ सरीखी फिल्मों के बाद सुशांत की
बॉलीवुड में मांग और पहचान बढ़ गई थी। अभी ‘दिल बेचारा’ और ‘ड्राइवर’ आदि फिल्में रिलीज होनी थीं। सवाल है
कि क्या जीने के लिए इतना कुछ ही चाहिए? और क्या चाहिए? आज सुशांत होते, तो उन्हीं से पूछते, लेकिन वह
तो लड़ाई लड़ने के बजाय खुद को मार कर चल दिए। घर, रिश्ते-नाते, करियर, सपने, जिदें और जीवन की मंजिलें
सब कुछ पीछे छोड़ गए। सिर्फ इतिहास के कुछ पन्ने हो गए सुशांत। बहरहाल उनकी आत्मा को श्रद्धांजलि और
परिजनों के लिए संवेदनाएं….जीवन तो अब आगे निकल जाएगा!