भारत की संप्रभुता पर चीन से खतरा मंडरा रहा है। चीन के साथ हमारा व्यापार का घाटा तो पहले ही बढ़ रहा था
यानी हमारे चीन को निर्यात कम और आयात अधिक थे। इसके अतिरिक्त चीन से भारी मात्रा में भारत में निवेश
भी आ रहा है। इस प्रकार हमारी अर्थव्यवस्था पर चीन का शिकंजा कसता ही जा रहा है। इस परिस्थिति में देश के
एक वर्ग का मानना है कि भारतीय नागरिकों को चीन का माल खरीदने से बचना चाहिए। उनकी यह बात बिलकुल
सही है, लेकिन भारत सरकार स्वयं चीन के साथ-साथ दूसरे देशों से माल के आयात एवं पूंजी के निवेश को
आकर्षित करने का प्रयास कर रही है। समस्या यह है कि पूरे विश्व के लिए हम अपनी अर्थव्यवस्था को खोलें और
चीन से उसे अलग करें, ऐसा संभव नहीं है। यदि हम सीधे चीन के माल और निवेश रोकते हैं तो भी वह घूमकर
अपने देश में प्रवेश करेगा ही। अतः यदि हमको चीन से माल के आयात एवं पूंजी निवेश को रोकना है तो दूसरे
देशों से भी माल के आयात और निवेश को रोकना पड़ेगा और संरक्षणवादी नीतियों को अपनाना पड़ेगा। विश्व
व्यापार संगठन के अंतर्गत हर देश ने वचन दे रखा है कि वह अधिकतम कितना आयात कर आरोपित करेगा।
भारत ने डब्ल्यूटीओ में वचन दिया है कि वह औसतन 48.5 प्रतिशत से अधिक आयात कर नहीं आरोपित करेगा।
इसकी तुलना में वर्तमान में भारत ने केवल 13.8 प्रतिशत आयात कर लगा रखा है यानी डब्ल्यूटीओ में दिए गए
वचन के अंतर्गत ही हम अपने आयात कर में तीन गुना वृद्धि कर सकते हैं और चीन समेत दूसरे देशों से माल के
आयात को रोक सकते हैं। माल के आयात का विषय विदेशी निवेश से जुड़ा हुआ है। वैश्वीकरण के ये दो पैर हैं।
जब हम अपनी अर्थव्यवस्था को माल के आयातों के लिए खोलते हैं तो साथ-साथ विदेशी निवेश के लिए भी खोल
देते हैं जिससे कि हमें आधुनिक तकनीकें उपलब्ध हो जाएं और हम भी उत्तम क्वालिटी का माल बना कर आयातों
के सामने खड़े रह सकें।
बताया जाता है कि वर्ष 2019-20 में भारत को 49 अरब डालर का विदेशी निवेश आया है, लेकिन यह आंकड़ा
भ्रामक है। ग्लोबल फाइनांशियल इंटेग्रिटी नामक स्वतंत्र वैश्विक संस्था ने अनुमान लगाया है कि भारत से 9.8
अरब डालर की रकम बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा ट्रांसफर प्राइसिंग के माध्यम से गैर कानूनी ढंग से विदेश भेजी जा
रही है। जैसे यदि किसी कंपनी के लंदन और मुंबई में दफ्तर हैं तो मुंबई शाखा द्वारा निर्यात किए गए माल का
दाम कम बताया जाता है। 10 रुपए के माल का आठ रुपए में निर्यात कर दिया जाए तो भारत को दो रुपए कम
मिलेंगे अथवा दो रुपए जो मिलने थे वे नहीं मिलेंगे अथवा दो रुपए बाहर चले जाएंगे। इस प्रकार भारत से रकम
लंदन को चली जाती है। हमारी पूंजी का बाहर जाने का दूसरा रास्ता भारतीय उद्यमियों द्वारा दूसरे देशों में विदेशी
निवेश है। अपने देश से 11.3 अरब डालर की रकम गत वर्ष बाहरी विदेशी निवेश के रूप में भारत से दूसरे देशों
को कानूनी ढंग से बाहर गई है। तीसरा रास्ता राउंड ट्रिपिंग का है। कई भारतीय उद्यमी भारत में अर्जित रकम को
हवाला के माध्यम से पहले विदेश भेज देते हैं। वहां उसे सफेद रकम में बदलकर वापस भारत को विदेशी निवेश के
रूप में ले आते हैं। जैसे किसान अपनी सब्जी को मंडी में बेचे और घरवाले उसी सब्जी को खरीदकर वापस ले आएं।
इस प्रकार अपनी ही रकम भारी मात्रा में विदेशी निवेश के रूप में घूमकर अपने देश में आ रही है। इस माध्यम से
कितनी रकम आ रही है, इसका आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। बहरहाल इतना स्पष्ट है कि 49 अरब डालर का जो
विदेशी निवेश आया बताया जा रहे हैं, उसमें 20 अरब डालर तो स्पष्ट रूप से बाहर जा ही रहा है। इसके अलावा
अपनी पूंजी घूमकर वापस आ रही है। इस मद से 40 अरब डालर बाहर जा रहे हों तो कुल पलायन 60 अरब
डालर का हो जाएगा, जबकि केवल 49 अरब डालर आ रहे हैं। वास्तव में अपनी पूंजी बाहर जा रही है। यही हमारी
गिरती विकास दर का एक कारण है। इस प्रकार वैश्वीकरण को अपना कर हमने अपनी अर्थव्यवस्था को विदेशी
माल के आयात और अपनी पूंजी के निर्यात के लिए खोल दिया है। हमारी सरकार इस दुर्व्यवस्था पर रोक क्यों नहीं
लगाती है? मेरे आकलन में इसके चार कारण हैं। पहला कारण हमारे मध्यम वर्ग को सस्ते विदेशी माल को
उपलब्ध करने का सरकार का उद्देश्य है। इसलिए सरकार चीन आदि में बने हुए सस्ते माल के आयात पर अधिक
आयात कर नहीं लगाना चाहती है। दूसरा कारण भारतीय उद्यमियों द्वारा चीन समेत दूसरे देशों में निवेश है।
कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री की एक रपट के अनुसार कम से कम 54 भारतीय कंपनियों ने चीन में निवेश
कर रखा है। इनमें से लगभग 30 कंपनियों के चीन में 50 से अधिक श्रमिक थे और तीन कंपनियों के 1000 से
अधिक श्रमिक थे। जाहिर है कि इन कंपनियों द्वारा चीन में भारी माल का उत्पादन किया जा रहा है। उसमें से
कुछ माल संभवतः भारत में प्रवेश करता होगा। इसलिए इन भारतीय निवेशकों का दबाव भारत सरकार पर दिखता
है। यदि भारत सरकार द्वारा चीन से आयातित माल पर अधिक आयात कर लगाए जाएंगे तो इन कंपनियों द्वारा
चीन में उत्पादित माल पर भी संकट आएगा। तीसरा कारण यह है कि भारतीय कंपनियां भारी मात्रा में भारत से
रकम को विदेश भेजने को उत्सुक हैं, जैसे टाटा ने इंग्लैंड में जगुआर कंपनी को खरीदा था। इस खरीद के लिए
भारतीय उद्यमियों का भारत सरकार पर दबाव रहता है कि विदेशी निवेश पर अंकुश न लगाया जाए। चौथा कारण
यह दिखता है कि सरकारी कर्मियों को विश्व बैंक और बहुराष्ट्रीय कंपनियों से सेवानिवृत्ति के बाद मोटी सलाहकारी
मिलती है। भारत सरकार के एक पूर्व सचिव ने मुझे बताया था कि उन्हें 40 हजार प्रति घंटा की विश्व बैंक ने
सलाहकारी का ठेका दे रखा था। इस प्रकार के व्यक्तिगत ठेकों के प्रलोभनों में वर्तमान सरकारी अधिकारी विदेशी
निवेश और विदेशी आयात को रोकने की चेष्टा के प्रति उदासीन रहते हैं क्योंकि इनकी नजर अपने ही भविष्य के
ठेकों पर रहती है। इसी कारण भारत सरकार न तो विदेशों से आने वाले माल पर रोक लगाती है, न ही अपनी
पूंजी के पलायन पर रोक लगाती है। लेकिन देश की जनता को एहसास कराती है कि वह चिंतित है और जनता का
आह्वान करती है कि वह चीन का माल न खरीदे, जबकि सरकार स्वयं उसी माल के आयात को बनाए रखने के
लिए पूरा प्रयास कर रही है।