यों तो महामानव किसी धर्म, जाति या क्षेत्र के नहीं होते, भले ही उन्होंने काम इनमें से किसी एक के लिए ही किया हो। प्रायः शासक अपने या अपने परिजनों के नाम पर सार्वजनिक योजनाओं के नाम रखते हैं। देवी-देवताओं के नाम पर भी नगर या गांवों के नामकरण की लम्बी परम्परा है। राम और कृष्ण के नाम पर भारत ही नहीं, विदेशों में भी हजारों नगर हैं।
जब भारत में इस्लाम के हमले शुरू हुए, तो कुछ हमलावरों को भारत पसंद आ गया। अतः वे यहीं जम गये। उन्होंने कुछ क्षेत्रों पर अधिकार कर वहां शासन भी किया। यद्यपि उनके विरुद्ध भारतीय सदा लड़ते रहे। अतः ये तथाकथित बादशाह कभी चैन नहीं ले सके। ऐसा लगभग 800 साल तक चला। इस दौरान उन्होंने कुछ नये नगर बसाये, तो हजारों गांव और नगर बरबाद भी किये। आज भारत में हैदराबाद और अहमदाबाद से लेकर गाजियाबाद और फैजाबाद जैसे सैंकड़ों नगर हमले और अत्याचारों की जीवित दास्तान हैं।
यही परम्परा अंग्रेजी काल में भी रही। उन्होंने पर्वतीय स्थलों पर ‘माल रोड’ और हर नगर में ‘विक्टोरिया पार्क’ बनाये। उन दिनों माल रोड पर शाम को केवल अंग्रेजों और उनके कुत्तों को घूमने का अधिकार था। यद्यपि उनका जोर विध्वंस या नाम बदल की बजाय नये स्थान विकसित कर उन्हें लैंसडौन, डलहौजी और मांटगुमरी आदि अंग्रेजी नाम देने पर अधिक रहा। आजादी मिलने पर इनमें से कई नाम बदल दिये गये। सभी विक्टोरिया पार्क ‘गांधी पार्क’ हो गये; पर इस्लामी हमलावरों द्वारा दिये गये नाम नहीं बदले गये। इसके पीछे जवाहर लाल नेहरू की दूषित मानसिकता तथा वोट बैंक की राजनीति प्रमुख कारण है।
अंग्रेजों के जाने के बाद नामकरण का केन्द्र गांधी और नेहरू हो गये। शायद ही कोई नगर हो, जहां गांधी रोड या नेहरू कालोनी न हो। फिर यह धारा फिरोज परिवार की ओर मुड़ गयी। अतः इंदिरा मार्केट, संजय, राजीव और सोनिया विहार बन गये। एक विशेष बात यह भी है कि प्रायः बेतरतीब बनी अवैध बस्तियों को ये नाम दिये गये, जिससे कांग्रेस शासन में उन्हें कोई छू न सके। धीरे-धीरे वोट बैंक के लालच में नेता वहां आने लगते हैं। वे उन्हें बिजली और पानी दिलवाते हैं। इस प्रकार वह बस्ती वैध हो जाती है। दिल्ली जैसे बड़े शहरों में तो चुनाव में अवैध बस्तियों को वैध करवाना एक बड़ा मुद्दा होता है।
लेकिन सत्ता तो सदा किसी के पास नहीं रहती। सत्ता बदलते ही नेताओं के नाम पर बनी योजनाओं के नाम भी बदलने लगते हैं। उ.प्र. में मायावती, कल्याण सिंह और मुलायम सिंह के राज में कई बार जिलों के नाम बदले गये थे। इससे प्रशासन और जनता को कितनी परेशानी हुई, इससे नेताओं को कोई मतलब नहीं होता। वे तो अपने खेमे के नाम रखकर खुद को या शीर्ष नेतृत्व को खुश करना चाहते हैं। इसीलिए स.पा. सरकार में आचार्य नरेन्द्र देव, डॉ. राममनोहर लोहिया और जनेश्वर मिश्र को महत्व मिलता है, तो मायावती सरकार में डॉ. अम्बेडकर, काशीराम, ज्योतिबा फुले, गौतम बुद्ध और महामाया जैसी विभूतियों को। भा.ज.पा. वाले डॉ. मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, कुशाभाऊ ठाकरे और अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर योजनाओं के नाम रखते हैं।
सच तो यह है कि इनमें से अधिकांश महामानवों ने अपने समय में देश, धर्म और समाज की भरपूर सेवा की है। अतः इनमें से किसी के भी अवदान को नकारा नहीं जा सकता; पर जब इनके साथ राजनीति जुड़ जाती है, तो स्वाभाविक रूप से दूसरा खेमा विरोध करने लगता है। इसलिए संस्था या योजना के नामकरण में निष्पक्ष और राष्ट्रीय दृष्टि अपनानी चाहिए। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि वह नेता निर्विवाद हो तथा उसके साथ नरसंहार, विध्वंस, हत्या, चारित्रिक दोष, सत्ता लोलुपता, भ्रष्टाचार, वंशवाद या तानाशाही जैसे अपराध न जुड़े हों।
इस पर एक और तरह से भी विचार करना चाहिए। जिस क्षेत्र, नगर या गांव में कोई स्कूल, बांध, सड़क या कालोनी बन रही है, उसे किसी स्थानीय लेखक, पत्रकार, वीर सैनिक, स्वाधीनता सेनानी, लोकतंत्र सेनानी, कलाकार, संत या समाजसेवी के नाम पर समर्पित करें। इससे उस क्षेत्र के लोग गौरवान्वित होंगे तथा नयी पीढ़ी उनके बारे में जानकर उन जैसा बनने का प्रयास करेगी। इससे सरकार बदलने पर नाम बदलने का दबाव भी नहीं होगा। एक महामानव के नाम पर किसी एक बड़ी योजना का नाम रख देना पर्याप्त है। हर जगह उसी का नाम हो, इसका कोई औचित्य नहीं है।
देहरादून की सैन्य अकादमी में एक प्रमुख भवन ‘परमवीर अरुण खेत्रपाल’ के नाम पर है। पासिंग आउट परेड के समय उसमें प्रवेश करते ही हर सैनिक का सिर गर्व से ऊंचा हो जाता है। ऐसे ही सियाचिन में ‘परमवीर बाना सिंह’ के नाम पर ‘बाना पोस्ट’ है। देश भर में ऐसे सैंकड़ों गांव और नगर हैं, जहां ऐसे वीर सैनिकों के नाम पर द्वार, स्कूल, सड़क और चैराहों के नाम रखे गये हैं। यह प्रयास सराहनीय है। इसी सोच पर यदि काम हो, तो किसी को आपत्ति नहीं होगी। लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि क्या राजनेता इस पर विचार करेंगे ?