विनय गुप्ता
चीन से लहे पूर्वी लद्दाख के सीमावर्ती गांवों में रहने वाले करीब 2,000 लोग इलाके में जारी भारी सैन्य मूवमेंट
से चिंतित हैं। स्थानीय लोगों का दावा है कि 1962 के बाद पहली बार अपनी तरफ से इतने बड़े पैमाने पर सैन्य
मूवमेंट दिखाई दे रहा है। लद्दाख ऑटोनोमस काउंसिल के एक मेंबर के मुताबिक गांव वाले सैनिकों और हथियारों
के मूवमेंट से खौफ में हैं। इस बीच चीन के लड़ाकू विमानों के वास्तविक नियंत्रण रेखा के पास पूर्वी लद्दाख से
30-35 किलोमीटर दूर उड़ान भरने को लेकर भारत चौकन्ना हो गया है। चीनी विमानों ने यह उड़ान अपने सैन्य
अड्डे होतान और गारगुंसा से 100-150 किलोमीटर दूर भरी। मई के पहले हफ्ते में जब भारतीय और चीनी
हेलीकॉप्टर एक दूसरे के काफी करीब आ गए थे, तब भारत ने सुखोई-30 विमान को भेज दिया था। पाकिस्तान ने
जब से चीन की वायुसेना के साथ युद्धाभ्यास किया है, तभी से चीन के होतान सैन्य ठिकाने पर भारत की नजर
है। पिछले साल भी जब पाकिस्तान के कब्जे वाले लद्दाख के पश्चिमी भाग स्कार्दू सैन्य ठिकाने से होतान के लिए
पाकिस्तान के छह जेएफ-17 विमान ने उड़ान भरी तो भारत ने निगरानी बढ़ा दी थी। इतना सब होने के बाद भी
चीन ने कह रहा है कि भारत के साथ सीमा पर हालात स्थिर और नियंत्रण योग्य हैं। दोनों देश निर्विघ्न बातचीत
के चैनल और आपसी परामर्श से मसले का हल निकाल लेंगे। लेकिन चीन की यह चाल भारत को तब भारी पड़
सकती है, जब हम इत्मीनान से बैठ जाएं। हालांकि, इस समय ऐसा सोचना गलत होगा क्योंकि सेना और सरकार
की पैनी नजर लद्दाख पर है। लेकिन फिर भी सच यह है कि भारत और चीन के बीच लद्दाख स्थित नियंत्रण
रेखा पर पिछले कुछ दिनों से देखे जा रहे तनाव ने काफी गंभीर रूप ले लिया है। मामला तीन साल पहले तिब्बत-
सिक्किम-भूटान त्रिकोण पर पैदा हुई डोकलाम जैसी स्थिति के दोहराव की ओर न जाए, इसके लिए अब राजनयिक
और राजनीतिक स्तर पर पहल जरूरी है। एक बात स्पष्ट है कि दोनों देश अपनी जमीन को लेकर सजग हैं और
दोनों में से एक का हिस्सा दूसरा एक इंच भी दबा ले, यह अब दूर की कौड़ी हो चुकी है। अच्छा होता कि सत्तर
साल से भी ज्यादा समय से स्वतंत्र व्यवस्था का संचालन कर रही भारत और चीन की सत्ताएं आपसी सीमा को
स्थायी रूप देतीं, लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता तब तक हमें सीमा विवाद को किनारे रखकर अपने व्यापारिक
और सांस्कृतिक रिश्ते बढ़ाने पर काम जारी रखना चाहिए।
दरअसल, एलएसी की कुछ छिटपुट हरकतों के अलावा कुछ बाहरी मामलों ने भी हाल के तनाव को बढ़ाने में
योगदान दिया है। चीन और अमेरिका के बीच डेढ़ साल से जारी ट्रेड वॉर ने पिछले साल हांगकांग में विद्रोही
गतिविधियां शुरू होने के साथ अलग ऊंचाई पकड़ी और इधर कोरोना वायरस का सिलसिला चल पडऩे के बाद तो
इसने लगभग शीतयुद्ध जैसी शक्ल अख्तियार कर ली है। भारत के रिश्ते पिछले कई वर्षों से अलग-अलग अमेरिका
और चीन, दोनों के साथ काफी अच्छे रहे हैं और दोनों से हमारा व्यापार लगातार बढ़ता गया है। लेकिन दुनिया की
इन नंबर एक और दो ताकतों के बीच जबर्दस्त कटुता ने बाकी दुनिया में जो कन्फ्यूजन पैदा किया है, उसका
शिकार एक हद तक भारत भी हुआ है। हमारे राजनीतिक दायरे में एक ताकतवर बड़ा हिस्सा अभी के वैश्विक
ध्रुवीकरण में चीन के खिलाफ खड़ा होकर अमेरिका के करीब दिखना बेहतर मानता है।
ताइवानी राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण समारोह में सत्तारूढ़ दल के दो सांसदों की वर्चुअल मौजूदगी चीन के राजनयिक
दायरे में एक परोक्ष शत्रुतापूर्ण संकेत के रूप में देखी जा रही है। ऐसी चीजें अनुच्छेद 370 के खात्मे की संसदीय
पहल से जुड़कर मौजूदा सीमा विवाद को डोकलाम प्रकरण से आगे ले जा सकती हैं। अगर जरूरी हो जाए तो इस
रास्ते पर आगे बढऩे में भी हमें कोई हिचक नहीं होगी, लेकिन असल बात वही है कि हम जो भी करें, अपनी
राष्ट्रीय जरूरतों को ध्यान में रखकर करें, किसी और को हमारे कंधे पर रखकर बंदूक चलाने की इजाजत हरगिज
न दें। भारत-चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा दुनिया की सबसे लंबी खुली सीमा है और आधी सदी से भी ज्यादा वक्त
से एक-दूसरे के खिलाफ एक भी गोली न चलने का समझदार इतिहास इससे जुड़ा है। यह सिलसिला आगे चलता
रहे, इसे सुनिश्चित करके ही दोनों देशों का राजनीतिक नेतृत्व इस सदी को एशिया की सदी बनाने की राह पर
आगे बढ़ सकता है।