अर्पित गुप्ता
‘निसर्ग’ चक्रवाती तूफान आया और गुजर गया। तूफान आएगा, तो तबाही की निशानदेहियां जरूर छोड़ जाएगा,
लेकिन बंगाल-ओडिशा के ‘अम्फान’ की तरह इसने ‘तांडव’ नहीं किया। सिर्फ एक व्यक्ति की मौत हुई, करीब
200 पेड़ उखड़ कर जमींदोज हो गए, करीब 40 जगह शॉर्ट सर्किट की घटनाएं हुईं। किसी की छत उड़ गई, तो
किसी की छत के कपड़े की तरह चिथड़े उड़ गए। समंदर में नौसेना का भारी-भरकम जहाज पत्ते की तरह डोलने
लगा, मानो कोई भूकंप आ गया हो! और बहुत कुछ हुआ, लेकिन मुंबई का संकरा, घना शहर और उसकी आबादी
बच गई। मुंबई कई मौकों पर महफूज रहा है। तूफान या तो आया नहीं अथवा आने के बाद कमजोर पड़ गया या
किसी और दिशा की तरफ मुड़ गया। ऐसा तूफान करीब 129 साल के बाद महाराष्ट्र के समंदरी तट से टकराया
है। आपदाओं और हादसों का मूल्यांकन तूफान से हुए नुकसान और मौतों के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए।
ऐसा करने से वह बहुत जल्दी ‘अतीत’ हो जाते हैं और हम भविष्य के प्रति बेफिक्र और लापरवाह हो जाते हैं।
‘निसर्ग’ का अर्थ होता है-ब्रह्मांड। तूफानों से न जाने कितनों के ‘ब्रह्मांड’ तबाह हो जाते हैं, फिर भी इनका
वैज्ञानिक आकलन किया जाना चाहिए। ‘निसर्ग’ महातूफान से पहले समंदर का तापमान 30-37 डिग्री सेल्सियस
बताया गया है। जाहिर है कि वाष्पीकरण और बादल बनने की प्रक्रिया भी हुई होगी और उसके बाद के रासायनिक
समीकरण भी बने होंगे! सवाल है कि क्या ऐसे तूफान ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के ही दुष्परिणाम होते
हैं? ये अवधारणाएं आज तक हम मानसिक और बौद्धिक रूप से समझ नहीं पाए हैं, जबकि वैज्ञानिक शोधों के
निष्कर्ष हैं कि मनुष्य की सबसे बड़ी और भयानक समस्या जलवायु परिवर्तन के अलावा कुछ और नहीं है, लेकिन
वह हमारी कल्पना के संकुचित दायरे से बहुत बाहर है। अब कम मौतें और कम नुकसान के मायने ये नहीं हैं कि
पर्यावरण और कुदरत अपने खेल आगे नहीं दिखाएंगे। चक्रवाती तूफानों के सिलसिले 17वीं सदी के उत्तरार्द्ध से
जारी हैं और अब तक चक्रवाती तूफान बनने की प्रक्रिया में करीब 46 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। यानी अरब सागर
और बंगाल की खाड़ी में चक्रवाती तूफान अब अधिक मात्रा में बन रहे हैं। यह भी सवाल हो सकता है कि चक्रवाती
तूफान पश्चिमी तट की ओर ज्यादा क्यों बढ़ रहे हैं? वैज्ञानिक शोधों ने बार-बार ये निष्कर्ष दिए हैं कि तूफान क्यों
बढ़ रहे हैं? विज्ञान और शोध की भूमिका यहीं तक है, लेकिन विश्व स्तर पर हमारे नेता, विभिन्न पर्यावरण
सम्मेलनों के दौरान, चीखते हुए संकल्प लेते रहे हैं कि हमें पृथ्वी को बचाना है। हमें कार्बनडाइऑक्साइड का
इस्तेमाल कम करना है, ताकि पृथ्वी की गरमी कुछ ठंडी होकर शांत हो सके। पृथ्वी मनुष्य की मोहताज नहीं है।
उसी ने मानव को रचा है। पृथ्वी न जाने कितने प्रलय और चक्रवाती तूफान देख और झेल चुकी है। बहरहाल
कार्बन का इस्तेमाल कम नहीं होता, क्योंकि हमें कोयला और पेट्रोलियम का उपभोग जरूर करना है। वे हमारे
विकास के प्रतीक हैं। जलवायु परिवर्तन का सबसे बुरा कहर जिन देशों पर बरपना है, उनमें भारत और बांग्लादेश
नाजुक स्थिति में हैं। यदि जलवायु परिवर्तन के संतुलन ठीक नहीं हैं, तो कोई भी चक्रवाती तूफानों को रोक नहीं
सकता। उनका सिलसिला जारी रहेगा और वे ज्यादा घातक और मारक साबित होते रहेंगे। फिलहाल अरब सागर में
कम और खाड़ी बंगाल में ज्यादा चक्रवाती तूफान बनते हैं। यह समीकरण 1-4 का हो सकता है, लेकिन भविष्य में
इसमें भी बदलाव हो सकता है। लिहाजा पर्यावरण हमारे लिए सबसे संवेदनशील और महत्त्वपूर्ण मुद्दा होना चाहिए,
लेकिन सच कुछ और ही है। हालांकि भारत में 1980 के दशक में पर्यावरण की अवधारणा स्थापित हो चुकी थी।
उसके बाद शोध भी खूब किए गए हैं, लेकिन औसत आदमी इंतजार करता रहता है कि महातूफान आए, बर्बादी हो,
उसकी जस-तस भरपाई हो जाए और फिर अगला तूफान आए। तूफान सालों, दशकों के बाद ही बन पाते हैं,
लिहाजा उस अंतराल में अपने भौतिक और नकली विकास की दुनिया में जिया जाए। पर्यावरण को बचाकर, गलत
नीतियां न बनाकर, उससे प्यार किया जाए, लेकिन मनुष्य इसे तूफानों के बचाव का रास्ता नहीं मानता।