विकास गुप्ता
लॉकडाउन में रेलवे की तरफ से टे्रन चलाने का फैसला और बीते तीन दिनों में सरकार की तरफ से जारी की गई
दो गाइडलाइन से यह तो स्पष्ट हो गया है कि अब सरकार धीरे-धीरे छूट की तरफ बढ़ेगी। कहा तो यह भी जा रहा
है कि देश में लॉकडाउन को आगे बढ़ाने का फैसला शायद ही लिया जाए। कुछ दिनों पहले दिल्ली के मुख्यमंत्री
अरविंद केजरीवाल ने लॉकडाउन खोलने का संकेत देते हुए कहा था कि अब हमें कोरोना विषाणु के साथ जीने की
आदत डालनी होगी। उनके बाद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने भी कहा कि लोगों को इस विषाणु के साथ ही जीने की
आदत डालनी होगी। हालांकि इस तरह के बयानों के बीच कोरोना संक्रमण के मामलों के दोगुना होने की दर बारह
से घट कर दस दिन हो गई है। तमाम कड़ाई के बावजूद लोग नियम-कायदों, सरकारी अपीलों का पालन करते नहीं
देखे जा रहे। जगह-जगह भीड़ जमा होने, घरों की ओर लौटने की घटनाएं रुक नहीं रहीं। पर सरकारों की तरफ से
ऐसे बयान आने की एक वजह यह भी है कि तीन चरण में लॉकडाउन लागू करने के बाद देश की अर्थव्यवस्था पर
जो प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, उसे अब और सहन कर पाना संभव नहीं होगा। तमाम औद्योगिक घरानों का दबाव है
कि कड़े नियमों का पालन करते हुए उद्योगों, व्यावसायिक गतिविधियों को शुरू कर देना चाहिए। सरकारों ने भी
इसकी जरूरत समझ ली है।
इसके अलावा दुनिया भर के अनुभवों को देखते हुए यह साफ हो चला है कि लॉकडाउन कोरोना संक्रमण को रोकने
का एकमात्र उपाय नहीं है। यह सही है कि लॉकडाउन करने से भारत जैसी विशाल आबादी वाले देश में इसका
संक्रमण उस रफ्तार से नहीं बढऩे पाया, जैसा अनेक देशों में फैला। जर्मनी जैसे देश अब लॉकडाउन हटा कर फिर
से अपनी व्यावसायिक गतिविधियां शुरू कर रहे हैं। स्वीडन जैसे देश ने कभी लॉकडाउन का सहारा लिया ही नहीं।
उसने सिर्फ संक्रमण फैलने से बचाव के उपायों पर कड़ाई से अमल किया और इस पर काबू पाने में कामयाब रहा।
उन अनुभवों को देखते हुए भारत भी इस विषाणु के साथ जीने की कोशिश करना चाहता है। पर लॉकडाउन खोलने
का यह अर्थ नहीं कि लोगों को मनमाने तरीके से चलने-फिरने की इजाजत दी जाए। जरूरी सुरक्षा उपायों पर अमल
करते हुए इससे बचने का प्रयास किया जा सकता है। भारत में पहले से तपेदिक आदि के विषाणुओं का प्रकोप बना
रहता है। स्वाइन फ्लू, दिमागी बुखार आदि के विषाणु अपना असर दिखाते ही रहते हैं। पर लोग उनके साथ जीना
सीख गए हैं। उसी तरह कोरोना विषाणु के साथ भी जीने की आदत डालनी होगी, क्योंकि यह विषाणु कभी खत्म
नहीं होगा।
यह सही है कि विषाणु के भय से पूरे देश को लंबे समय तक तालाबंदी में नहीं रखा जा सकता। इतने दिनों के
लॉकडाउन में ही देश की अर्थव्यवस्था की कमर टूट चुकी है, एक-एक दिन भारी पड़ रहे हैं। इसलिए व्यावसायिक
गतिविधियों को शुरू करना जरूरी है। पर यह अपेक्षा स्वाभाविक है कि लोग खुद सुरक्षात्मक उपायों पर अमल करें।
फिर सरकारों का दायित्व यहीं खत्म नहीं हो जाता। इस विषाणु का प्रकोप लगातार बना रहेगा और जैसी कि
आशंका जाहिर की जा रही है कि अगले दो महीनों में इसका प्रकोप शीर्ष पर पहुंचेगा, स्वास्थ्य संबंधी तैयारियों में
मामूली लापरवाही भी भयंकर महामारी का रूप ले सकती है। इसलिए बंदी खुलने के बाद संक्रमण का खतरा बढ़ेगा,
और तब चिकित्सा आदि के स्तर पर अधिक मुस्तैदी की जरूरत पड़ेगी।