ज्ञान का भंडार है गीता

asiakhabar.com | May 5, 2020 | 5:49 pm IST
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अर्पित गुप्ता

भारतीय वाड्मय में गीता का सर्वोच्च स्थान है। गीता केवल ज्ञान का भंडार ही नहीं है अपितु दैनिक जीवन के
व्यवहार में भी सहायक है। आध्यात्मिक जीवन के सत्य को केवल ज्ञान के आधार पर ग्रहण करना तब तक संभव
नहीं जब तक बुध्दि परस्पर उस सत्य का साक्षात्कार अनुभवों के आधार पर न कर लिया जाय। गीता नैतिक एवं
आध्यात्मिक शुध्दिकरण का आग्रह करती है, गीता जीवन के आचार, अध्यात्म तथा धार्मिक पहलुओं का मिश्रण है।
अन्ततोगत्वा गीता हमारी न्यायपूर्ण विश्वास आस्था को भक्ति में परिवर्तित करती है। गीता का यह संदेश हमारे
जीवन में प्रवेश कर जाय तो उससे क्रमबध्दता और पूर्णत्व प्राप्त होता है।श्री कृष्ण इसी सर्वोच्च सत्य के दर्शन और
धर्म का उपदेश अर्जुन को देते हैं। व्यवहारिक जीवन में भी यह संसार युध्द क्षेत्र ही है। सदगुण जो पंच पांडवों के
प्रतीक है सैकड़ों बुराइयों के प्रतीत कौरवों से सतत् संघर्ष करते हैं। जागृत आत्मा अर्जुन भ्रमित सेनापति है उसके
सारथी-मार्गदर्शक श्रीकृष्ण है जो अर्जुन को उसके स्वयं निर्मित भ्रमों को दूर करते हैं, अर्जुन युध्द के परिणामों के
विषय में चिंतित है-
पापमेवा श्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः 1 1/36
श्री कृष्ण उसका भ्रम दूर कर युध्द की अपरिहार्यता एवं औचित्य को समझाते हुए ललकार कर उसे कहते हैं
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।। 2/3

गीता शरीर की नश्वरता और आत्मा की अमरता के सिध्दांत का प्रतिपादन करती हैं। गीता हमें बतलाती है कि यह
पंचभौतिक देह नष्ट होता है किन्तु आत्मा नश्वर नहीं है। व्यक्ति बाल्यावस्था से यौवन को युवावस्था से वृध्दत्व
को प्राप्त होता है उसी प्रकार आत्मा मृत्यु के पश्चात् शरीर धारण करती है। आत्मा अजर अमर अनश्वर और
सनातन है। शरीर के नष्ट होने पर आत्मा नष्ट नहीं होती। जिस प्रकार व्यक्ति जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों को त्यागकर
नवीन परिधान धारण करता है।
न जायते म्रियये वा कदाचित्
नायं भृत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे। 2/20
इसे शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि इसे जला नहीं सकती है, जल इसे गीला नहीं कर सकता है और वायु इसे सुखा
नहीं सकती है।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।। 2/23
आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अपरिवर्तनीय और अमर है। आत्मज्ञान हमें जीवन में साहस के साथ रहकर कठिनाइयों से
यहां तक कि मृत्यु से भी संघर्ष करना सिखाती है। गीता का आत्मज्ञान हमारे आंतरिक जीवन तथा ब्रह्म आचरण
को सुधरता है। गीता प्रेम व समानता की शिक्षा देती है। मैं, तुम, वह या अन्य कोई भी क्यों न हो सब एक है
और सब में उसी परमात्मा का ही स्वरूप व्याप्त है। यही भाव हमें द्वेष, शत्रुता तथा स्वार्थ से ऊपर उठने की
प्रेरणा देता है। ऊंच-नीच, शत्र-मित्र, सत्-असत्, भला-बुरा सबको समान दृष्टि से देखने की शिक्षा प्राप्त होती है।
सब में एक ही परमात्मा के स्वरूप को ही देखता है। वही सर्वश्रेष्ठ योगी है जो सब प्राणियों के सुख दुःख, हर्ष
विषाद को भी अपना ही समझता है। सात्विक ज्ञान वह है जो अलग-अलग विभक्त प्राणियों में उस एक परमात्मा
के अखंड स्वरूप के दर्शन करता है। इस प्रकार सबको अपने ही समान समझने के कारण, सब प्राणी समान है इस
भाव से उनके सुख-दुख हर्ष-विषाद में सहानुभूति रखता है। गीता व्यक्ति को सब प्रकार से उस ईश्वर की शरण में
ले जाती है। यही शरणागति में ही उसका हित निहित है। आध्यात्मिक यात्रा इस ज्ञान से प्रारंभ होती है व्यक्ति का
अहं ही सृष्टिकर्ता और उसके मध्य आकर बाधक बन जाता है। अतः हमें अपने सारे अभिमान को त्यागकर सब
कुछ उसी ईश्वर के भरोसे छोड़ देना चाहिये, जो हमारा सब प्रकार का कल्याण कर सकते हैं। ईश्वर ही एकमात्र
सत्य है। हमारे अहंकार ही हमें भ्रांति में डालते हैं। आध्यात्मिक जीवन की ओर बढ़ने के लिये मात्र कर्म, ज्ञान और
भक्ति ही पर्याप्त नहीं है। मोक्ष के लिये भगवान ही एकमात्र आधार है जीवन का। परमकृपा भी उसी को प्राप्त होती
है जो भगवान को ही अपना एकमात्र उध्दारक मानता है। वास्तव में जीवन का उध्दार केवल भगवत् कृपा से ही
होता है। गीता अर्जुन को श्रीकृष्ण के प्रति समर्पण करने की वार्ता से प्रारंभ होती है और समाप्त भी भगवान
श्रीकृष्ण के अर्जुन को पूर्ण समर्पण के परामर्श से हो होती है भगवान अर्जुन को पूर्ण आत्मज्ञान समझाने के पश्चात
भी उससे कहते हैं-
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्मतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।। 18/63

जैसी इच्छा है वैसी कर। परन्तु इसके पश्चात ही कहते हैं ममेक शरणं ब्रज आत्म समर्पण का उद्देश्य देते हैं।
अगर अर्जुन जैसे महापुरुष को भगवान शरणगति का परामर्श देते हैं तो साधारण व्यक्ति इसकी अवहेलना कैसे कर
सकता है? शुभकर्म करने के पश्चात् भगवान शरण में जाना ही पूरी गीता का मूल मंत्र है।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।


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