अर्पित गुप्ता
कोरोना इस समय पूरी दुनिया में कहर बरपा रहा है। इससे दुनियाभर में दो लाख दस हजार से अधिक लोग मौत
के मुंह में समा चुके हैं। भारत में भले ही कोरोना संक्रमितों और इससे होने वाली मौतों की संख्या अभीतक दूसरे
देशों के मुकाबले बेहद कम है लेकिन जिस प्रकार देश के अलग-अलग हिस्सों में कोरोना संक्रमितों की संख्या तेजी
से बढ़ी, वह चिंतनीय है। कोरोना संक्रमण को लेकर सर्वाधिक चिंता देश के ग्रामीण इलाकों को लेकर है क्योंकि
यदि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना संक्रमण का प्रसार हुआ तो उससे निपटना सबसे कठिन चुनौती होगी। दरअसल
ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं का आलम किसी से छिपा नहीं है। वहां औसतन 26 हजार लोगों की विशाल
आबादी पर सिर्फ एक सरकारी डॉक्टर इलाज के लिए उपलब्ध है, वह भी उन परिस्थितियों में, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों
के अस्पतालों में मरीजों के लिए प्रायः जरूरी सुविधाएं ही उपलब्ध नहीं होती। इसलिए काउंसिल ऑफ मेडिकल
रिसर्च (आईसीएमआर) सहित तमाम चिकित्सा विशेषज्ञों ने आशंका जताई थी कि अगर यह महामारी तेजी से गांवों
में फैल गई तो देश के लिए उससे निपटना असंभव होगा।
एक ओर जहां उत्कृष्ट और आधुनिक स्वास्थ्य सेवाओं से लैस अमेरिका, इंग्लैंड, इटली, स्पेन, फ्रांस जैसे देश
कोरोना के प्रकोप के समक्ष लाचार हैं और वहां भी आईसीयू, वेंटिलेटर, बिस्तर इत्यादि कम पड़ रहे हैं, वहीं
स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में भारत की स्थिति काफी कमजोर है। स्वास्थ्य सेवाओं में 102वें स्थान पर आनेवाले
सवा अरब से अधिक आबादी वाले भारत की तो बहुत बड़ी आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है, जहां स्वास्थ्य ढाचा
बुरी तरह चरमराया हुआ है। स्वास्थ्य सेवाओं पर बहुत कम खर्च करने वाले देशों में से भारत भी एक है, जहां
जीडीपी का एक प्रतिशत से कुछ ज्यादा हिस्सा ही खर्च किया जाता है, जबकि कई देशों में यह 10 फीसदी तक
होता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के शीर्ष इमरजेंसी एक्सपर्ट माइक रायन का कहना है कि कोरोना से फैली बीमारी से निपटने
के लिए कोई भी देश केवल लॉकडाउन के भरोसे नहीं रह सकता बल्कि उनके लिए सबसे जरूरी है कि वे सबसे
पहले कोरोना से बुरी तरह बीमार और संक्रमित लोगों का पता करें। यह भी पता करें कि उनके सम्पर्क में कौन-
कौन आया और फिर उन सभी को आइसोलेट कर उनका ठीक से इलाज किया जाए। भारत के संदर्भ में सबसे बड़ा
सवाल यही है कि गांवों की बेहद सघन आबादी में ऐसे लोगों की पहचान किस हद तक संभव है? अगर गांवों में
कोरोना महामारी बनकर फैला तो वहां संक्रमितों की पहचान और उनके सही आंकड़े जुटाना अत्यंत दुष्कर होगा। यह
चिंता की स्थिति इसलिए भी है क्योंकि कोरोना संक्रमित एक व्यक्ति भी बड़ी तेजी से हजारों व्यक्तियों को संक्रमित
कर सकता है। यही कारण है कि समय रहते कोरोना की चेन तोड़ने के लिए 40 दिनों की सामाजिक दूरी के
सिद्धांत को चुना गया।
केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक कोरोना संक्रमण की चेन तोड़ना भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। हालांकि
फिलहाल राहत की बात यही है कि कोरोना संक्रमण की वृद्धि दर में कमी दर्ज की जा रही है लेकिन कुछ दिनों
पहले आई आईसीएमआर की उस रिपोर्ट को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि अगर सबकुछ ठीक रहा तो भी
दिल्ली में कोरोना संक्रमण के 15 लाख तथा मुम्बई, कोलकाता, बेंगलुरू में 5-5 लाख मामले सामने आ सकते हैं।
आईसीएमआर का मानना है कि सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंसिंग) से कोरोना महामारी से काफी हद तक बचा जा
सकता है और इससे कोरोना के मामलों में 60 से 89 फीसदी तक कमी आ सकती है। कई अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों
का भी दावा है कि मई माह तक भारत में संक्रमितों की संख्या 1 से 13 लाख तक हो सकती है और ऐसी स्थिति
से निपटने लिए भारत में मौजूदा मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर और मेडिकल उपकरणों की संख्या बेहद कम है। विश्व
स्वास्थ्य संगठन ने हालांकि कोरोना के प्रसार को रोकने के लिए भारत द्वारा किए जा रहे प्रयासों को बार-बार
सराहा है लेकिन साथ ही यह भी कहा है कि कोरोना को परास्त करने के लिए लॉकडाउन करने से ही काम नहीं
चलेगा बल्कि जनस्वास्थ्य के भी पर्याप्त कदम उठाने होंगे अन्यथा यह बीमारी फिर से पनप सकती है।
अगर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना महामारी फैलती है तो उसके उपचार के लिए हमारा स्वास्थ्य ढांचा कितना
मजबूत है, उसपर नजर डालना भी जरूरी है। ‘नेशनल हैल्थ प्रोफाइल 2019’ की रिपोर्ट के मुताबिक देश में कुल
26 हजार अस्पताल हैं, जिनमें से हालांकि ग्रामीण भारत में ही करीब 21 हजार अस्पताल हैं लेकिन इनकी हालत
संतोषजनक नहीं है। रिपोर्ट में बताया गया है कि यदि ग्रामीण भारत की मात्र 0.03 फीसदी आबादी को भी जरूरत
पड़े तो सरकारी अस्पतालों में उसके लिए बिस्तर उपलब्ध नहीं होंगे। देशभर के सरकारी अस्पतालों में सात लाख से
अधिक बिस्तर हैं लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में बसने वाली देश की दो तिहाई आबादी के लिए इन बिस्तरों की संख्या
महज 2.6 लाख है। अगर निजी अस्पतालों, क्लीनिक, डायग्नोस्टिक सेंटर और कम्युनिटी सेंटर को भी शामिल
कर लें तो कुल बिस्तरों की संख्या करीब 10 लाख ही होती है। देश की बहुत बड़ी आबादी के लिहाज से यह बेहद
कम है। हालांकि अस्पतालों में बिस्तरों की उपलब्धता का यह संकट केवल भारत की ही समस्या नहीं है बल्कि
चीन, फ्रांस, दक्षिण कोरिया, इटली, अमेरिका इत्यादि विकसित देश भी इस समस्या से जूझते दिखाई दिए हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक प्रत्येक एक हजार नागरिकों पर अमेरिका में 2.8, इटली में 3.4, चीन में
4.2, फ्रांस में 6.5 तथा दक्षिण कोरिया में 11.5 बिस्तर उपलब्ध हैं। दूसरी ओर भारत में प्रत्येक दस हजार लोगों
पर करीब छह अर्थात् 1700 मरीजों पर सिर्फ एक बिस्तर ही उपलब्ध हैं। ग्रामीण अंचलों में स्थिति काफी खराब
है, जहां करीब 3100 मरीजों पर महज एक बिस्तर उपलब्ध है।
सरकारी अस्पतालों की स्थिति देखें तो देशभर में करीब 26 हजार सरकारी अस्पताल हैं अर्थात् प्रत्येक 47 हजार
लोगों पर मात्र एक सरकारी अस्पताल है। ‘नेशनल हैल्थ प्रोफाइल 2019’ की रिपोर्ट के मुताबिक सेना और रेलवे
के अस्पतालों को मिलाकर देशभर में कुल 32 हजार सरकारी अस्पताल हैं। हालांकि निजी अस्पतालों की संख्या 70
हजार के आसपास है। अरुणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश जैसे अपेक्षाकृत छोटे राज्यों में एक लाख आबादी पर क्रमशः
16 व 12 सरकारी अस्पताल हैं लेकिन देश की कुल 21 फीसदी आबादी वाले राज्यों दिल्ली, महाराष्ट्र, मध्य
प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात तथा आंध्र प्रदेश में अस्पतालों की संख्या प्रति एक लाख लोगों पर एक से भी कम है।
दिल्ली में 1.54 लाख लोगों पर एक, महाराष्ट्र में औसतन 1.6 लाख लोगों पर एक, मध्य प्रदेश में 1.56 लाख
तथा छत्तीसगढ़ में 1.19 लाख लोगों पर एक-एक, गुजरात में 1.37 लाख और आंध्र प्रदेश में प्रत्येक दो लाख
लोगों पर एक-एक अस्पताल हैं। अरूणाचल प्रदेश तथा हिमाचल में क्रमशः 6300 और 8570 लोगों पर एक-एक
अस्पताल उपलब्ध हैं। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की उपलब्धता देखें तो देशभर में करीब 1.17 लाख डॉक्टर हैं
अर्थात् लगभग 10700 लोगों पर एक डॉक्टर ही उपलब्ध है। हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के नियमानुसार
प्र्रत्येक एक हजार मरीजों पर एक डॉक्टर होना चाहिए लेकिन ग्रामीण भारत में तो यह औसत 26 हजार लोगों पर
एक डॉक्टर का ही है।
कोरोना संक्रमण बढ़ने की स्थिति में भारत में आईसीयू और वेंटिलेटर की उपलब्धता देखें तो यहां भी निराशा की ही
स्थिति है। इंडियन सोसाइटी ऑफ क्रिटिकल केयर के अनुसार देशभर में करीब 70 हजार आईसीयू बेड और 40
हजार वेंटिलेटर उपलब्ध हैं लेकिन इनमें भी केवल दस फीसदी ही खाली बताए जा रहे हैं। हालांकि कई कम्पनियां
बड़े स्तर पर वेंटिलेटर्स का निर्माण कर रही हैं। कोरोना से संक्रमित मरीजों के इलाज में वेंटिलेटर की सबसे अहम
भूमिका होती है। सांस लेने में ज्यादा परेशानी होने पर वेंटिलेटर ही एकमात्र सहारा होते हैं। इसे ब्रीदिंग मशीन,
रेस्पिरेटर तथा मैकेनिकल वेंटिलेटर जैसे नामों से भी जाना जाता है। एक मध्यम स्तर के वेंटिलेटर की कीमत
करीब साढ़े चार लाख रुपये जबकि मध्यम स्तर के आयातित वेंटिलेटर की कीमत सात लाख के करीब होती है।
उच्च गुणवत्ता वाले आयातित वेंटिलेटर की कीमत करीब 12 लाख रुपये होती है। कोरोना के करीब पांच फीसदी
मरीजों को सांस लेने के लिए वेंटिलेटर की जरूरत पड़ती है। विशेषज्ञों का मानना है कि आने वाले दिनों में भारत
में दस गुना ज्यादा वेंटिलेटरों की जरूरत पड़ सकती है। ऐसे में बड़ी संख्या में वेंटिलेटर बनाए जाने की दिशा में
युद्धस्तर पर प्रयास शुरू कर दिए गए हैं और बिस्तरों की संख्या बढ़ाने के लिए भी विभिन्न इमारतों में इसके
लिए प्रबंध शुरू कर दिए गए हैं। बहरहाल, सबसे महत्वपूर्ण सवाल यही है कि इन तमाम प्रयासों के बावजूद ग्रामीण
भारत में कोरोना संक्रमण फैलने की दशा में हम उससे निबटने में कितने सक्षम होंगे?